क्या संघ की स्थापना राष्ट्र के लिए एक युगान्तकारी घटना है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
चिकित्सा क्षेत्र में मुख्यत: दो पद्धतियां प्रचलित हैं जिसमें एलोपैथी तत्काल राहत तो देती है परन्तु स्थाई स्वास्थ्य नहीं परन्तु आयुर्वेदिक पद्धति बीमारी को जड़ से खत्म करती है। बात उस समय की है जब देश स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत था और देशवासियों के सामने दो मार्ग थे, एक तो क्रान्ति का जिससे तत्काल स्वतन्त्रता मिल सकती थी और दूसरा मार्ग था व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण का। राष्ट्र निर्माण यानि एक ऐसे समाज का निर्माण किया जाए जो स्वतन्त्रता तो प्राप्त करे ही परन्तु अपनी उन कमियों का भी निराकरण करे जिसके चलते देश को बार-बार विदेशी दासता का मुंह देखना पड़ा।
देश के महान स्वतन्त्रता सेनानी डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने देश की तत्कालीन परिस्थितियों व इतिहास का गहन अध्ययन किया और उन्होंने पाया कि जब तक समाज का निर्माण, देशवासियों में आत्मगौरव का भाव, संगठन शक्ति का विकास और समर्पण भाव पैदा नहीं होगा तब तक अगर हम स्वतन्त्रता प्राप्त कर भी लेते हैं तो वह स्थाई नहीं होगी। राष्ट्रीय गुणों के अभाव में एक शक्ति जाएगी तो कोई दूसरी आ कर देश पर फिर से कब्जा कर लेगी, जैसा कि पिछली कई शताब्दियों से होता भी आ रहा था।
किसी सफल राष्ट्र के लिए अनिवार्य इन्हीं गुणों के विकास के लिए डॉ. हेडगेवार ने जिस संगठन की नींव रखी उसका नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसकी आज विजयादशमी को देश 97वीं जयन्ती मना रहा है। देश के इतिहास में संघ की स्थापना एक युगान्तकारी घटना कही जा सकती है जिसने देश व देशवासियों को अपने मूल से जोड़ने व पुर्नोत्थान का काम किया है।
प्राचीन काल से चले आ रहे अपने राष्ट्रजीवन पर यदि हम एक सरसरी नजर डालें तो यह बोध होगा कि समाज के धर्मप्रधान जीवन के कुछ संस्कार अनेक प्रकार की आपत्तियों के उपरान्त भी अभी तक दिखाई देते हैं। यहाँ धर्म-परिपालन करने वाले, प्रत्यक्ष अपने जीवन में उसका आचरण करने वाले तपस्वी, त्यागी एवं ज्ञानी व्यक्ति एक अखण्ड परम्परा के रूप में उत्पन्न होते आए हैं। उन्हीं के कारण अपने राष्ट्र की वास्तविक रक्षा हुई है और उन्हीं की प्रेरणा से राज्य-निर्माता भी उत्पन्न हुए।
डॉ. हेडगेवार जी का मानना था कि लौकिक दृष्टि से समाज को समर्थ बनाने में तभी सफल हो सकेंगे, जब उस प्राचीन परम्परा को हम लोग युगानुकूल बना, फिर से पुनरुज्जीवित कर पाएं। इस युग में जिस परिस्थिति में हम रहते हैं, ऐसे एक-एक, दो-दो, इधर-उधर बिखरे, पुनीत जीवन का आदर्श रखने वाले उत्पन्न होकर उनके द्वारा धर्म का ज्ञान, धर्म की प्रेरणा देने मात्र से काम नहीं होगा।
आज के युग में तो राष्ट्र की रक्षा और पुन:स्थापना करने के लिए यह आवश्यक है कि धर्म के सभी प्रकार के सिद्धान्तों को अन्त:करण में सुव्यवस्थित ढंग से ग्रहण करते हुए अपना ऐहिक जीवन पुनीत बना कर चलने वाले और समाज को अपनी छत्र-छाया में लेकर चलने की क्षमता रखने वाले असंख्य लोगों का सुव्यवस्थित और सुदृढ़ जीवन एक सच्चरित्र, पुनीत, धर्मश्रद्धा से परिपूरित शक्ति के रूप में प्रकट हों और वह शक्ति समाज में सर्वव्यापी बनकर खड़ी हो। यह इस युग की आवश्यकता है। डॉ. हेडगेवार चाहते थे कि इस कार्य में सम्पूर्ण समाज लगे और समाज को इस काम के लिए प्रेरित, प्रशिक्षित करने का काम वह स्वयंस्फूर्त व्यक्ति करे जिसे स्वयंसेवक कहते हैं।
डॉक्टरजी ने 12-14 वर्ष आयु के किशोरों को साथ लेकर हिन्दू समाज के संगठन कार्य शुरू किया। संघ में हिन्दू शब्द का प्रयोग उपासना, पन्थ, मजहब या रिलिजन के नाते नहीं होता, इसलिए संघ एक धार्मिक संगठन नहीं है। हिन्दू एक जीवन दृष्टि और जीवन पद्धति है, इस अर्थ में संघ में हिन्दू शब्द का प्रयोग होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक महत्त्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है।
