Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
विचारधारा गई ताक पर,नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना आम बात है। - श्रीनारद मीडिया

विचारधारा गई ताक पर,नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना आम बात है।

विचारधारा गई ताक पर,नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना आम बात है।

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सामान्यतः राजनीति ऐसा विषय नहीं होता जो चुनावों के अतिरिक्त आम आदमी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करे। लेकिन विगत कुछ समय से देश में ऐसे घटनाक्रम हुए हैं जिन्होंने आमजन का ध्यान राजनीति की ओर आकृष्ट किया। सिर्फ आकृष्ट ही नहीं किया बल्कि सोचने के लिए भी विवश किया। दरअसल 2017 में टीएमसी छोड कर भाजपा में शामिल हुए शारदा चिटफंड घोटाले के आरोपी मुकुल रॉय बंगाल चुनावों के बाद एक बार फिर टीएमसी में वापस आ गए हैं। इसी प्रकार आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद विधिवत रूप से भाजपा में शामिल हो गए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों ही नेता अपने अपने पूर्व दलों में रहते हुए भाजपा की विचारधारा के खिलाफ खुलकर बयान देते थे।

इस प्रकार के और भी कई उदाहरण हैं जैसे 2017 के चुनावों से पहले कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी लगाने वाले नवजोत सिंह सिद्धू का भाजपा छोड़कर कांग्रेस में जाना। इसी प्रकार कांग्रेस के कद्दावर नेता स्व. माधवराव सिंधिया की विरासत संभालने वाले एवं राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का चुनावों के बाद अपने 24 समर्थकों के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाना जो बाद में मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार गिरने का कारण भी बना।

वैसे तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में इस प्रकार की घटनाएं कोई पहली बार नहीं घटित हो रहीं हैं। भारत की राजनीति का इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है। एक रिपोर्ट के अनुसार 1957 से 1967 के बीच 542 बार सांसद अथवा विधायकों ने अपने दल बदले। आप इसे क्या कहिएगा कि 1967 के आम चुनाव के प्रथम वर्ष में भारत में 430 बार सांसद अथवा विधायकों द्वारा दल बदलने का रिकॉर्ड बना। 1967 के बाद एक रिकॉर्ड और बना जिसमें दल बदल के कारण 16 महीने के भीतर 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं। हरियाणा के एक विधायक ने तो 15 दिन में ही तीन बार दल बदल कर राजनीति में एक नया रिकॉर्ड बनाया था।

जाहिर है भारत के राजनैतिक परिदृश्य में दल बदलने की घटनाएं कोई नई नहीं हैं। अपने राजनैतिक नफा नुकसान को ध्यान में रखते हुए नेताओं का एक दल से दूसरे दल में जाना आम बात है। हाँ यह सही है कि कानून की नज़र में यह अपराध नहीं है और ना ही ये नेता अपराधी, लेकिन नैतिकता की कसौटी पर यह जनता के ही अपराधी नहीं होते बल्कि लोकतंत्र की भी सबसे कमजोर कड़ी होते हैं।

क्योंकि अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के चलते ये नेता सालों से जिस राजनैतिक दल से जुड़े होते हैं उसे भी छोड़ने से परहेज नहीं करते यहाँ तक कि कई बार तो अपने राजनैतिक सफर की शुरुआत जिस दल से करते हैं उसे छोड़कर उस विपक्षी दल में चले जाते हैं जिसकी विचारधारा का विरोध वो अब तक करते आ रहे थे।

 

जाहिर है ऐसे नेता सिर्फ अपने राजनैतिक स्वार्थ के प्रति ईमानदार होते हैं अपने सिद्धांतों के प्रति नहीं। लेकिन इसके लिए सिर्फ उस नेता को ही दोष देना सही नहीं होगा। वो दल भी उतना ही दोषी है जो सत्ता के लालच में ऐसे नेताओं का अपने दल में सिर्फ फूलमालाओं से ही नहीं बल्कि भविष्य के ठोस आश्वासनों के साथ स्वागत करता है। खासतौर पर जब वो दल खुद को “पार्टी विथ अ डिफरेंस” कहता हो। वो दल जो खुद को विचारधारा आधारित पार्टी कहता हो, वो सत्ता के लिए उन विपक्षी दलों के नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करता है जिनसे उसका वैचारिक मतभेद रहा है।

लेकिन लोकतंत्र के नाम पर वोटर से छलावा यहीं तक सीमित नहीं है। एक दूसरे के कट्टरविरोधी राजनैतिक दल जो पाँच साल तक एक दूसरे के विरोधी रहते हैं सत्ता हासिल करने के लिए चुनावों से पूर्व एक दूसरे के साथ गठबंधन कर लेते हैं। इतना ही नहीं लोकतंत्र में जिस वोटर के हाथ में सत्ता की चाबी मानी जाती है उसके साथ छल यहीं खत्म नहीं होता। जिस दल के साथ चुनाव पूर्ण गठबंधन करके जनता के सामने ये दल वोट मांगने जाते हैं

चुनाव के बाद सरकार उस पार्टी के साथ मिलकर बना लेते हैं जिसे अपने चुनावी भाषणों में जमकर कोसते हैं। बिहार एवं महाराष्ट्र के उदाहरण कौन भूल सकता है। और ऐसे उदाहरणों की तो कोई कमी ही नहीं है जब एक राज्य में एक दूसरे के विरोध में लड़ने वाले दल दूसरे राज्य में कभी सामने से तो कभी पर्दे के पीछे से एक दूसरे का समर्थन कर रहे होते हैं।

लेकिन आज का सच तो यही है कि सत्ता के मोह में विचारधारा और सिद्धांत कहीं पीछे छूट जाते है और लोकतंत्र का राजा कहा जाने वाला वोटर देखता रह जाता है। यह बात सही है कि राजनीति में सत्ता प्राप्ति ही अंतिम लक्ष्य होता है लेकिन उस लक्ष्य को हासिल करने का मार्ग सिद्धान्तों और नैतिकता से परिपूर्ण हो इतना प्रयास तो किया ही जा सकता है।

किंतु आज ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीति में लक्ष्य प्राप्त करने की राह में शुचिता नैतिकता और विचारधारा जैसे शब्द जो कभी सबसे बड़े गुण माने जाते थे, आज सबसे बड़े अवरोधक बन गए हैं। कहने को हमारे देश में बहुदलीय प्रणाली वाला लोकतंत्र है। जनता अनेक दलों में से अपना नेता चुन सकती है लेकिन अवसरवाद की यह राजनीति लोकतंत्र को ही कमजोर नहीं कर रही बल्कि कहीं न कहीं आम आदमी को भी बेबस महसूस करा रही है।

लोकतंत्र की आत्मा जीवित रहे और आम आदमी का भरोसा उस पर बना रहे इसके लिए आवश्यक है कि राजनीति में अवसरवाद का यह सिलसिला समाप्त हो और हर राजनैतिक दल की मूल विचारधारा में नैतिकता और शुचिता आवश्यक रूप से शामिल हो। आज भारत का लोकतंत्र भविष्य की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख कर पूछ रहा है कि क्या भारत की राजनीति में क्या फिर कभी लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं का दौर आ पाएगा ?

 

 

Leave a Reply

error: Content is protected !!