क्या मीडिया ट्रायल सही मायने में न्यायिक प्रक्रिया में एक अवरोधक है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा ने देशभर में न्यायाधीन मामलों पर जारी मीडिया ट्रायल को लेकर अफसोस जताया है। एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने यह भी कहा कि मीडिया ट्रायल से न्यायाधीशों का काम मुश्किल हो गया है। साथ ही इससे न्याय प्रदान करने से जुड़े मुद्दों पर गैर-सूचित और एजेंडा संचालित बहस लोकतंत्र के बुनियाद को नुकसान पहुंचा रहा है। ऐसे में सवाल यह खड़ा होता है कि क्या मीडिया ट्रायल सही में न्यायिक प्रक्रिया में एक अवरोधक है? क्या इससे सही में लोकतांत्रिक प्रणाली कमजोर हो रही है?
दरअसल मीडिया ट्रायल का मतलब है मीडिया द्वारा किसी भी विषय पर जल्दबाजी में बहस करना और एक निर्णय पर पहुंच जाना। हालांकि प्रेस की स्वतंत्रता सभी लोकतांत्रिक देशों में हमेशा से एक महत्वपूर्ण अधिकार रही है। वैसे पूर्व में मीडिया ट्रायल के द्वारा जेसिका लाल मर्डर केस या नीतीश कटारा मर्डर का मामला काफी हद तक सार्थक साबित हुआ था। ऐसे में बहस इस पर भी होनी चाहिए कि न्यायिक प्रक्रिया को कैसे सरल बनाया जाए। आज न्यायिक व्यवस्था पर व्यापक दबाव है। लिहाजा न्यायिक सुधार का मामला भी एक बड़ी चुनौती है।
देश में लंबित मुकदमों की बात करें तो नेशनल जुडिशियल डाटा ग्रिड के अनुसार न्यायपालिका के जिला और उससे निचले स्तर की विभिन्न अदालतों में लगभग 4.24 करोड़ मामले लंबित हैं। उनमें से (74.4 प्रतिशत) अधीनस्थ न्यायालयों में एक साल से पुराने मामले हैं। विभिन्न उच्च न्यायालयों में लगभग 59 लाख मामले लंबित हैं जिनमें से 84 प्रतिशत मामले एक वर्ष से अधिक पुराने हैं।
न्यायिक सेवा में न्यायाधीशों की बात करें तो अधीनस्थ अदालतों में लगभग 35 प्रतिशत पद रिक्त हैं। यह जनसंख्या अनुपात देश में न्यायाधीशों की कम संख्या को दर्शाता है, क्योंकि भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर केवल 17 न्यायाधीश हैं। जबकि विधि आयोग ने प्रति दस लाख 50 न्यायाधीशों की सिफारिश की थी। ऐसे में न्यायिक सुधार की दिशा में इसे तेजी से क्रियान्वित भी किया जाना चाहिए। न्यायपालिका को चाहिए कि ऐसे विषय पर वह अविलंब रोडमैप बनाते हुए एक सामूहिक मत तैयार करे और वर्षो से लंबित सुधार को एक दिशा प्रदान करे।
ग्रामीण क्षेत्र की बात करें तो अधिकांशत: निचली अदालतों की आधारभूत संरचना की स्थिति खराब है जिस कारण उनकी गुणवत्ता प्रभावित होती है और लोगों को त्वरित निर्णय नहीं दे पाती है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.09 प्रतिशत ही न्यायिक बुनियादी ढांचे को बनाए रखने के लिए खर्च करता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रकाशित 2016 की एक संबंधित रिपोर्ट में भी इसे रेखांकित किया गया था। बीते दिनों मुख्य न्यायाधीश ने देश में न्यायिक बुनियादी ढांचे की दयनीय स्थिति पर केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री का ध्यान आकर्षित किया था। परंतु इस दिशा में अब तक कुछ सार्थक होता दिखा नहीं।
देश स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में अमृत महोत्सव मना रहा है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि हम संविधान को देश के हर नागरिक तक ले जाएं। लोगों को उनके मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्यों के बारे में बताएं और उन्हें तत्परता से क्रियान्वित करवाएं। न्यायपालिका को चाहिए कि न्याय तंत्र को मजबूत बनाते हुए भारतीय लोकतंत्र में अपने विश्वास को स्थापित करे। लोकतंत्र के एक मजबूत बुनियाद के रूप में लंबित न्यायिक सुधार को अपनाते हुए न्याय को सही समय पर जन-जन तक पंहुचाना ही ‘यतो धर्म: ततो जय:’ की सार्थकता को सिद्ध करेगी।
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