सत्य एक है, उसे बुलाने के नाम अनेक हो सकते हैं, पाने के मार्ग भी अनेक हो सकते हैं, वे सभी समान हैं, यह मानना भारत की जीवन दृष्टि है और यही हिन्दू जीवन दृष्टि है। एक ही चैतन्य अनेक रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। इसलिए सभी में एक ही चैतन्य विद्यमान है, विविधता में एकता यह भारत की जीवन दृष्टि है। इस जीवन दृष्टि को मानने वाला, भारत के इतिहास को अपना मानने वाला, यहाँ के जीवन मूल्यों को अपने आचरण से समाज में प्रतिष्ठित करने वाला और इनकी रक्षा हेतु त्याग और बलिदान करने वाले को अपना आदर्श मानने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है,
फिर उसका उपासना पन्थ चाहे जो हो। संघ का साफ मानना है कि भारत में रहने वाला ईसाई या मुस्लिम बाहर से नहीं आया है। वे सब यहीं के हैं। हमारे सब के पुरखे एक ही हैं, किसी कारण से मजहब बदलने से जीवन दृष्टि नहीं बदलती है। इसलिए उन सभी की जीवन दृष्टि भारत की याने हिन्दू ही है।
संघ केवल एक व्यक्ति की उपज नहीं बल्कि इसके विकास व स्थापना में सम्पूर्ण समाज का सहयोग साफ झलकता है। संगठन का नाम क्या हो, किसी ने ‘शिवाजी संघ’ नाम सुझाया तो किसी ने ‘जरीपटका मण्डल’ और किसी ने ‘हिन्दू स्वयंसेवक संघ’ किन्तु अन्त में नाम निश्चित हुआ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। संघ की प्रार्थना के सम्बन्ध में भी यही हुआ। संघ प्रार्थना संघ की स्थापना के 15 वर्षों बाद तैयार की गई।
पहले मराठी और हिन्दी में दो श्लोक मिलाकर प्रार्थना की जाती थी। हिन्दी श्लोक में एक पंक्ति इस प्रकार थी, ‘शीघ्र सारे दुर्गुणों से मुक्त हमको कीजिए।’ इसमें जो नकारात्मक, निराशा का भाव है, वह डॉक्टरजी को पसन्द नहीं आया। अत: उसके स्थान पर ‘शीघ्र सारे सद्गुणों से पूर्ण हिन्दू कीजिए’ पंक्ति स्वीकार की गई। इससे यही स्पष्ट होता है कि डॉक्टर जी का मौलिक चिन्तन कितना सूक्ष्म और मूलग्राही था।
संघ के उत्सवों के चयन व गुरु परम्परा में भी इस चिन्तन की झलक मिलती है। हिन्दू समाज में गुरु परम्परा हजारों वर्षों से चली आ रही है। डॉक्टरजी भी उसी परम्परा अनुसार स्वयं गुरुस्थान पर आरुढ़ होते तो कोई उन्हें दोष नहीं देता। अपनी जयजयकार सुनकर भला किसका मन प्रफुल्लित नहीं होता? किन्तु उन्होंने कहा कि परमपवित्र भगवा ध्वज ही हमारा गुरु है।
कोई भी कार्य करना हो तो थोड़ा बहुत धन आवश्यक होता है परन्तु इस मामले में भी संघ की स्थिति अलग रही है। प्रारम्भ में चन्दा एकत्रित कर यह खर्च वहन किया जाता, किन्तु आगे चलकर कार्यकर्ताओं ने ही स्वयं विचार किया कि यदि हम इसे अपना ही कार्य मानते हैं तो फिर इसका खर्च स्वयं ही क्यों न वहन करें ? फिर, प्रश्न उठा कि हम जो पैसा दें उसके पीछे दृष्टि और मानसिकता क्या हो ? डॉक्टरजी ने कहा, हमें कृतज्ञता और निरपेक्षबुद्धि से यह देना चाहिए। इस प्रकार संघ में गुरुदक्षिणा की पद्धति प्रारम्भ हुई।
पहले वर्ष नागपुर शाखा की गुरुदक्षिणा केवल 84 रु. हुई। इसके बाद प्रश्न पैदा हुआ कार्यविस्तार का, जिस हेतु कार्यकर्ता कहां से मिलें ? तब कुछ स्वयंसेवक अन्य प्रान्तों में गये, इन्होंने वहां शिक्षा ग्रहण करने के साथ ही संघ की शाखाएं भी खोलीं, कार्यकर्ता भी तैयार किए। आगे चलकर यही विद्यार्थी वहां पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य करने लगे। कार्य की सफलता के लिए कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की आवश्यकता महसूस हुई और इस दृष्टि से संघ शिक्षा वर्ग की श्रृंखला चल पड़ी। अपने जीवन काल के 97 सालों में संघ भारतीय जनमानस के हृदयपटल में पूरी तरह रच-बस गया है।
लगभग इसी कालखण्ड में देश में वामपन्थी विचारधारा ने प्रादुर्भाव किया, वो आए और खरगोश की गति से आगे बढ़े परन्तु देश की मिट्टी से कटे होने के कारण तमाम तरह के छल-प्रपञ्चों के बावजूद भी अन्तिम सांसें ले रहे हैं। दूसरी ओर देश के मूल से जुड़ा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चरैवेति-चरैवेति के सनातन सिद्धान्त का अनुसरण करता हुआ आज भी तेजी से उभरती स्थिति में दिखाई दे रहा है तो इसे देश के पुनर्जागरण का ही अरुणोदय माना जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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