क्या अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है उद्धव ठाकरे सरकार?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख का इस्तीफा काफी पहले ही हो जाना चाहिए था। लेकिन हमारे नेताओं की खाल इतनी मोटी हो चुकी है कि जब तक उन पर अदालतों का डंडा न पड़े, वे टस से मस होते ही नहीं। देशमुख ने अपने पुलिसकर्मी सचिव वाजे से हर माह 100 करोड़ रु. उगाह के देने को कहा था, इस बात के खुलते ही एक से एक रहस्य खुलकर सामने आने लगे थे। उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर के सामने विस्फोटकों से भरी कार रखने, उस कार के मालिक मनसुख हीरेन की हत्या और इस सब में वाजे की साजिश के स्पष्ट संकेत मिलने लगे। जिस मामले की जांच के लिए वाजे जिम्मेदार था, उसी मामले में ही उसका गिरफ्तार किया जाना अपने आप में बड़ा अजूबा था।
एक मामूली पुलिस इंस्पेक्टर, जो किसी अपराध के कारण, 16 साल मुअत्तिल रहा, उसका फिर नौकरी पर जम जाना और सीधे गृहमंत्री से संवाद करना आखिर किस बात का सूचक है ? यह रहस्य तब खुला, जब मुंबई के पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह का अचानक तबादला कर दिया गया। परमबीर को गुस्सा आया और उसने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को लिखे अपने पत्र में गृहमंत्री, वाजे और पुलिस विभाग की सारी पोल खोलकर रख दी। उसी आधार पर महाराष्ट्र के उच्च न्यायालय ने गहरा दुख व्यक्त किया और प्रांतीय सरकार द्वारा बिठाई गई जांच की बजाय सीबीआई की जांच की मांग की, वह भी 15 दिन के अंदर-अंदर !
पिछले 4-5 सप्ताहों में ठाकरे-सरकार ने अपनी इज्जत पैंदे में बिठा ली है। जाहिर है कि 100 करोड़ रु. महिने का एक मंत्री क्या करेगा ? या तो वह पैसा वह मुख्यमंत्री या अपने पार्टी-अध्यक्ष को थमाएगा! इसीलिए स्वयं मुख्यमंत्री और उनके प्रवक्ता देशमुख की ढाल बने हुए थे। परमबीर के आरोपों को पहले तो यह कहकर उन्होंने रद्द किया कि वे प्रामाणिक नहीं हैं, क्योंकि उसमें ई-मेल पता कोई दूसरा है और परमबीर के हस्ताक्षर भी नहीं हैं। शरद पवार अपनी पार्टी, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के गृहमंत्री अनिल देशमुख को बचाने की कोशिश करते रहे। इस महाअघाड़ी-गठबंधन की तीसरी पार्टी कांग्रेस की भी हवा निकली पड़ी थी। उसने भी देशमुख के इस्तीफे की मांग नहीं की। इन तीनों पार्टियों का इस षड़यंत्र और भ्रष्टाचार के प्रति जो रवैया हमने देखा, क्या वह सभी पार्टियां का नहीं है ?
कोई भी पार्टी या नेता दूध का धुला हुआ नहीं है। रफाल-सौदे में दी गई रिश्वत की खबर फिर फूट पड़ी है। हमारी राजनीति का चरित्र इतना चौपट हो चुका है कि वह काजल की कोठरी बन चुकी है। अगर स्वयं गांधीजी को भी इसमें प्रवेश करना पड़ता तो पता नहीं कि उनके-जैसा महापुरुष भी बिना कालिख पुतवाए, इस कोठरी से बाहर निकल पाता या नहीं ? वह दिन कब आएगा, जब साफ-सुथरे लोग राजनीति में जाना चाहेंगे और उसमें जाकर भी वे साफ-सुथरे बने रह सकेंगे ? मिर्जा गालिब ने किसी दूसरे संदर्भ में ठीक ही लिखा था-
‘‘जिस को हो दीन ओ दिल अजीज़, उसकी गली में जाए क्यूँ?’’
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