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क्या बिहार में जाति-जनगणना मण्डल-2 की आहट है? - श्रीनारद मीडिया

क्या बिहार में जाति-जनगणना मण्डल-2 की आहट है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हाल ही में बिहार राज्य सरकार ने जाति-सर्वेक्षण, 2023 के निष्कर्ष जारी किये, जिसमें पता चला कि अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) और अति पिछड़ा वर्ग (EBC) संयुक्त रूप से राज्य की कुल आबादी का 63% हैं।

  • माना जाता है कि ये निष्कर्षों राज्य और राष्ट्रीय चुनावों के साथ ही विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिये इच्छित लाभार्थियों की पहचान करने में व्यापक रूप से सहायक साबित होंगे।

बिहार के जाति-सर्वेक्षण के प्रमुख निष्कर्ष:

विभिन्न जातियाँ और समुदाय (बिहार)प्रतिशत जनसंख्या (%)
अत्यंत पिछड़ा वर्ग (EBCs)36.01 %
अन्य पिछड़ा वर्ग (OBCs)27.12 %
अनुसूचित जाति19.65 %
अनुसूचित जनजाति1.68%
बौद्ध, ईसाई, सिख और जैन< 1 %
कुल जनसंख्या (बिहार)13.07 करोड़

जाति सर्वेक्षण में अपनाई गई प्रक्रिया:

यह सर्वेक्षण दो चरणों में किया गया, जिनमें से प्रत्येक के अपने मानदंड और उद्देश्य थे।

  • पहला चरण:
    • इस चरण के दौरान, बिहार के सभी घरों की संख्या दर्ज़ की गई।
    • प्रगणकों को 17 प्रश्नों का एक सेट दिया गया था जिनका उत्तर प्रत्यर्थी को अनिवार्य रूप से देना था।
  • दूसरा चरण:
    • इस चरण के दौरान घरों में रहने वाले व्यक्तियों, उनकी जातियों, उप-जातियों और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के संबंध में डेटा एकत्र किया गया।
    • हालाँकि परिवार के मुखिया का आधार संख्या, जाति प्रमाण पत्र संख्या और राशन कार्ड संख्या अंकित करना वैकल्पिक था।

बिहार जाति सर्वेक्षण के निष्कर्षों का महत्त्व:

  • OBC कोटा बढ़ाना:
    • इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष से OBC कोटा को 27% से अधिक बढ़ाने और EBC कोटे के अंतर्गत कोटे की मांग में बढ़त होने की संभावना है।
      • वर्ष 2017 से OBC के उप-वर्गीकरण पर विचार कर रहे जस्टिस रोहिणी आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है और इसकी सिफारिशें अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई हैं।
  • आरक्षण सीमा का पुनर्निर्धारण:
    • यह सर्वेक्षण डेटा इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले में अपने ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई आरक्षण पर 50% की सीमा पर बहस को फिर से शुरू कर देगा।
      • OBC की जनसंख्या के आधार पर, जाति समूहों के विभिन्न वर्ग जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण कोटा बढ़ाने की मांग कर सकते है।
  • संवैधानिक दायित्व की पूर्ति:
    • जाति सर्वेक्षण संविधान के भाग IV में उल्लिखित राज्य नीतियों के निदेशक सिद्धांतों (DPSP) में बताए गए उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता करेगा।
      • इससे संविधान निर्माताओं द्वारा उल्लिखित सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में प्रमुख रूप से मदद मिलेगी।
  • सर्वोदय की प्राप्ति:
    • लक्षित उपायों को विकसित करने के लिये जाति जनगणना का उचित उपयोग किया जा सकता है ताकि राज्य भर में व्याप्त असमानता को कम किया जा सके और भविष्य में समानता एवं सामाजिक न्याय को बढ़ावा दिया जा सके।

जाति जनगणना से जुड़े मुद्दे:

