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क्या पीडीपी ना घर के रहे ना घाट के? - श्रीनारद मीडिया

क्या पीडीपी ना घर के रहे ना घाट के?

क्या पीडीपी ना घर के रहे ना घाट के?

राज्य में तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं होगा- महबूबा मुफ्ती

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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लोकसभा चुनावों में और अब जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को जो झटका लगा है उसके चलते इस पार्टी के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है। देखा जाये तो अपने संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद से पीडीपी एक भी जीत हासिल नहीं कर पाई है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती ने पार्टी और सरकार की कमान तो संभाली लेकिन ना वह सरकार चला पाईं ना ही अपनी पार्टी को आगे बढ़ा पाईं।

महबूबा मुफ्ती के पास कितना राजनीतिक कौशल है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ वर्षों तक काम कर चुके कई बड़े नेता पीडीपी छोड़ चुके हैं। इसके अलावा, इस साल हुए लोकसभा चुनावों में महबूबा मुफ्ती अनंतनाग-राजौरी सीट से चुनाव हार गयीं और अब उनकी बेटी इल्तिजा मुफ्ती दक्षिण कश्मीर की बिजबेहरा सीट से चुनाव हार गयीं। यही नहीं, महबूबा ने अपने भाई तस्सदुक हुसैन मुफ्ती को भी राजनीति में स्थापित करने का प्रयास किया लेकिन विफल रहीं।

महबूबा मुफ्ती ही वही शख्स हैं जिन्होंने कहा था कि यदि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाया गया तो राज्य में तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं होगा। लेकिन अब स्थिति यह है कि जम्मू-कश्मीर में हर हाथ में तिरंगा है और महबूबा की पार्टी का झंडा उठाने वाला कोई नहीं है। इस बार महबूबा मुफ्ती ने जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने या किंगमेकर बनने के उद्देश्य से चुनाव लड़ा था लेकिन जनता ने उनकी किसी उम्मीद को पूरा नहीं होने दिया।

वर्ष 2016 से 2018 तक मुख्यमंत्री रहीं महबूबा ने इस बार चुनाव नहीं लड़ा था। उनकी बेटी इल्तिजा मुफ्ती अपने पहले विधानसभा चुनाव में श्रीगुफवारा-बिजबेहरा सीट से हार गईं। महबूबा को उम्मीद थी कि उनकी पार्टी पीडीपी क्षेत्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए पर्याप्त सीट जीतेगी। वैसे पार्टी की उम्मीदें कम होने का संकेत इल्तिजा ने चुनाव से पहले ही दे दिया था जब उन्होंने कहा था कि ‘‘पीडीपी किंगमेकर होगी’’ क्योंकि चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनेगी। पीडीपी की इस करारी हार पर इल्तिजा मुफ्ती ने कई कारणों को जिम्मेदार ठहराया है।

उनका कहना है कि हमारे 25 विधायक, दो राज्यसभा सदस्य और कई मंत्री पार्टी से चले गए और उनके साथ ही हमारे कार्यकर्ता भी पार्टी छोड़कर चले गए। उनका कहना है कि हमारी पार्टी पर हुआ यह हमला इस हार का सबसे बड़ा कारण है। हम आपको बता दें कि इस बार के विधानसभा चुनाव में पीडीपी ने कुल 84 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिनमें से उसे मात्र तीन सीटों पर जीत मिली है। पीडीपी का यह प्रदर्शन दर्शा रहा है कि महबूबा अपने पिता की पार्टी को रसातल में पहुँचा चुकी हैं।

आपको याद दिला दें कि 1989 में अपहरणकर्ताओं ने उन्हें पांच आतंकवादियों की रिहाई के बदले रिहा किया था। 1990 के दशक की शुरुआत में इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी। रुबैया का अपहरण घाटी के अस्थिर इतिहास की एक प्रमुख घटना माना जाता है। उनकी आजादी के बदले जेकेएलएफ के पांच सदस्यों की रिहाई को आतंकी समूहों का मनोबल बढ़ाने वाले कदम के रूप में देखा गया था, जिन्होंने उस समय सिर उठाना शुरू किया था। रुबैया को आठ दिसंबर 1989 को श्रीनगर के लाल डेड अस्पताल के पास से अगवा कर लिया गया था। 13 दिसंबर 1989 को केंद्र की तत्कालीन वीपी सिंह सरकार द्वारा पांच आतंकियों को रिहा किए जाने के बाद अपहरणकर्ताओं ने उन्हें रिहा कर दिया था।

वैसे वर्ष 1996 में अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ राजनीति में आईं महबूबा ने पीडीपी को एक क्षेत्रीय राजनीतिक शक्ति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसने न केवल नेशनल कॉन्फ्रेंस का मुकाबला किया बल्कि क्षेत्र की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को उसके गठन के चार साल के भीतर सत्ता से बाहर कर दिया था। वर्ष 2002 में 16 सीटें जीतने वाली पीडीपी के विधायकों की संख्या 2008 में 21 और 2014 के विधानसभा चुनाव में 28 हो गई थी। महबूबा चार बार विधायक रह चुकी हैं। उन्होंने 1996, 2002, 2008 के आम चुनाव और 2016 के उपचुनाव में जीत दर्ज की। वह 2004 और 2014 के चुनाव में लोकसभा के लिए चुनी गई थीं।

बहरहाल, अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही पीडीपी को चाहिए कि वह अपनी सोच और नीतियों में बदलाव लाये और देश के साथ खड़ी हो। पीडीपी को देखना चाहिए कि जिस पाकिस्तान से बातचीत की वह बार-बार हिमायत करती है उसने इस बार के चुनाव में पीडीपी का नहीं बल्कि नेशनल कांफ्रेंस का समर्थन कर दिया था। देखा जाये तो इसे ही कहते हैं ना घर के रहे ना घाट के।

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