क्या समय की मांग है सबके लिए एकसमान कानून?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
समान नागरिक संहिता का मामला लंबे समय से हमारे लिए एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय के रूप में रहा है। उच्च न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक ने इस संदर्भ में कई बार टिप्पणी की है। चूंकि हमारे देश में कई धर्मो के पर्सनल कानून हैं, इसलिए सरकार ने विधि आयोग से समान नागरिक संहिता से संबंधित विभिन्न पक्षों की जांच करने और अपनी संस्तुति प्रस्तुत करने का आग्रह किया है। विधि आयोग की संस्तुति आने के बाद ही सरकार इस मसले पर आगे बढ़ेगी। यही वजह है कि अभी यह बताना संभव नहीं हो सका है कि सरकार समान नागरिक संहिता कब लागू करेगी।
मालूम हो कि समय-समय पर उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिक संहिता की वकालत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के निर्णय और टिप्पणियां सार्वजनिक पटल पर हमेशा से चर्चा में रही हैं। पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के द्वारा समान नागरिक संहिता पर की गई टिप्पणियां भी काफी चर्चा में रही थीं। लेकिन हमें यह समझना होगा कि ‘समान नागरिक संहिता’ संविधान के ‘नीति निदेशक तत्व’ में शामिल है। संविधान, नीति निदेशक तत्व के माध्यम से यह बताता है कि सरकार को क्या-क्या करना चाहिए।
लेकिन उसे इन सभी चीजों को करने के लिए कोई बाध्यता आरोपित नहीं करता है कि सरकार को यह ‘करना ही होगा।’ इस मामले पर न्यायालय में न तो कोई ‘वाद’ कायम कराया जा सकता है और न ही लागू कराने के लिए आदेश ही जारी कराया जा सकता। यह सब तो सरकार पर निर्भर करता है कि वह ‘समान नागरिक संहिता’ को लागू करे या नहीं करे। यही वजह है कि सरकार इस मामले में बहुत ही सावधानी से कदम बढ़ा रही है, जिसकी वजह से इस मामले में विलंब होना स्वाभाविक है।
बहरहाल केंद्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से ही यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता की चर्चा लगातार किसी न किसी बहाने होती ही रही है। वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने जब जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष प्रविधान करने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया तब उसके बाद से समान नागरिक संहिता लागू किए जाने की उम्मीद भी लोगों में बढ़ी है।
सभी नागरिकों में समानता का भाव जाग्रत हो : देश के सभी नागरिकों के लिए समान संहिता का निर्माण केवल इसलिए नहीं होना चाहिए कि संविधान निर्माताओं ने इसकी जरूरत रेखांकित की थी, बल्कि यह इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि देश में समानता का भाव जाग्रत हो सके और जाति एवं मजहब के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं हो सके। शाहबानो प्रकरण के बाद सरला मुदगल (वर्ष 1995) तथा लिली थामस (वर्ष 2000) जैसे कई प्रकरणों में सर्वोच्च न्यायालय ने समान नागरिक कानून के नहीं होने के दोषों को उजागर करते हुए इसका तुरंत क्रियान्वयन करने का निर्देश दिया था। वैवाहिक मामलों में वैयक्तिक विधि के दुरुपयोग से विचलित होकर अदालत ने कहा था कि अब तो इसका दुरुपयोग कानून को धोखा देने के लिए भी होने लगा है।
जब वैवाहिक साथी से छुटकारा पाना हो तो कुछ समय के लिए अपना मजहब बदलकर दूसरी शादी कर ली, क्योंकि दूसरे मजहब से जुड़े कानून में उसे मान्यता दी गई है। उसके बाद अपनी मर्जी से तलाक देकर उस महिला से छुटकारा पा लिया, क्योंकि उस मजहब का कानून इसकी इजाजत देता है। हालांकि इस प्रकार के कई उदाहरण देखने को नहीं मिले हैं, जब किसी वर्ग के हित में कोई कानून बनाया गया हो और उसका लाभ न उठाया गया हो।
वर्तमान में बहुत सी मुस्लिम महिलाएं दहेज या घरेलू हिंसा के विरुद्ध बने कानून का लाभ उठा रही हैं। जबकि शरिया या कुरान में उन्हें ऐसा करने की छूट नहीं दी गई है। लेकिन किसी मौलवी या मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के किसी सदस्य को इसके खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत आज तक नहीं हुई, क्योंकि भारत के ये कानून पंथनिरपेक्ष हैं। ऐसे कानूनों में कहीं भी ‘हिंदू’ या फिर ‘मुस्लिम’ शब्द नहीं जुड़ा हुआ है।
उल्लेखनीय है कि देश में अभी हिंदू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग पर्सनल ला यानी कानून हैं। इसमें प्रापर्टी, शादी, तलाक और उत्तराधिकार जैसे मामले आते हैं। समान नागरिक संहिता पर राजनीतिक बहस सदैव होती रही है। अक्सर सेक्युलरिज्म से जुड़ी बहस में भी इसे शामिल किया जाता रहा है। जो लोग इसके समर्थन या विरोध में हैं, उन लोगों की इसके सामाजिक और धार्मिक असर को लेकर अलग-अलग सोच है।
बता दें कि समान नागरिक संहिता एक पंथनिरपेक्ष कानून है, जो सभी धर्मो के लोगों के लिए समान रूप से लागू होता है। यूनिफार्म सिविल कोड लागू होने से हर मजहब के लिए एक जैसा कानून आ जाएगा। यानी मुस्लिमों को भी अब तक उनके विवाद और तलाक के संदर्भ में अपनाई जानी वाली प्रक्रिया में परिवर्तन लाना होगा।
