बेहतर है समय रहते संभल जाएं,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
लाकडाउन क्या हुआ कि मोबाइल और लैपटाप के आगे जिंदगी सिमट सी गई। अब न्यू नार्मल में लगभग हर सुविधा अनलाक हो चली है मगर सोचने वाली बात है कि क्या हमने अपनी जिंदगी की चाबी इंटरनेट मीडिया को सौंप दी है? क्या हम इसके गुलाम हो चुके हैं? क्या हम इंटरनेट मीडिया और इसकी कंपनियों के खेल को समझ पा रहे हैं? स्थितियां चेतावनी दे रही हैं, बेहतर है कि समय रहते हम इनके खेल को समझ जाएं। इंटरनेट मीडिया की लत से बचें और वास्तविक जीवन के संबंधों के महत्व को जान जाएं।
दूरियां पैदा कर रही खामोशी
बिना पलक झपकाए घंटों फोन पर मौजूदगी से बनी खामोशी कहीं दूरियां तो पैदा नहीं कर रही? यह सोचने का विषय है। पति-पत्नी के बीच फेसबुक, ट्विटर पर छिड़ी जंग और किसी मुद्दे को लेकर सोच में असमानता उनके वास्तविक जीवन में झगड़े का रूप ले लेती है। किसने किसके स्टेटस को लाइक किया या नहीं, बहस का मुद्दा बन जाता है। निजी संबंधों की इस दुर्दशा के बारे में कोई सोच क्यों नहीं पा रहा? कारपोरेट ट्रेनर और मोटिवेशनल स्पीकर फैजान शेख कहते हैं, ‘जो समय आपके परिवार के लिए है अगर आप उसे इंटरनेट मीडिया को दे रहे हैं, तो संबंधों में खामोशी आना तय है।
ऐसे में मुश्किलें तो आएंगी ही। जब आप साथ बैठकर बातें करते हैं तो मन की गांठें खुलती हैं और आप एक-दूसरे को जानने-समझने भी लगते हैं। जब आप अपनी बातें साझा ही नहीं करेंगे तो आपको समझेगा कौन? पहले हम दिनभर की हर गतिविधि घरवालों के साथ बांटते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं करते। यही खामोशी दूरियां पैदा कर रही है। यह वक्त जिनका है वह उन्हेंं देना ही पड़ेगा। अगर नहीं करेंगे तो आज नहीं तो आने वाले समय में परिणाम अच्छा नहीं होगा, क्योंकि तब तक आपसी बांडिंग खत्म हो चुकी होगी।
हम सब लैब के चूहे
इंटरनेट मीडिया कंपनियों के लिए हम सब एक उत्पाद या मार्केटप्लेस भर हैं। यहां हमारे मनोविज्ञान को हमारे ही खिलाफ प्रयोग किया जाता है। नेटफ्लिक्स पर मौजूद डाक्यूमेंट्री ‘द सोशल डिलेमाÓ इंटरनेट कंपनियों के भयावह खेल को उजागर करती है। इसमें फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, गूगल, पिंटरेस्ट, स्नैपचैट समेत कई कंपनियों में बड़े पदों पर रह चुके टेक्नोलाजी विशेषज्ञों ने बताने की कोशिश की है कि किस तरह दुनिया इंटरनेट और इंटरनेट मीडिया की गुलाम हो गई है।
