जीते जी निज स्वरूप को जानना जरूरी -स्वामी ईश्वरदास ब्रह्मचारी
श्रीनारद मीडिया, अभिषेक तिवारी, सिकंदरपुर, बलिया (यूपी):
गुरुपर्व में गुरुवर्य की महिमा को अनन्त बताते हुए व्यासपीठाधीश्वर परिव्राजकाचार्य स्वामी ईश्वरदास ब्रह्मचारी जी महाराज ने कहा कि भक्ति, भक्त, भगवान और गुरु भले ही नाम से चार हैं किन्तु शरीर से एक ही हैं। स्वामी जी अपने अद्वैत शिवशक्ति आश्रम दूहा में चल रहे गुरु-पर्वोत्सव के दूसरे दिन श्रद्धालुओं के बीच प्रवचन कर रहे थे।
कहा कि प्रेम जब पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तो भक्ति का रूप धारण कर लेता है। भक्त और भगवान में कोई अन्तर नहीं, प्रेम की सँकरी गली में एक साथ दो नहीं जा सकते। दोनों मिलाकर एक हैं, अद्वैत हैं । गुरु ही जीव – शिव, आत्मा-परमात्मा, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्तादि का भेद बताते हैं। चित् को चित्त अर्थात् अविद्या ही चतुर्दिक घेर रखी है । हालाँकि अविद्या(अज्ञान) से ही शरीर या संसार सृजित होता है, क्योंकि जबतक छिलका नहीं रहेगा धान का अंकुरण हो नहीं सकता गुरुकृपा से ही शिष्य परमात्मा तक पहुँचता है। जीते जी निज स्वरूप को जानना आवश्यक है।
कहा कि यदि गुरु की चरणरज रूपी अञ्जन को नेत्रों में लगा लें तो मनरूपी दर्पण पर जमी मैल अर्थात् अविद्या मिट जायेगी और आत्म स्वरूप झलकने लगेगा । धर्मार्थ काम मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी। गुरु महिमा का सम्पूर्णता से गायन करना असम्भव है। गुरु मनुष्य रूप में परमात्मा ही होते हैं।
उन्होंने आगे कहा कि तिल में तैलवत् सर्वत्र व्याप्त परमात्मा अनुभवगम्य हैं। स्वयं की साधना और गुरु कृपा के बिना उन्हें इन आँखों से देखा नहीं जा सकता। वस्तुतः ज्ञानधारा गोपनीय रहती है, वह अधिकारी भक्तों के सम्मुख प्रकट होती है। भक्ति प्रेमरूपा एवं अमृतस्वरूपा है। सुधा- सिन्धु से आवृत अखण्ड भूमि में अक्षर धाम से होती हुई ब्रह्मात्मायें परम-धामधनी शिव परमात्मा के श्री चरणों में विश्राम पाती हैं। कहा कि परमधाम ही हमारा वास्तविक निज धाम है, वहाँ पहुँचने का पुरजोर प्रयास करना चाहिए । उधर वैदिक यज्ञ हेतु मण्डप प्रवेश, वेदीपूजन तथा अरणी- मन्थन से प्रकाटयी गयी अग्नि की स्थापना हुई ।
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