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क्या ‘पठान’ कला के मानदंड पर उम्दा कृति है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बॉक्स ऑफिस के आंकड़े कब से किसी अच्छी फिल्म का पैमाना हो गए हैं? क्या आपको याद है कि 1959 में आई फिल्म ‘कागज के फूल’ की नाकामी ने गुरु दत्त का दिल तोड़ दिया था, लेकिन आज उसे एक क्लासिक माना जाता है! सिनेमा का इतिहास ऐसी फिल्मों से भरा है, जो अपने जमाने में बड़ी व्यावसायिक कामयाबी साबित हुई थीं, लेकिन आज भुला दी गई हैं।

यही कारण है कि आज जिस तरह से फिल्म ‘पठान’ के बॉक्स ऑफिस आंकड़ों का जश्न मनाया जा रहा है, वह कुरूप है। इस फिल्म के लीड एक्टर- जिन्हें सोशल मीडिया पर तंग किया जा रहा था, जिनके बेटे को कथित रूप से ड्रग का इस्तेमाल करने के मामले में जेल जाना पड़ा था और जो असहिष्णुता पर अपनी पुरानी टिप्पणियों के चलते निशाने पर थे- को अपनी भारतीयता का प्रदर्शन करने के लिए अतिरिक्त जोर लगाना पड़ा है!

फिल्म में शाहरुख को केवल पठान के नाम से पुकारा जाता है। जब उनसे पूछा जाता है कि क्या वे मुस्लिम हैं तो वो जवाब देते हैं कि उन्हें एक सिनेमाघर में लावारिस हालत में पाया गया था। वे जॉन एफ. कैनेडी के कथन को नियमपूर्वक दोहराते हुए कहते हैं कि एक सैनिक यह नहीं पूछता कि उसका देश उसके लिए क्या कर सकता है, बल्कि वो यह बताता है कि वह देश के लिए क्या कर सकता है।

खलनायकों को ठिकाने लगाते समय वे जय हिन्द कहना नहीं भूलते। उनके आलोचकों को इसके अलावा और क्या चाहिए था? फिल्म में हिट होने के तमाम मसाले डाले गए थे, फिर चाहे पाकिस्तान की लानत-मलामत करना हो या भारत को एक ऐसे ताकतवर मुल्क के रूप में प्रदर्शित करना, जो आतंकवादियों से बातचीत नहीं करता। फिल्म ‘पठान’ में तमाम राष्ट्रवादी सुर ठीक तरह से लगाए गए हैं। लेकिन क्या वह सिनेमा-कला के मानदंड पर एक उम्दा कृति सिद्ध हुई है? और क्या उसने समाज के लिए कोई योगदान दिया है?

जवाब है, नहीं। इसके बावजूद हिंदी फिल्म उद्योग के द्वारा उसकी सफलता का उत्सव मनाया जा रहा है, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि इस फिल्म ने सोशल मीडिया की बॉयकॉट ब्रिगेड को परास्त कर दिया है। जबकि उसने ज़ेनोफोबिया (विदेशियों के प्रति विद्वेष) का प्रदर्शन करते हुए बहुसंख्यकवाद के मौजूदा चलन को और बढ़ावा ही दिया है। तो क्या ‘पठान’ बॉलीवुड के लिए गेमचेंजर साबित होगी?

इंडस्ट्री तो उसकी कमाई के आंकड़ों पर फिदा है और इसे इस बात से राहत मिली है कि उसने शाहरुख की स्टारडम को फिर से स्थापित कर दिया है। इसमें संदेह नहीं कि शाहरुख देश के चहेते फिल्म सितारे हैं और उनकी पिछली कुछ फिल्मों के अपेक्षानुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाने से उनके प्रशंसक मायूस थे। कहा जाने लगा था कि खान त्रयी का 30 वर्ष पुराना साम्राज्य समाप्त हो चुका है।

यही कारण था कि पठान की कामयाबी के बाद शाहरुख ने सार्वजनिक रूप से अपने प्रशंसकों का शुक्रिया अदा किया, क्योंकि उनकी फिल्मों की नाकामी का उनके परिवार और दोस्तों पर बुरा असर पड़ने लगा था। फिल्म के एंड क्रेडिट्स में शाहरुख और सलमान बतियाते हुए नजर आते हैं और वे कहते हैं कि हमारी जगह कोई नहीं ले सकता।

यह तो वैसा ही है कि तमिल फिल्म उद्योग में रजनीकांत और कमल हासन या मलयाली फिल्म उद्योग में मोहनलाल और मम्मूटी किसी फिल्म के दृश्य में साथ आएं और नई पीढ़ी के सितारों का मखौल उड़ाएं। क्या वो कभी ऐसा करेंगे? और क्या किसी भी उद्योग के लिए यह एक बेहतर स्वस्थ परम्परा नहीं होगी कि सितारों की दूसरी पीढ़ी सफलता से अपना मुकाम बनाए?

लेकिन बॉलीवुड में पैसों की पूजा की जाती है और फिलहाल वहां पौरुषपूर्ण राष्ट्रवाद का फॉर्मूला चल रहा है। यशराज फिल्म्स ने कभी ‘दीवार’ और ‘त्रिशूल’ जैसी फिल्में बनाई थीं, जिसमें भ्रष्ट बिल्डरों और स्मगलरों के विरुद्ध संघर्ष को प्रदर्शित किया गया था। उन्होंने ‘कभी-कभी’ और ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ जैसी रूमानी फिल्में रची थीं। क्या यशराज वाले ‘पठान’ से संतुष्ट होंगे।

कभी मध्यवर्गीय आउटसाइडरों के मन में सफलता की उम्मीदें जगाने वाले शाहरुख ऐसी फिल्में करके खुश होंगे? आज जब बॉलीवुड साउथ के सिनेमा, ओटीटी और हॉलीवुड के सामने अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है, तब क्या उसे एक नई शुरुआत करने पर अपना ध्यान नहीं केंद्रित करना चाहिए, बनिस्बत इसके कि उम्रदराज सुपर सितारे ही हर बार उसकी नैया पार लगाएं‌?

आज जब बॉलीवुड साउथ के सिनेमा, ओटीटी और हॉलीवुड के सामने अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है, तब क्या उसे एक नई शुरुआत करने पर अपना ध्यान नहीं केंद्रित करना चाहिए?

 

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