इसमें कहा गया है कि हम सब लैब के चूहे हैं, जिन पर प्रयोग होते हैं। इस डाक्यूमेंट्री को देखकर आप हैरान हो जाएंगे कि कंपनियों की मशीनें आप पर हर पल नजर रखती हैं और इससे तैयार डाटा की पूरी स्टडी के साथ एक माडल बनाती हैं। डाक्यूमेंट्री के मुताबिक सबसे खतरनाक बात यह है कि ये मशीनें अब निर्माता के नियंत्रण से बाहर हो चुकी हैं, जो अपनी अलग दुनिया बना रही हैं।
अवसाद का बड़ा कारण
इस डाक्यूमेंट्री में एक दृश्य है जहां एक परिवार डिनर कर रहा है और मां परिवार के सभी सदस्यों का मोबाइल फोन एक बाक्स में रखकर उसे एक घंटे के लिए लाक कर देती है। कुछ ही मिनट बीतते हैं कि फोन पर नोटिफिकेशन आने लगते हैं और बेटी मां से फोन मांगती है। डिब्बा लाक होने पर बेटी उसे हथौड़े से तोड़ देती है और खाना छोड़कर अपने बेडरूम में चली जाती है। उसका भाई भी अपना फोन लेकर अपने कमरे में चला जाता है। वहीं टीनएजर बेटी सेल्फी अपलोड करती है और मनमाफिक कमेंट न आने पर डिप्रेशन महसूस करती है। यह नजारा आजकल लगभग हर परिवार में है।
फेसबुक के लाइक बटन का आइडिया बनाने वाले बताते हैं कि यह फंक्शन यह सोचकर बनाया गया था कि लोगों के बीच सकारात्मकता फैलेगी, लेकिन किसे पता था कि अपनी किसी फोटोग्राफ पर कम लाइक मिलने जैसी छोटी सी बात पर भी लोग अवसाद में चले जाएंगे। इसी तरह यह डाक्यूमेंट्री कहती है कि ट्विटर पर छह गुना तेजी से फेक न्यूज फैलती हैं। इसीलिए जरूरी है कि हम नोटिफिकेशन पर फ्लैश होने वाली हर खबर पर यकीन न करते हुए अपनी बौद्धिक क्षमता का इस्तेमाल करें और वास्तविक जीवन को खुशहाल बनाएं।
रिवर्स हो गया है सब
अभिनेता यश सिन्हा बताते हैं, ‘एक समय था कि लोग डायरी लिखते थे और अगर आपकी डायरी कोई पढ़ ले तो आप झगड़ा कर लेते थे, लेकिन अब अगर आप पोस्ट डालें और कोई लाइक न करे तो आपको बुरा लग जाता है। रिवर्स हो गया है सब। मैं इंटरनेट मीडिया ज्यादा प्रयोग नहीं करता हूं। मैं जब ‘नच बलिएÓ में गया था तब ही इंटरनेट मीडिया पर आया। मेरे पोस्ट बहुत कम होते हैं। मैं अपनी हर चीज सबके सामने रख देने में विश्वास नहीं रखता। मेरा काम है अपने प्रदर्शन से लोगों को खुशी देना, न कि अपने निजी विचार व्यक्त करना।
कोई जरूरी बात हो तो सही प्लेटफार्म का चुनाव होना चाहिए। मेरे ख्याल से इंटरनेट मीडिया पर कुछ प्रोडक्टिव या रचनात्मक शेयर किया जाना चाहिए अन्यथा न्यूज चैनल तो आपको खबरें दे ही रहे हैं। लोगों ने इंटरनेट मीडिया को अपने जीवन में पूरी तरह से शामिल कर लिया है। लोग यह दिखाना चाहते हैं कि मैं सही हूं और तुम गलत हो। इससे मानसिक तनाव हो जाता है और निजी संबंध भी प्रभावित होते हैं। जीवन में इतना कुछ करना है, अगर इंटरनेट मीडिया पर जिंदगी लगा दी तो बचेगा क्या!
