क्या ध्वस्त होने की कगार पर है हमारा न्यायिक सिस्टम ?

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प्रत्येक देश की न्यायिक व्यवस्था में हैं खामियां और खूबियां

तत्काल समाधान न होना बड़े अपराध की वजह

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दिल्ली का निर्भया कांड, जिसने पूरे भारत को झकझोर दिया था। 16 दिसंबर 2012 की रात करीब 9:45 बजे चलती बस में 21 वर्षीय युवती के साथ छह लोगों ने हैवानियत की हदें पार कर दीं। संसद से लेकर सड़क तक खूब हंगामा हुआ। मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट में हुई, बावजूद निर्भया के परिवार को इंसाफ के लिए सात वर्ष से ज्यादा इंतजार करना पड़ा।

ऐसे कई उदाहरण हैं, जब इंसाफ के इंतजार में पीढ़ियां बदल गईं। बावजूद भारत में अपराध और कोर्ट केस के बढ़ते आंकड़े डराने वाले हैं। हमने इस विषय पर कुछ विशेषज्ञों से बात कर जानना चाहा कि आखिर हमारी न्यायिक व्यवस्था से जुड़े ये आंकड़े इतना भयावह क्यों हैं।

अपराध के आंकड़े एक बड़ा झूठ है

हमारे यहां अपराध के जो आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं वो एक बड़ा झूठ के अलावा कुछ नहीं होता। वास्तविकता इससे बहुत अलग है। हकीकत ये है कि इंसाफ पाना तो बहुत दूर, आम लोगों के लिए थाने जाकर रिपोर्ट दर्ज कराना ही एक बड़ी चुनौती है। तमाम मामलों में पुलिस केस दर्ज ही नहीं करती। इसलिए अपराध के जो आंकड़े सामने आते हैं, वह पूरी हकीकत बयां नहीं करते।

प्रत्येक देश की न्यायिक व्यवस्था में हैं खामियां और खूबियां

वर्तमान में अमेरिका के कॉर्नेल लॉ स्कूल (Cornell Law School, USA) से ‘गलत सजा और बेगुनाही के दावे’ (Wrongful Convictions and Innocence Claims) विषय पर रिसर्च कर रहे हैं। वह बताते हैं कि भारत की तरह प्रत्येक देश की न्याय व्यवस्था में कुछ खूबियां और कुछ खामियां हैं। जैसे- कैलिफोर्निया पुलिस को हाल में अधिकार दिया गया है कि चोरी के मामलों में वह तभी रिपोर्ट दर्ज करे, जब उसकी कीमत एक निश्चित सीमा से ज्यादा हो। कुछ इसका स्वागत कर रहे हैं, तो वहीं कुछ इसलिए विरोध कर रहे हैं कि ऐसे तो कोई अपराधी ऐसी चीजों को आसानी से निशाना बनाएगा, जो निर्धारित कीमत से कम की है।

संपत्ति विवाद में अपराध का एंगल बड़ी समस्या

अमेरिका में भूमि रिकॉर्ड बहुत पुख्ता है। किसी भूमि का पुनः रजिस्ट्रेशन तभी होता है, जब सरकार द्वारा अधिकृत एजेंट या एजेंसी उसे प्रमाणित करे। भारत में अपराध के आंकड़े गंभीरता के हिसाब से वर्गीकृत हैं। इसमें बड़ी संख्या में ऐसे अपराध हैं, जिनकी मूल वजह संपत्ति विवाद है। भारत में संपत्ति (विशेषकर भूमि) का पुख्ता रिकॉर्ड नहीं है। इससे वित्तीय विवाद, धोखाधड़ी और फर्जीवाड़े को बढ़ावा मिलता है। ऐसे सिविल केस अदालतों में लंबे चलते हैं। लिहाजा संबंधित पक्ष त्वरित न्याय के लिए इसमें अपराध का एंगल जोड़ देते हैं। इससे न्याय व्यवस्था पर भार पड़ता है और ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में अपराध बहुत ज्यादा है, जो सच नहीं है।

FIR लिखने के लिए प्राथमिक जांच जरूरी नहीं

आम लोग जानते हैं कि FIR दर्ज कराना कितना मुश्किल है। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ का आदेश है ‘FIR दर्ज करना पुलिस के लिए अनिवार्य है। रिपोर्ट दर्ज करने के लिए किसी प्राथमिक जांच की जरूरत नहीं है।’ रिपोर्ट दर्ज न करने से कानून का राज कमजोर होता है। इसी वजह से लोग अपराध के आंकड़ों पर भरोसा नहीं करते। रिपोर्ट दर्ज न करना या संगीन अपराध को छिपाने के लिए किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। ऐसा दशकों से चल रहा है। इसलिए अपराध के जो आंकड़े दिखाए जाते हैं वो काल्पनिक और हकीकत से परे होते हैं। ये एक बिना लिखी हुई, सोची-समझी नीति है, ताकि आंकड़े नियंत्रित दिखें और पुलिस या राज्य सरकार पर इसका दबाव न पड़े।

