क्या वैश्विक आर्थिक मंदी का दौर बहुत बड़ा परिवर्तन लाने जा रहा है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
चीन में मार्क्सवाद को अपनाने के सौ वर्ष हो गए हैं। इस मौके पर उत्सव मनाया जा रहा है। चीन का साध्य पूंजीवादी बनने का है और मार्क्सवाद महज साधन है। चीन ने पश्चिम के देशों तक के उद्योगों में पूंजी निवेश किया है। चीन अब ब्याज कमाने वाला महाजन देश बन चुका है। वहां के युवा वर्ग के आक्रोश और विशाल काया में दबकर उसका यह दौर समाप्त हो सकता है।
रूस में मार्क्सवाद बहुत हद तक सकारात्मक रहा है। निकिता ख्रुश्चेव के जमाने में उसने हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किए थे। ‘बैलाड ऑफ सोल्जर्स’ और ‘क्रेंस आर फ्लाइंग’ जैसी कालजयी फिल्मों का निर्माण भी किया गया था। मार्क्सवाद अपनाने वाले देशों ने अपनी सहूलियत के अनुसार उसका संस्करण रचा है। प्रतीक चिन्ह अनाज की बाली और फसल काटने वाला हंसिया रहा है, परंतु हंसिया अब हिंसा के काम आने लगा है।
1936 में पेरिस में पहला मॉल बनाया गया। एक जर्मन दार्शनिक वॉल्टर बेंजामिन ने मॉल का निरीक्षण करके कहा कि यह अजीब जगह है। ‘एक द्वार से भीतर जाकर आप रोशनी के फब्बारे में नहाती हुई जगमग दुकानों को देखते हैं। आपकी आंखें चौंधिया जाती हैं। आप बाहर निकलते हैं किसी और द्वार से जो किसी अन्य सड़क पर आपको पहुंचाता है।’
आज इन मॉल को पूंजीवादी पताकाएं माना जा रहा है। कालांतर में ये मॉल ही पूंजीवाद को सबसे बड़ी ठेस पहुंचाने वाले सिद्ध होंगे। कुछ लोगों का विचार है कि ‘बाजार से गुजरा हूं, पर खरीदार नहीं हूं।’ मॉल व्यवस्था चरमरा गई है। जाने क्यों कहीं भी ‘जगमग’ शब्द आते ही शैलेंद्र, शंकर जय किशन का फिल्म ‘चोरी-चोरी’ का गीत याद आ जाता है, ‘इस रात की जगमग में डूबी, मैं ढूंढ रही हूं अपने को, जो दिन के उजाले में न मिला, दिल ढूंढे ऐसे सपने को, कलियों पर बेहोशी की नमी, ऐसे में क्यों बेचैन है दिल, जीवन में न जाने क्या है कमी।’चीन के हुक्मरान नहीं जानते कि वहां का अवाम इसी कमी से परेशान है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो सकती है।
चीन में कोई भिक्षा नहीं मांगता। सारे चर्च अस्पताल में बदल दिए गए हैं। अमेरिका में मैकार्थी के दौर में मार्क्सवादी विचार वाले व्यक्ति को दंडित किया जाने लगा। चार्ली चैपलिन बड़े जतन और जुगाड़ से अमेरिका से भागकर लंदन आए। आज मैकार्थी का कोई नाम लेवा भी नहीं बचा परंतु चैपलिन की फिल्में देखी जा रही हैं।
चीन में लगभग तैंतीस हजार सिनेमाघर हैं। शासक जानता है कि मनोरंजन सांस लेने की तरह आवश्यक है। चीन में विदेश से आयात की गई फिल्म की कमाई का मात्र 20 फीसदी लाभ फिल्मकार को मिलता है। शेष कमाई चीन के फिल्म उद्योग के विकास पर खर्च की जाती है।
चीन के भोजन में स्वाद नहीं होता। भारत के रेस्त्रां में बने चीनी भोजन में भारतीय तड़का लगाया जाता है। राजनीतिक क्षेत्र में लगाए गए तड़के में अजीब सी गंध आती है। चीन में बनाई गई फिल्मों में सब कलाकारों को समान महत्व दिया जाता है। वहां सितारे और उसका तामझाम नहीं होता। फिल्मकार को सबसे अधिक आदर दिया जाता है। वहां कोई डुप्लीकेट या बॉडी डबल नहीं होता। सारे फंक्शन कलाकार को खुद करने होते हैं। हास्य के नाम पर महिला का अपमान नहीं किया जा सकता। हमारे एक हास्य कार्यक्रम में महिलाओं का अपमान बार-बार किया जाता है।
जब जापान ने चीन पर आक्रमण किया था, तब भारतीय डॉक्टर कोटनीस ने अनेक चीनी मरीजों की जान बचाई थी। वह दौर अलग था। आज तो चीन चोट करता है। हड़पी हुई जमीन पर उसने चाइना टाउन रच दिया है। वह इन चीनी नागरिकों को भारतीय आधार कार्ड और मतदान के लिए आवश्यक पहचान पत्र भी बनाने जा रहा है। जो बिडेन और कमला हैरिस चीन की तानाशाही पर आर्थिक प्रहार करना प्रारंभ कर चुके हैं। वैश्विक आर्थिक मंदी का दौर बहुत बड़ा परिवर्तन लाने जा रहा है।
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