फालोअर्स तय करते हैं जिंदगी
मनोचिकित्सक डा. अंजलि छाबरिया कहती हैं, ‘इंटरनेट मीडिया से युवा ज्यादा प्रभावित होते हैं। दिमाग जो देखेगा, सुनेगा उसी का प्रभाव आपके संबंधों पर पढ़ेगा। लोग पांच से छह घंटे तक इंटरनेट मीडिया का प्रयोग करते हैं। कोई किताब नहीं पढ़ते, व्यायाम नहीं करते, जबकि ये दो आदतें आपको शारीरिक और मानसिक रूप से बेहद फायदा पहुंचाती हैं। फालोअर्स की संख्या इंफ्लुएंसर्स तय करती हैं और यही लोग जिंदगी के हीरो बन जाते हैं। युवा तो उनकी तरह बनने की जुगत करने लगते हैं। जबकि देखा जाए तो इंटरनेट मीडिया पर लोग अपनी वास्तविक जिंदगी नहीं दिखाते हैं।
यहां वे अपने खुश चेहरे दिखाते हैं। आप किसी से मिले नहीं हैं, लेकिन इन वर्चुअल दोस्तों की बात आपको असर करती है और साथ में बैठे पार्टनर की बात आप सुनते नहीं हैं। पहले झगड़ा होता था तो मिलकर, आमने-सामने बैठकर बात करके समस्या सुलझा ली जाती थी, लेकिन अब बात ही नहीं होती तो समस्याएं कैसे खत्म होंगी? इंटरनेट मीडिया छोड़कर या इसका इस्तेमाल कम कर हमें आपसी बातचीत को बढ़ावा देना होगा।
भेड़चाल में खो गया इंसान
अभिनेत्री तान्या देसाई कहती हैं, ‘इंटरनेट मीडिया प्लेटफाम्र्स पर हर इंसान भेड़चाल चल रहा है। कोई कुछ करता है तो दूसरा भी वैसे ही करने लगता है। लोग परिवार के साथ बैठे होते हैं, लेकिन सब फोन में व्यस्त होते हैं। किसी ने कोई काम सोचा होता है और जब फोन हाथ में हो तो इंस्टाग्राम, फेसबुक देखने लग जाता है। कितना समय इसमें निकल जाता है पता ही नहीं चलता। मैं तो काम में व्यस्त रहती हूं इसलिए समय मिलने पर ही इंटरनेट मीडिया पर जाती हूं, लेकिन टीनएजर्स को तो इसने भ्रमित कर रखा है। आज माहौल वैसे ही तनावपूर्ण है और यहां तनाव और बढ़ जाता है। मैं तो अपनी ही कंपनी पसंद करती हूं, स्वजनों के साथ आमने-सामने बैठकर बातें करती हूं।
रिश्तों में आता अकेलापन
कार्नेगी मेलोन यूनिर्विसटी और यूनिर्विसटी आफ कानसास के शोधकर्ताओं का अध्ययन बताता है कि इंटरनेट मीडिया पर व्यक्तिगत जानकारी अधिक बार साझा करने से आपके पार्टनर के मन में धारणा बन सकती है कि आपकी लाइफ में उनका महत्व नहीं है। इसकी वजह से पार्टनर खुद को अकेला महसूस करने लगता है और यह एक बड़ा कारण है जिसके कारण दोनों के बीच दूरियां बढऩे लगती हैं।
आजमाकर तो देखिए
- अगर इंटरनेट मीडिया के कम इस्तेमाल की आदत डाल ली तो खुशी और प्रोडक्शन, दोनों बढ़ेंगे।
- सूचनाओं की बाढ़ से बाहर आने पर बुद्धिजीवी बनने का मार्ग प्रशस्त होगा और फिटनेस के लिए समय मिलेगा।
- फोन हाथ में नहीं होगा तो परिवार से जुडऩे का मौका मिलेगा। बेशक वर्चुअल दोस्तों से जुड़ाव कम होगा, लेकिन असली दुनिया के दोस्त मिलेंगे।
- सुबह उठते ही फोन को न टटोलें। उन नोटिफिकेशंस को बंद कर दें, जिनकी तुरंत आवश्यकता नहीं है। ई-मेल कुछ अंतराल के बाद भी चेक की जा सकती है।
- सोने के एक घंटे पहले डिवाइस छोड़ दें ताकि दिमाग पर वेब सीरीज और वीडियोज हावी न रहें।
- जिन एप को लेकर दिमाग में ज्यादा फितूर हैं, फोन से उनके आइकन हाइड कर दें।
- किताबों, योग और मेडिटेशन को अपना दोस्त बनाएं।
- कम से कम तीन घंटे का औसतन समय इंटरनेट मीडिया पर हर दिन बिताते हैं यूजर। इससे लोगों से जुडऩे का एहसास तो होता है, लेकिन अकेलापन, अवसाद और बेचैनी का स्तर भी बढ़ जाता है।
- 12 से 36 बार इंटरनेट मीडिया प्लेटफाम्र्स का इस्तेमाल औसतन एक दिन में करते हैं लोग।
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