अपराध के आंकड़ों से न हो पुलिसिंग का आंकलन

पुलिस के काम का आंकलन अपराध के आंकड़ों की जगह, इस आधार पर होना चाहिए कि लोग कितना सुरक्षित महसूस कर रहे। पुलिस इसलिए भी रिपोर्ट दर्ज नहीं करती, क्योंकि इसकी जांच का भार और पेडिंग केस की संख्या बढ़ने पर उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाता है। किसी भी राज्य में पांच-गुना अपराध का आंकड़ा बढ़ने से वहां राजनीतिक भूचाल आ सकता है। ऐसे में जरूरी है कि पुलिसिंग के आंकलन का पैमाना बदला जाए। अन्यथा कानून का राज स्थापित नहीं हो सकता। महाराष्ट्र पुलिस ने वर्ष 2013 में आम जनता के बीच पुलिसिंग के बारे में सर्वे कराने का एक प्रस्ताव गृह मंत्रालय को भेजा था, जिसे महत्व नहीं दिया गया।

तत्काल समाधान न होना बड़े अपराध की वजह

कहते हैं कि इनमें काफी संख्या छोटे-छोटे आम नागरिक मुद्दों (Civic Issues) से जुड़े केस की है, जैसे कूड़ा न उठाना, नालियां ओवरफ्लो होना आदि। इसके अलावा भू रिकॉर्ड दुरुस्त न होने के कारण संपत्ति के विवाद भी अदालों में बहुत ज्यादा हैं। नागरिक मुद्दों और संपत्ति विवाद से जुड़े इन छोटे-छोटे मामलों में तत्काल समाधान न होने पर ये बड़े अपराध की शक्ल ले लेते हैं। ऐसे मामले बहुत से झूठे आरोपों व तथ्यों के साथ अदालत पहुंचते हैं और पर्याप्त साक्ष्य न होने की वजह से लंबे समय तक पेंडिंग रहते हैं।

दबाव में काम करने से प्रभावित होती है पुलिसिंग

ज्यादातर राज्यों में पुलिस भारी दबाव में और बहुत लंबी ड्यूटी करती है। उन्हें मौजूद चुनौतियों के लिहाज से बेहतर प्रशिक्षण मिले। पुलिस कई बार वास्तविक मामलों की जगह, दबाव में गैर जरूरी या अनुचित मामले दर्ज कर लेती है। पुलिस पर राजनीतिक नियंत्रण, उसकी स्वतंत्रता छीनता है। इससे पुलिसिंग प्रभावित होती है।

पीड़ित केंद्रित हो न्यायिक व्यवस्था

भारतीय न्यायिक व्यवस्था पीड़ित केंद्रित होनी चाहिए, मतलब जो पीड़ित के हितों को ध्यान में रखे। अभी केस दर्ज होने के बाद इंसाफ की प्रक्रिया बहुत लंबी और जटिल है। ट्रायल पूरा होने में ही कई वर्ष लग जाते हैं, ट्रायल के बाद अदालत का फैसला आने में कई और वर्ष लगते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि देश में न्यायधीशों की संख्या बहुत कम है, जबकि प्रत्येक स्तर पर जजों के कई पद खाली पड़े हैं। लंबिक कोर्ट केस की संख्या कम कर व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है।

भारत की विशाल आबादी भी जिम्मेदार

पिछले कुछ दशक में न्याय प्रणाली पर काम का बोझ बहुत बढ़ गया है। इसके लिए हमारी विशाल आबादी भी जिम्मेदारी है। शिकायतकर्ता को अदालत जाने से पहले मामले की गंभीरता पर विचार करना चाहिए और छोटे-छोटे मामलों में कोर्ट केस करने से बचना चाहिए। जिन मामलों में संभव हो, आपसी समझौतों से कोर्ट केस कम किये जा सकते हैं।

ध्वस्त होने की कगार पर है हमारा न्यायिक सिस्टम

ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय न्यायिक सिस्टम ध्वस्त होने की कगार पर है। आलम ये है कि FIR दर्ज होने, उसकी जांच होने और फिर उसके कोर्ट ट्रायल तक सिस्टम में शायद ही कहीं कोई उम्मीद की किरण बाकी है। ज्यादातर जांच, भ्रष्टाचार की भेट चढ़ जाती है, जिससे न्यायिक व्यवस्था पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इस फेल सिस्टम ने आम लोगों को ही पीड़ित बना दिया है। इस पर तत्काल ध्यान देने और जरूरी कदम उठाने की जरूरत है।

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