इसरो ने अपने उपग्रहों को लॉन्च करने हेतु पूरी तरह से आत्मनिर्भर बना दिया है।

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (PSLV) रॉकेट का उपयोग करके दो अन्य छोटे उपग्रहों के साथ एक पृथ्वी अवलोकन उपग्रह (EOS-04) को अंतरिक्ष में लॉन्च किया। यह पीएसएलवी (Polar Satellite Launch Vehicle) की 54वीं उड़ान थी।

प्रक्षेपण यान तथा उपग्रह:

  • प्रक्षेपण यान/राॅकेट में शक्तिशाली प्रणोदन प्रणाली होती है जो भारी मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करती है और उपग्रहों जैसी भारी वस्तुओं को अंतरिक्ष में ले जाने के साथ पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के विपरीत संतुलन स्थापित करती है।
  • उपग्रह को वैज्ञानिक कार्य हेतु एक या एक से अधिक उपकरण के साथ अंतरिक्ष में भेजा जाता है। उनका परिचालनकाल कभी-कभी दशकों तक बढ़ जाता है।
    • लेकिन रॉकेट या प्रक्षेपण यान प्रक्षेपण के बाद उपयोगी नहीं रहते हैं। इनका एकमात्र कार्य उपग्रहों को उनकी कक्षाओं में ले जाना है।
  • रॉकेट में कई वियोज्य ऊर्जा प्रदान करने वाले भाग होते हैं।
    • इनका उपयोग रॉकेट के संचालन के लिये विभिन्न प्रकार के ईंधन जलाने में किया जाता हैं। एक बार जब ईंधन समाप्त हो जाता है, तो वे रॉकेट से अलग होकर गिर जाते हैं, अक्सर वायु-घर्षण के कारण वातावरण में ही जलकर नष्ट हो जाते हैं।
    • मूल रॉकेट का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही उपग्रह के इच्छित गंतव्य तक जाता है। एक बार जब उपग्रह को अंत में बाहर निकाल दिया जाता है, तो रॉकेट का यह अंतिम भाग या तो अंतरिक्ष के मलबे का हिस्सा बन जाता है या फिर वायुमंडल में गिरने के बाद जलकर नष्ट हो जाता है।

प्रक्षेपण यान के प्रकार:

  • पृथ्वी की निम्न कक्षाओं के लिये:
    • कई उपग्रहों को केवल पृथ्वी की निम्न कक्षाओं में स्थापित करने की आवश्यकता होती है, जिनकी रेंज पृथ्वी की सतह से लगभग 180 किमी. से शुरू होकर 2,000 किमी. तक होती है।
      • अधिकांश पृथ्वी-अवलोकन उपग्रह, संचार उपग्रह और यहाँ तक ​​कि अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (अंतरिक्ष में एक पूर्ण प्रयोगशाला जो अंतरिक्ष यात्रियों की मेज़बानी करती है, तथा अंतरिक्ष में स्थायी रूप से उपस्थित होता है)।
    • उपग्रहों को पृथ्वी की निम्न कक्षाओं में ले जाने के लिये कम मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है, और तदनुसार छोटे, कम शक्तिशाली रॉकेट का उपयोग इस उद्देश्य के लिये किया जाता है।
  • उच्च कक्षाओं के लिये:
    • ऐसे और भी उपग्रह हैं जिन्हें अंतरिक्ष में ज़्यादा गहराई तक जाने की ज़रूरत होती है।
    • उदाहरण के लिये, भूस्थैतिक उपग्रहों को उन कक्षाओं में भेजना पड़ता है जो पृथ्वी की सतह से लगभग 36,000 किमी. दूर हैं।
    • ग्रहों के अन्वेषण मिशनों को भी अपने रॉकेटों की आवश्यकता होती है ताकि वे उन्हें अंतरिक्ष में बहुत गहराई तक छोड़ सकें।
    • ऐसे अंतरिक्ष अभियानों के लिये अधिक शक्तिशाली राकेटों का प्रयोग किया जाता है।
      • सामान्य तौर पर उपग्रह के वज़न को लेकर और किस दूरी तक इसे ले जाने की आवश्यकता है, के संबंध में एक दुविधा बनी रहती है। एक ही रॉकेट भारी उपग्रह की तुलना में छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष में अधिक गहराई तक ले जा सकता है।

इसरो द्वारा उपयोग किये जाने वाले प्रक्षेपण यान:

  • सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (SLV):
    • इसरो द्वारा विकसित पहले रॉकेट को केवल SLV या सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल कहा जाता था।
    • इसके बाद संवर्द्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान (ASLV) आया।
  • संवर्द्धित सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (ASLV):
    • SLV और ASLV दोनों ही छोटे उपग्रहों, जिनका वज़न 150 किलोग्राम तक होता है, को पृथ्वी की निचली कक्षाओं में ले जा सकते हैं।
    • ASLV का परिचालन पीएसएलवी आने से पहले 1990 के दशक की शुरुआत तक किया जाता था।
  • ध्रुवीय सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (PSLV):
    • PSLV का पहला सफल प्रक्षेपण अक्तूबर 1994 में किया गया था।
      • पीएसएलवी पहला लॉन्च वाहन है जो तरल चरण (Liquid Stages) से सुसज्जित है।
    •  PSLV इसरो द्वारा उपयोग किया जाने वाला अब तक का सबसे विश्वसनीय रॉकेट है, जिसकी 54 में से 52 उड़ानें सफल रही हैं।
      • PSLV का उपयोग भारत के दो सबसे महत्त्वपूर्ण मिशनों (वर्ष 2008 के चंद्रयान-I और वर्ष 2013 के मार्स ऑर्बिटर स्पेसक्राफ्ट) के लिये भी किया गया था।
      • इसरो वर्तमान में दो लॉन्च वाहनों – PSLV और GSLV (जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) का उपयोग करता है, इनमें भी कई प्रकार के संस्करण होते हैं।
  • जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (GSLV):
    • जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (GSLV) एक अधिक शक्तिशाली रॉकेट है, जो भारी उपग्रहों को अंतरिक्ष में अधिक ऊँचाई तक ले जाने में सक्षम है। जीएसएलवी रॉकेटों ने अब तक 18 मिशनों को अंजाम दिया है, जिनमें से चार विफल रहे हैं।
    • यह 10,000 किलोग्राम के उपग्रहों को पृथ्वी की निचली कक्षा तक ले जा सकता है।
    • स्वदेश में विकसित क्रायोजेनिक अपर स्टेज (CUS)- ‘GSLV Mk-II’ के तीसरे चरण का निर्माण करता है।
    • Mk-III संस्करणों ने भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो को अपने उपग्रहों को लॉन्च करने हेतु पूरी तरह से आत्मनिर्भर बना दिया है।
      • इससे पहले भारत अपने भारी उपग्रहों को अंतरिक्ष में ले जाने के लिये ‘यूरोपीय एरियन प्रक्षेपण यान’ पर निर्भर था।
  • स्माॅल सेटेलाइट लॉन्च व्हीकल (SSLV):
    • SSLV का लक्ष्य छोटे एवं सूक्ष्म उपग्रहों को लॉन्च करना है, गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर इस प्रकार के उपग्रहों के प्रक्षेपण की मांग तेज़ी से बढ़ रही है।
    • एसएसएलवी 500 किलोग्राम तक के उपग्रहों के लिये लागत प्रभावी प्रक्षेपण सेवाएँ प्रदान करने में सक्षम है।
    • जल्द ही एक स्वदेशी पृथ्वी अवलोकन उपग्रह EOS-03 को इसके द्वारा अंतरिक्ष में ले जाए जाने की उम्मीद है।
  • पुन: प्रयोज्य रॉकेट:
    • भविष्य में निर्मित रॉकेट प्रायः पुन: प्रयोज्य होंगे। इस प्रकार के मिशन के दौरान रॉकेट का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही नष्ट होगा।
    • वहीं इसका अधिकांश भाग पृथ्वी के वायुमंडल में फिर से प्रवेश करेगा और एक हवाई जहाज़ की तरह सतह पर लैंड करेगा तथा भविष्य के मिशनों में इसका उपयोग किया जा सकेगा।
    • पुन: प्रयोज्य रॉकेट निर्माण की लागत एवं ऊर्जा में कटौती करेंगे और अंतरिक्ष मलबे को भी कम करने में मददगार होंगे, जो कि मौजूदा समय में एक गंभीर समस्या बनी हुई है।
    • यद्यपि पूरी तरह से पुन: प्रयोज्य रॉकेट अभी भी विकसित नहीं किये गए हैं, लेकिन आंशिक रूप से पुन: प्रयोज्य लॉन्च वाहन पहले से ही उपयोग में हैं।
    • इसरो ने भी एक आंशिक पुन: प्रयोज्य रॉकेट विकसित किया है, जिसे RLV-TD (पुन: प्रयोज्य लॉन्च व्हीकल टेक्नोलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर) कहा जाता है, इसने वर्ष 2016 में एक सफल परीक्षण उड़ान भरी थी।
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