क्या लैंगिक अनुपात में सुधार संभव है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
हाल में प्रकाशित हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े संतोषजनक हैं. हालांकि हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे सर्वेक्षणों का आधार सीमित होता है. यह सर्वे दो चरणों में हुआ है- पहला, 17 जून, 2019 से 30 जनवरी, 2020 के बीच तथा दूसरा, दो जनवरी 2020 से 30 अप्रैल 2021 के बीच. जैसा सर्वे में बताया गया है, इसके तहत 6,36,699 परिवारों, 7,24,115 महिलाओं तथा 1,01, 839 पुरुषों का सर्वे किया गया है.
भारत की बड़ी आबादी की तुलना में इसे कम ही माना जायेगा. इसलिए हमें पूरी स्थिति के लिए जनगणना का इंतजार करना चाहिए. यह भी संभव है कि जिन जगहों का चयन इस सर्वे के लिए किया गया है, वहां स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर हो. फिर भी, इसके नतीजे स्वागतयोग्य हैं और यह एक बड़ी खबर है कि जनसंख्या में लैंगिक अनुपात बेहतर हो रहा है. इससे यह पता चलता है कि लोगों में चेतना बढ़ी है तथा इस संबंध में जो सरकारी प्रयास हो रहे हैं, वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. इन प्रयासों में हमारे जैसे संगठनों ने भी योगदान किया है.
सर्वे में बताया गया है कि देश में लैंगिक अनुपात में बड़ा सुधार हुआ है और प्रति एक हजार पुरुष आबादी पर 1020 महिलाओं की संख्या है. बहुत कम समय में इस आंकड़े को हासिल किया है. इस कारण मेरी नजर में यह सही नहीं लगता है, लेकिन ऐसे सर्वे के नतीजे बहुत सोच-समझकर और वैज्ञानिक पद्धतियों के आधार पर तैयार होते हैं. सो, मेरा इरादा सवाल उठाने का नहीं है. फिर भी, हमें जनगणना से प्राप्त तथ्यों के आधार पर ही अंतिम निष्कर्ष निकालना चाहिए.
इस सर्वे के कुछ अन्य आंकड़ों को भी देखा जाना चाहिए. साल 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में भारत का लैंगिक अनुपात 991 बताया गया था. उस समय जन्म के समय का लैंगिक अनुपात 919 था यानी नवजात शिशुओं में प्रति एक हजार पुरुष शिशुओं पर 919 स्त्री शिशु पैदा हो रहे थे. वर्ष 2019-20 में यह आंकड़ा 929 हो गया था. यदि हम कुल लैंगिक अनुपात की बात करें, तो 2005-06 के सर्वेक्षण में यह आंकड़ा 1000 था, लेकिन 2015-16 में इसमें कमी आयी और अनुपात 991 पर आ गया.
ऐसे में 1020 के वर्तमान अनुपात को मान भी लें, तो अगर जन्म के समय के अनुपात में सकारात्मक सुधार नहीं होगा, तो कुल अनुपात भी आगे जाकर कम हो जायेगा. इसलिए, हमें लगातार प्रयासरत रहना होगा.
बीते कुछ दशकों में माताओं और शिशुओं की मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी आयी है, लेकिन अब भी ये दर वैसे कई देशों के समकक्ष हैं, जो अविकसित हैं. भारत अब एक विकासशील देश से विकसित देश होने की ओर बढ़ रहा है. ऐसे में हमें इन दरों को बहुत निम्न स्तर पर लाना होगा. स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़ों में बेहतरी दिख रही है, तो हमें अब तक अपनायी जा रही रणनीति पर आगे बढ़ने की आवश्यकता है.
माताओं व शिशुओं की मौतों को रोकना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए. आज हमारे पास जब इतने संसाधन उपलब्ध हैं, तो यह सुनिश्चित करना मुश्किल नहीं होना चाहिए. यदि जन्म के समय के अनुपात को ठीक करने तथा माता और शिशु की जीवन रक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया, तो आगे चलकर आबादी में महिलाओं की संख्या में कमी आ जायेगी. गर्भवती स्त्रियों तथा नवजात शिशुओं की देखभाल में आशा कार्यकर्ताओं तथा आंगनबाड़ी की उल्लेखनीय भूमिका है.
