क्या दशहरा मेला की उत्सुकता कम हो रही है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
अपना देश पर्वों, त्योहारों, उत्सवों और मेलों के लिए जाना जाता है. कभी दशहरा मेला, कभी दिवाली मेला, कभी वसंत मेला, तो कभी होली मेला. उत्तर भारत में नवरात्रि से लेकर दिवाली तक आयोजनों की बहार रहती है. सच तो यह है कि हमारे ग्रामीण समाज में मेले एक-दूसरे से मिलने, रास-रंग, जरूरत की वस्तुओं की खरीददारी और घूमने-फिरने, आनंद मनाने की जगह रहे हैं. वे स्त्रियां जो यों कभी घर से बाहर नहीं निकल सकती थीं, वे मेलों में भारी संख्या में नजर आती थीं. यही उनकी दृश्यमानता होती थी, वरना पुराने जमाने में महिलाएं बाजार में न के बराबर दिखती थीं. इसलिए महिलाओं में मेले के प्रति अति-उत्साह होता था. वे सज-संवरकर, जतन से बचाये पैसे लेकर मेलों में पहुंचती थीं.
जो नहीं जा पाती थीं, वे दूसरों के भाग्य पर दुख मनाती उदास होती थीं. उन दिनों एक गीत बहुत सुनायी देता था- ‘‘चंपा जाये, चमेलीउ जा रही, मैं कैसे रह जाऊंगी, पांच आने की पाव जलेबी बैठ सड़क पर खाऊंगी’’. इस गीत से लगता है कि तब महिलाओं के जीवन में जलेबी एक अनोखी वस्तु थी. जो न हर रोज खायी जा सकती थी, न हर जगह मिलती थी. उसे खाने का मौका मेले में ही सखियों के साथ मिल सकता था. फिर पांच आने यानी चवन्नी में एक आना जोड़ दिया जाये, तो एक पाव यानी ढाई सौ ग्राम जलेबी आ सकती थी. अर्थ यह भी हुआ कि यह उस जमाने की बात है, जब रुपये में 16 आने होते थे और आर्थिकी में दो आने, चार आने का महत्व भी था. उनसे मनपसंद चीजें खरीदी जा सकती थीं. इन दिनों चवन्नी बंद हो चुकी है और अठन्नी भी दिखाई नहीं देती.
तब दशहरे मेले में खाने-पीने की चीजें, कपड़े, खिलौने, सारंगी, धनुष- बाण, गत्ते और लकड़ी की तलवारें, गन्ने, मूंगफली, भुना मक्का, गेहूं, बाजरा, चाट-पकौड़ी, गोलगप्पे आदि खूब मिलते थे. लकड़ी और मिट्टी के खिलौने भी भरपूर होते थे. लकड़ी के खिलौनों में तांगा, इक्का, रिक्शा, बैलगाड़ियां, घुड़सवार बच्चों को खूब पसंद आते थे. मिट्टी के खिलौनों में गुजरिया, बत्तखें, सिपाही, मोर, शेर, घोड़े, बैल तथा ऐसे ही बहुत से खिलौने होते थे. आज ये खिलौने मेलों में नहीं दिखायी देते. इनकी जगह प्लास्टिक और प्लास्टर ऑफ पेरिस के खिलौनों ने ले ली है. मिट्टी और लकड़ी के खिलौने अब पांच सितारा होटलों में लगने वाले मेलों या प्रदर्शनियों में दिखायी देते हैं और बहुत महंगे होते हैं.