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क्या भारत के भाषा-विवाद के केंद्र में अंग्रेजी के वर्चस्व का प्रश्न है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हिंदी से जुड़ा शिगूफा फिर छेड़ा गया है। अगर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हिंदी की जगह किसी और भारतीय भाषा का नाम लिया होता तो क्या होता? यानी, अगर उन्होंने यह कहा होता कि लोगों को सम्पर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी की जगह तमिल या बांगला या कोई और भाषा बरतनी चाहिए तो उन लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती जो इस समय हिंदी के बजाय एक अखिल भारतीय संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता पर जोर दे रहे हैं?

क्या उस सूरत में इसी तरह की भाषाई बहस चल रही होती? यह सवाल अजीब लग सकता है, लेकिन पूछना जरूरी है। पूरी संभावना इस बात की है कि यूरोपीय तर्ज पर हिंदी को ‘राष्ट्र-भाषा’ मानने वाले ऐसे बयान का प्रतिवाद ऊँंचे स्वर में करते नजर आते (संविधान के तहत हिंदी भारत की राष्ट्र-भाषा नहीं है। वह सरकारी कामकाज की भाषा जरूर है)। ऐसे हिंदी-भक्तों को उनके हाल पर छोड़कर यहां सोचने की बात यह है कि अंग्रेजी को सम्पर्क भाषा के रूप में पेश करने वालों की दलील उस समय क्या होती?

क्या उन्होंने तमिल या बांग्ला के लिए जगह खाली कर दी होती? नहीं। किसी कीमत पर नहीं। अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी को पेश किया जाए, या किसी भी अन्य भाषा को, अंग्रेजी के समर्थक अपनी वर्चस्वी हैसियत त्यागने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे। अमित शाह ने यह बात भी साफ तौर पर कही थी कि हिंदी को अंग्रेजी की जगह लेना चाहिए, न कि स्थानीय और क्षेत्रीय भाषाओं की। उनकी बात का सीधा मतलब था कि अंग्रेजी के बजाय हिंदी को सम्पर्क भाषा की तरफ ले जाएं। लेकिन ‘हिंदी थोपने’ की कोशिश का आरोप हवा में उछाल दिया गया।

राजनीति की मामूली जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि सारे भारत पर एक भाषा न तो थोपी जा सकती है, और न ही उसे थोपने की कोशिश हो रही है। संघ परिवार इतना नादान नहीं है कि वह ऐसा आत्मघाती कदम उठा कर अपना बना-बनाया खेल बिगाड़ लेगा। अंग्रेजी का वर्चस्व दो तरह के लोगों के लिए मुफीद है। इनमें पहला समुदाय तो वह है जो आजादी के बाद से ही ‘शासक-अभिजन’ की भूमिका में है।

यह समुदाय पश्चिमीकृत अंग्रेजीपरस्त अभिजनों, बड़े नौकरशाहों, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था से सर्वाधिक लाभ खींचने वाले मुट्ठीभर लोगों और भाषा-समस्या के तथाकथित ‘विद्वानों’ से मिल कर बना है। दूसरा समुदाय कुछ गैर-हिंदीभाषी प्रांतों के उन लोगों का है जो अंग्रेजी के जरिए भारतीय सिविल सेवा में अपना प्रतिशत बनाए रखना चाहते हैं। इन्हें लगता है कि अगर सिविल सेवा के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म हो गई तो हिंदी वाले आगे निकल जाएंगे। इन प्रांतों में तमिलनाडु-बंगाल के लोग प्रमुखता से शामिल हैं।

यह एक खास तरह की राजनीति है जिसमें ऐसे लोग कभी यह मांग नहीं करते कि यूपीएससी की परीक्षा उन्हें तमिल और बंगाली में देने की न केवल इजाजत मिले, बल्कि अंग्रेजी का पर्चा पूरी तरह से ऐच्छिक हो- अनिवार्य नहीं। इस प्रकार ये लोग न केवल पहले वाले समुदाय में शामिल अभिजनों की टोली के सदस्य बनना चाहते हैं, बल्कि इन्हें अपनी भाषा की प्रगति और वैभव में भी कोई खास रुचि नहीं है। सम्पर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी की जगह किसी अन्य भारतीय भाषा के बजाय हिंदी का नाम प्रस्तावित करने का कारण मुख्य तौर पर संरचनागत है।

हिंदी के अनूठे अध्येता रामविलास शर्मा ने इसे सदियों तक चली एक सामाजिक व्यापारिक, जनसंख्यामूलक और सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में विस्तार से व्याख्यायित किया है। मुगल शासन के तहत आगरा जैसे व्यापार के बड़े-बड़े केंद्रों का निर्माण, उन्नीसवीं सदी से ही यहां के लोगों का सारे भारत में फैल जाना, और अंग्रेज व्यापारियों द्वारा भी अपनी सुविधा के लिए हिंदी ही सीखना इस प्रक्रिया की चालक-शक्ति था। बंबइया हिंदी, कलकतिया हिंदी, मद्रासी हिंदी और हैदराबादी हिंदी की मौजूदगी इसी प्रक्रिया की देन है। ऐसी संरचनागत स्थिति किसी और भारतीय भाषा की नहीं है। इसीलिए अंग्रेजी को केवल हिंदी ही प्रतिस्थापित कर सकती है।

यह मसला हिंदी बनाम अन्य भारतीय भाषाओं का नहीं है, बल्कि अंग्रेजी बनाम सभी भारतीय भाषाओं का है। असलियत यह है कि भारत के भाषा-विवाद के केंद्र में अंग्रेजी के वर्चस्व का प्रश्न है। इसे हल किए बिना भाषा-समस्या का निराकरण नहीं हो सकता।

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