आशा कार्यकर्ता गर्भवती महिलाओं को निकट के स्वास्थ्य केंद्र ले जाती हैं और उन्हें आवश्यक दवाइयां व अन्य चीजें मुहैया करायी जाती हैं. उन केंद्रों में चिकित्सकों और नर्सों की देखरेख में बच्चे पैदा होते हैं. इससे बहुत फर्क पड़ा है, लेकिन अब भी ऐसे केंद्रों की पर्याप्त संख्या नहीं है और उनमें चिकित्सकों और अन्य संसाधनों का अभाव भी है. इन केंद्रों में साफ-सफाई का भी ध्यान रखा जाना चाहिए.
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को समुचित वेतन-भत्ते नहीं दिये जाते हैं. उनकी आमदनी न्यूनतम मजदूरी से भी कम है. महामारी के दौरान हमने खुद उनकी बदहाली को देखा है. संक्रमण से बचाव के साजो-सामान उन्हें मुहैया नहीं कराये गये थे और न ही महामारी के बारे में ढंग से बताया गया था. उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी.
महामारी के दौरान उनसे मशीनों की तरह काम लिया गया है. वे तमाम घरों में दवा पहुंचाने और लोगों की देखभाल का जिम्मा संभाल रही थीं, जबकि उनके संक्रमित होने का खतरा सबसे अधिक था. ये कार्यकर्ता देश की बहुत बड़ी सेवा कर रही हैं. इन स्थितियों में व्यापक सुधार की दरकार है. उन्हें अगर ठीक से भुगतान नहीं किया जायेगा और अच्छा प्रशिक्षण नहीं दिया जायेगा, तो उनसे अच्छे काम की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए. इसके बावजूद उन्होंने अपने काम को बखूबी अंजाम दिया है. सरकारों को उनके प्रति अधिक संवेदनशील होना होगा.
जनसंख्या वृद्धि दर और लैंगिक अनुपात पर विचार करते हुए हमें देश के विभिन्न हिस्सों के बीच की असमानता को भी रेखांकित करना चाहिए. उत्तर और पूर्वी भारत के राज्य ऐतिहासिक रूप से गरीब रहे हैं. इन राज्यों में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति बेहद चिंताजनक है. इसका असर हम आंकड़ों में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं.
इन राज्यों में जो नेतृत्व रहा है, उसने हमेशा राजनीति को तरजीह दी है, विकास को नहीं. जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर सत्ता पाने की कवायदें होती रही हैं. दक्षिणी राज्यों की स्थिति इससे भिन्न है. इसलिए हम देखते हैं कि उन राज्यों में देश के अन्य हिस्सों से बहुत अधिक विकास हुआ है, जो परिवार के स्वास्थ्य की बेहतरी के रूप में हमारे सामने है. दक्षिणी राज्यों में अगर सरकारें ठीक से काम नहीं करती हैं, तो लोग उन्हें बदल देते हैं.
जिन राज्यों में लैंगिक असमानता अधिक है, जनसंख्या वृद्धि की दर अधिक है, माता व शिशु के मृत्यु दर अधिक हैं, वहां के नेतृत्व को विकासपरक राजनीति की ओर उन्मुख होना चाहिए तथा इन मसलों में दक्षिणी राज्यों के अनुभवों से सीख लेनी चाहिए. इन राज्यों में शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ उद्योगों के विस्तार पर ध्यान देना चाहिए. चेतना और जागरूकता बढ़ाने को विशेष प्राथमिकता दी जानी चाहिए. लैंगिक अनुपात में बेहतरी कर और समाज में महिलाओं को समान स्थान देकर ही विकास की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है. हमें एक ओर जहां महिलाओं को लेकर नकारात्मक मानसिकता में बदलाव लाना है, वहीं विकास पर भी ध्यान देना है.