वर्तमान में देश के हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल ला के अधीन करते हैं। मालूम हो कि फिलहाल मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का पर्सनल ला है, जबकि हिंदू सिविल ला के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं। समान नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का कहना है कि ये सभी धर्मो पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है। कुछ लोग समान नागरिक कानून को हिंदू कानून के रूप में समझ रहे हैं,
जबकि समान नागरिक कानून का मूल ही ‘पंथनिरपेक्षता’ और सभी प्रकार के धार्मिक भेदभावों को समाप्त कर देश के सभी नागरिकों को धार्मिक आधार पर समानता प्रदान करना है। विश्व के तमाम देशों ने वर्तमान समय में यह कानून लागू कर रखा है। पोलैंड, नार्वे, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, फ्रांस, चीन और रूस जैसे कई देश इसके उदाहरण है। ऐसे में हमारे लिए आवश्यकता इस बात की है कि देश में सभी को एक ही चश्मे से देखा जाए और गोवा जैसे राज्य के उदाहरण को समूचे देश में चरितार्थ किया जाए, क्योंकि सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता को तब तक स्थापित नहीं किया जा सकता, जब तक समूचे देश में एक विधान नहीं हो जाता।
तमाम तथ्यों के बीच यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर समान नागरिक संहिता की राह में बाधा क्या है? इसका विरोध करने वालों का कहना है कि ये सभी धर्मो पर हिंदू कानून को लागू करने जैसा है। समान नागरिक संहिता के विपरीत मत रखने वालों का मानना है कि पंथनिरपेक्ष देश में पर्सनल ला में दखलंदाजी नहीं होना चाहिए। इसलिए जब समान नागरिक संहिता बने तो उसमें धार्मिक स्वतंत्रता का विशेष ध्यान रखा जाए।
कुछ लोगों का मानना है कि पर्सनल ला व्यवस्था और समान नागरिक संहिता दोनों साथ में बने रह सकते हैं, तो वहीं कुछ मानते हैं कि अगर समान संहिता लागू होती है तो इसका मतलब ही पर्सनल ला का खत्म हो जाना होगा। एक वर्ग तो ये भी मानता है कि समान नागरिक संहिता लागू किए जाने से मत की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होगा।
बहरहाल, देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे और वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होगा। वैसे भारत में जब भी समान नागरिक संहिता की बात उठती है तो उसका विरोध इस आधार पर किया जाता है कि यह कानून वर्ग विशेष को निशाना बनाने की कोशिश है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1947 में हुए धर्म आधारित विभाजन के पश्चात भी हम आज सात दशकों के बाद भी उस विभाजनकारी व समाजघाती सोच को समाप्त नहीं कर सके, बल्कि उन समस्त कारणों को अल्पसंख्यकवाद के मोह में फंस कर प्रोत्साहित ही करते आ रहे हैं। लेकिन न्याय में अब इतना विलंब नहीं होना चाहिए कि वह अन्याय लगने लगे।
समग्रता में देखा जाए तो हमारा देश बदल रहा है। तीन तलाक पर कानून बन चुका है। जम्मू-कश्मीर के संबंध में बना अनुच्छेद 370 अब अतीत बन गया है। संविधान, भारत का राजधर्म है और भारतीय संस्कृति भारत का राष्ट्रधर्म। प्रत्येक भारतवासी संविधान और विधि के प्रति निष्ठावान है। अपने विश्वास और उपासना में रमते हुए संविधान का पालन हमारी साझा जिम्मेदारी है। एक देश में एक ही विषय पर दो कानूनी विकल्पों का कोई औचित्य नहीं है।
गौरतलब है कि आधुनिक सोच का लाभ केवल हिंदुओं तक ही सीमित न रहे और वह दूसरे मतावलंबियों को भी हासिल हो, इसके लिए अदालतें लगातार कोशिश करती रही हैं। सरकारी उपेक्षा को ध्यान में रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि मुस्लिम समाज को इस मामले में पहल करने की जरूरत है, ताकि प्रगति की दौड़ में वे दूसरों से पीछे न रहें। इसलिए अब सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना काफी महत्वपूर्ण है, ताकि उनमें से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रुढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परीक्षण किया जा सके। अलग-अलग धर्मो के अलग-अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है।
समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षो से लंबित मामलों के फैसले भी जल्द होंगे। देश में शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा, फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल ला यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं।
सरकार को चाहिए कि वह समान नागरिक संहिता के निर्माण के मामले में वैसी ही इच्छाशक्ति का परिचय दे, जैसी उसने अनुच्छेद 370 को हटाने के मामले में दिखाई थी। सरकार को यह संकेत देने में संकोच नहीं करना चाहिए कि समान संहिता वह विचार है जिस पर अमल करने का समय आ गया है। बेहतर होगा कि जल्द ही इसका कोई प्रारूप देश के सामने रखा जाए, ताकि इस संहिता को लेकर होने वाले दुष्प्रचार को थामा जा सके और देश सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिचित हो सके।
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