जयप्रकाश चौकसे फिल्म पत्रकारिता में एक बड़े नाम थे.

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आखिरी कॉलम ‘परदे के पीछे’ में लिखा था- ‘यह विदा है, अलविदा नहीं….

जयप्रकाश चौकसे जी को भावभींनी श्रद्धांजलि। 

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे का 83 साल की उम्र में निधन हो गया. उन्होंने इंदौर में अंतिम सांस ली.एक ऐसे दौर में जब फिल्मों को ही गंभीरता से नहीं लिया जाता था और उसका प्रभाव पत्रकारिता में सिनेमा और मनोरंजन पत्रकारिता पर भी नकारात्मक ही था और जिसके चलते फिल्म पत्रकारिता मुख्यधारा में केवल चटपटी मसालेदार खबरों की भरपाई मात्र थी, वहां जयप्रकाश चौकसे जैसे प्रखर फिल्म पत्रकार/स्तंभकार ने 5 दशक तक सिनेमाई दुनिया के संसार की ऐसी छवि गढ़ी जिसने फिल्म पत्रकारिता को एक स्तर दिया और अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा के साथ स्थापित कर दिया।

अपनी 50 साल की फिल्म पत्रकारिता में चौकसे जी ने करियर की आधी से ज्यादा जिंदगी यानी 26 साल दैनिक भास्कर जैसे राष्ट्रीय अखबार में पर्दे के पीछे जैसे स्तंभ को गढ़ते हुए गुजारी। पर्दे के पीछे जैसा यह कॉलम चौकसे जी जैसे फिल्म पत्रकार ने अपने सरल, सहज भाषाई तेवर के साथ बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा की दुनिया के भीतर चल रही तकरीबन चौंकाने देने वाली जानकारियों व विवेक-विचार के कौशल के साथ समृद्ध किया और इतनी मजबूती से स्थापित किया कि इसने भविष्य के फिल्म पत्रकारों के लिए प्रकाश स्तंभ का ही किया काम किया।

मप्र के बुरहानपुर में 1939 में जन्में जयप्रकाश चौकसे ने अंग्रेजी ओर हिंदी साहित्य में एमए किया था। उनकी लगातार साहित्य और संस्कृति में आवाजाही थी। उन्हें दराबा और ताज जैसे दो उपन्यास लिखे और कहानियां भी लिखीं। साहित्य में वे जितना नए को पढ़ रहे थे उतनी ही उनकी दृष्टि अतीत व प्राचीन सृजन संसार की प्रासंगिकता पर भी बराबर बनी रही।

वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे पिछले काफी वक्त से गंभीर बीमारी से पीड़ित थे. उनके चाहने वाले उन्हें ‘सिनेमा का एनसाइक्लोपीडिया’ कहते थे. उन्होंने बुधवार सुबह 83 साल की उम्र में इंदौर में अंतिम सांस ली. उन्होंने उपन्यास ‘दराबा’, ‘महात्मा गांधी और सिनेमा’ और ‘ताज बेकरारी का बयान’ लिखा. ‘उमाशंकर की कहानी’, ‘मनुष्य का मस्तिष्क और उसकी अनुकृति कैमरा’ और ‘कुरुक्षेत्र की कराह’ उनकी कहानियां हैं. कुछ दिन पहले उन्होंने  अपने कॉलम ‘परदे के पीछे’ में आखिरी बार लिखा था. इसका टाइटल था- ‘यह विदा है, अलविदा नहीं, कभी विचार की बिजली कौंधी तो फिर रुबरु हो सकता हूं, लेकिन संभावनाएं शून्य हैं…

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