  • जाति जनगणना के परिणाम:
    • जाति में एक भावनात्मक तत्त्व होता है और इस प्रकार जाति जनगणना के राजनीतिक एवं सामाजिक प्रभाव होते हैं।
    • ऐसी चिंताएँ रही हैं कि जाति की गिनती से अस्मिता को मज़बूत बनाने में सहायता मिल सकती है।
    • इन दुष्परिणामों के कारण, SECC (Socio-Economic and Caste Census) के लगभग एक दशक बाद, जाति जनगणना से संबंधित डेटा की एक बड़ी मात्रा अप्रकाशित है या केवल अंशों में जारी की गई है।
  • जाति की संदर्भ-विशिष्टता:
    • भारत में जाति कभी भी वर्ग या अभाव का प्रतीक नहीं रही है; यह एक विशिष्ट प्रकार का अंतर्निहित भेदभाव है जो अक्सर वर्ग से परे होता है।
    • उदाहरण:
      • दलित उपनाम वाले लोगों को रोज़गार के लिये साक्षात्कार के लिये बुलाए जाने की संभावनाएँ कम होती हैं, भले ही उनकी योग्यता उच्च जाति के उम्मीदवारों से बेहतर हो।
      • मकान मालिकों द्वारा उन्हें किरायेदार के रूप में स्वीकार किये जाने की संभावनाएँ भी कम होती हैं।
      • आज भी देश भर में एक सुशिक्षित, संपन्न परिवार के दलित लड़के से विवाह उच्च जाति की महिलाओं के परिवारों में हिंसक प्रतिशोध की भावना को भड़का सकता है।

भारत में अंतिम जाति-जनगणना का आयोजन:

  • वर्ष 1931 की जाति-जनगणना:
    • अंतिम जाति-जनगणना वर्ष 1931 में आयोजित की गई थी और इससे संबंधित डेटा तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया गया था।
    • यह जाति-जनगणना मंडल आयोग की रिपोर्ट और उसके बाद सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिये आरक्षण नीतियों के कार्यान्वयन का आधार बनी।
  • वर्ष 2011 की जनगणना:
    • वर्ष 2011 की जनगणना आज़ादी के बाद पहली ऐसी जनगणना है जिसमे जाति-आधारित डेटा एकत्र किये गए।
    • हालाँकि राजनीतिक पक्षपात और अवसरवादिता के भय से जाति से संबंधित आँकड़े सार्वजनिक नहीं किये गये।

जनगणना:

  • जनगणना की उत्पत्ति:
    • भारत में जनगणना की शुरुआत वर्ष 1881 की औपनिवेशिक काल के समय हुई थी।
    • जनगणना कार्य का विकास होता गया जिसका प्रयोग सरकार, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और अन्य व्यक्तियों द्वारा भारतीयों की जनसंख्या पर डेटा एकत्र करने, संसाधनों तक पहुँच बनाने, सामाजिक परिवर्तन की रूपरेखा बनाने, परिसीमन अभ्यास आदि के लिये किया जाता है।
  • सामाजिक-आर्थिक और जाति-जनगणना (Socio-Economic and Caste Census- SECC) के रूप में पहली जाति जनगणना:
    • इसे SECC पहली बार वर्ष 1931 में आयोजित किया गया था।
    • SECC का उद्देश्य ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में प्रत्येक भारतीय परिवार से आँकड़े एकत्रित करना तथा उनसे जुड़े निम्नलिखित तथ्यों के बारे में पूछताछ करना है:
      • आर्थिक स्थिति, केंद्र और राज्य अधिकारियों को अभाव, क्रमपरिवर्तन एवं संयोजन के विभिन्न संकेतक विकसित करने की अनुमति देती है, जिसका उपयोग प्रत्येक प्राधिकरण एक गरीब या वंचित व्यक्ति को नामित करने के लिये किया जा सके।
      • इसका मतलब प्रत्येक व्यक्ति से उनकी विशिष्ट जाति का नाम पूछना भी है ताकि सरकार को यह पुनर्मूल्यांकन करने में मदद मिल सके कि कौन-सी जाति समूह आर्थिक रूप से पिछड़े थे और कौन-से बेहतर थी।
  • जनगणना और SECC के बीच अंतर:
    • जनगणना भारतीय जनसंख्या का वर्णन करता है, जबकि SECC राज्य सरकार द्वारा समर्थित लाभार्थियों की पहचान करने का एक उपकरण है।
    • चूँकि जनगणना जनगणना अधिनियम,1948 के अंतर्गत आती है, इसलिये सभी डेटा को गोपनीय माना जाता है, जबकि SECC वेबसाइट के अनुसार, “SECC में दी गई सभी व्यक्तिगत जानकारियाँ सरकारी विभागों द्वारा परिवारों को लाभ प्रदान करने और/या लाभों से प्रतिबंधित करने हेतु उपयोग के लिये उपलब्ध होती।”
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