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क्या निर्वाचन आयोग के स्वतंत्रता मुद्दे पर संसद में बहस एवं चर्चा की आवश्यकता है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India- ECI) एक संवैधानिक निकाय है जिसकी परिकल्पना भारतीय संविधान में निहित समता, न्याय, निष्पक्षता, स्वतंत्रता के मूल्यों को बनाए रखने और चुनावी शासन के अधीक्षण, निदेशन एवं नियंत्रण के संबंध में विधि के शासन का पालन कराने वाले निकाय के रूप में की गई है।

इसकी स्थापना विश्वसनीयता, स्वतंत्रता, निष्पक्षता, पारदर्शिता, अखंडता, जवाबदेहिता, स्वायत्तता और पेशेवर दक्षता के उच्चतम मानकों का पालन करते हुए चुनाव आयोजित कराने के लिये की गई थी।

हालाँकि, पिछले कुछ वर्षों में ECI को चुनावी शासन में इसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता और इसके सदस्यों की नियुक्ति प्रक्रिया के संबंध में कई आरोपों का सामना करना पड़ा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि ECI के बेहतर कार्यकरण के लिये इसके सदस्यों की नियुक्ति में एक अधिक पारदर्शी एवं स्वतंत्र तरीका अपनाए जाने की आवश्यकता है जो कार्यपालिका की किसी प्रभावी भागीदारीपूर्ण भूमिका से भी मुक्त हो।

भारत निर्वाचन आयोग के सदस्य

  • संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान का भाग XV निर्वाचन से संबंधित है और भारत निर्वाचन आयोग की स्थापना का प्रावधान करता है।
    • संविधान में निहित अनुच्छेद 324-329 में आयोग और इसके सदस्यों की शक्तियों, कार्य, कार्यकाल, पात्रता आदि से संबंधित प्रावधान मौजूद हैं।
  • सांविधिक प्रावधान: मूल रूप से आयोग में केवल एक निर्वाचन आयुक्त होता था, लेकिन निर्वाचन आयुक्त संशोधन अधिनियम 1989 के अधिनियमन के बाद इसे एक बहु-सदस्यीय निकाय बना दिया गया है।
    • आयोग में एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त (Chief Election Commissioner) और दो निर्वाचन आयुक्त (Election Commissioners) होते हैं।
  • संसद की भूमिका: ECI के सदस्यों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री द्वारा की गई अनुशंसाओं के आधार पर की जाती है।
    • हालाँकि, अनुच्छेद 324 (2) में प्रावधान किया गया है कि संसद निर्वाचन आयुक्तों (EC) की नियुक्ति के संबंध में अधिनियम के निर्माण की शक्ति रखती है।
  • निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में सिफारिशें: वर्ष 1975 में, न्यायमूर्ति तारकुंडे समिति ने सिफारिश की थी कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति एक समिति की सलाह पर की जाए जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों।
    • वर्ष 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति और वर्ष 2015 में विधि आयोग ने भी यही सिफारिश की।
    • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARCs) की चौथी रिपोर्ट (2007) ने इसके अतिरिक्त यह सिफारिश की कि विधि मंत्री और राज्य सभा के उपसभापति को भी ऐसे नियुक्ति करने वाले ऐसे कॉलेजियम में शामिल किया जाए।

संबद्ध समस्याएँ

  • विधि अधिनियमन में संसद की विफलता: निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में विधि निर्माण के लिये संसद उत्तरदायी है।
    • लेकिन वर्ष 1989 में एक विधि के निर्माण (जिसके माध्यम से निर्वाचन आयुक्तों की संख्या एक से बढ़ाकर तीन कर दी गई) के अलावा संसद ने अब तक नियुक्ति प्रक्रिया में कोई परिवर्तन नहीं किया है।
  • नियुक्ति के लिये कार्यपालिका पर अत्यधिक निर्भरता: निर्वाचन आयोग सत्तारूढ़ दल और अन्य दलों के बीच एक अर्द्ध-न्यायिक भूमिका का निर्वहन भी करता है। इस परिदृश्य में निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति में कार्यपालिका को एकमात्र भागीदार नहीं होना चाहिये।
    • केंद्र द्वारा निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति किये जाने का वर्तमान अभ्यास अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 324(2) और लोकतंत्र का संविधान की मूल संरचना के रूप में उल्लंघन करता है।

आगे की राह

  • बहु-संस्थागत समिति: चूँकि भारत निर्वाचन आयोग भारतीय लोकतंत्र की इमारत को संभाले रखने वाला मेहराब का पत्थर है, निर्वाचन आयुक्तों के निष्पक्ष एवं पारदर्शी चयन के लिये एक बहु-संस्थागत, द्विदलीय समिति की स्थापना से ECI की कथित और वास्तविक स्वतंत्रता की अभिवृद्धि की जा सकती है।
    • निर्वाचन आयोग के कार्यों की अर्द्ध-न्यायिक प्रकृति इसे विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण बनाती है कि नियुक्ति प्रक्रिया कठोर लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप हो
    • मुख्य सूचना आयुक्त, लोकपाल, सतर्कता आयुक्त और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के निदेशक जैसे प्राधिकारों की नियुक्ति के संबंध में ऐसी प्रक्रिया पहले से मौजूद भी है।
  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग रिपोर्ट की सिफारिशें: इसने सिफारिश की है कि भारत निर्वाचन आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिये प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक कॉलेजियम होना चाहिये जो राष्ट्रपति को अनुशंसाएँ भेजता हो।
    • अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ (2015) मामले ने भी निर्वाचन आयोग के लिये एक कॉलेजियम प्रणाली की माँग को बल दिया था।
    • मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर और न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ की एक पीठ ने भी इस बात का संज्ञान लिया था कि निर्वाचन आयुक्त देश भर में चुनावों का अधीक्षण एवं आयोजन करते हैं और उनका चयन अधिकतम पारदर्शी तरीके से किया जाना चाहिये।
  • संसद की भूमिका: संसद आगे बढ़ते हुए और निर्वाचन आयुक्तों के चयन के लिये एक बहु-संस्थागत, द्विदलीय कॉलेजियम की स्थापना करने वाली विधि का निर्माण कर न्यायिक गुण-दोष व्याख्या (Judicial Strictures) की स्थिति से बचने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
    • ECI की स्वतंत्रता के मुद्दे पर संसद में बहस एवं चर्चा की आवश्यकता है और इसके उपरांत आवश्यक कानून पारित किये जाने चाहिये।
    • शक्तियों का पृथक्करण दुनिया भर की सरकारों के लिये स्वर्ण मानक है और भारत को भी इस मानक पर पीछे नहीं रहना चाहिये।

ECI के संवैधानिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिये एक निष्पक्ष एवं पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया की आवश्यकता है जो निंदा से परे हो और यही भारतीय राजनीति के इस महत्त्वपूर्ण स्तंभ में लोगों के भरोसे की पुष्टि करेगी। निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया पर मौजूदा आवरण पर्याप्त रूप से उस ढाँचे को ही कमज़ोर करता है जिस पर भारत की लोकतांत्रिक आकांक्षाएँ टिकी हुई हैं।

 

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