जदयू के नेता व कार्यकर्ता भ्रमित हैं कि वे क्या करें?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच मुद्दों को लेकर टकराहट लोकतंत्र में आवश्यक है। स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था वही होती है जहां जनहित के मुद्दों पर विपक्ष अपना पक्ष रखने में न हिचके और सत्तापक्ष उसे सकारात्मक तरीके से ले। बिहार में इस समय स्थितियां इससे इतर हो चली हैं। विपक्ष खामोश है और सतापक्ष ही आपस में उलझा दिखाई देता है।

सत्तापक्ष के दो बड़े दल जदयू और भाजपा अक्सर किसी न किसी मुद्दे को लेकर आपस में भिड़ते दिखाई दे जाते हैं। असहमति इस स्तर पर दिखाई देने लग जाती है कि लगता है अब साथ ज्यादा दिन नहीं चलने वाला, लेकिन शीर्ष स्तर की खामोशी फिर सबकुछ सामान्य कर देती है। जदयू-भाजपा में होने वाले वाक युद्ध के बीच अन्य दो छोटे साथी, वीआइपी और हम भी पीछे नहीं रहते।

बिहार के इस मौजूदा लोकतांत्रिक स्वरूप के प्रतिफल के रूप में जदयू में आंतरिक लोकतंत्र भी तेजी से फलफूल रहा है। आजकल पार्टी के दो कद्दावर नेता केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह (रामचंद्र प्रसाद सिंह) और राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह के बीच के रिश्तों को लेकर जनता और कार्यकर्ता दोनों ही भ्रम में हैं। दोनों के तल्ख रिश्ते विधानसभा चुनाव बाद ही जगजाहिर होने लगे थे।

उस समय आरसीपी राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और वही केंद्रीय सत्ता में जदयू की भागीदारी को लेकर बातचीत कर रहे थे। चर्चा थी कि दो या तीन मंत्री पद जदयू को मिलेंगे और यही उसकी मांग भी थी। माना जा रहा था कि आरसीपी व ललन सिंह दोनों ही मंत्री बनाए जा सकते हैं, लेकिन शपथ दिलाई गई केवल आरसीपी को। बाद में ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। उस समय केंद्रीय मंत्रिमंडल में कम हिस्सेदारी को लेकर ललन सिंह की खटास सामने आई थी।

इधर अपने वोट बैंक में बढ़ोतरी कर राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने को आतुर जदयू की निगाहें यूपी चुनाव पर थीं। पिछले चुनाव में आरसीपी के नेतृत्व में भी उसे अपनी जमीन की तलाश थी, लेकिन भाजपा का साथ न मिलने के कारण वो नहीं उतरी। इस चुनाव में उसने खासी तैयारी की थी। भाजपा से गठबंधन के लिए आरसीपी सिंह को अधिकृत किया गया, लेकिन मांग रख दी गई तीन दर्जन सीटों की।

यह माना जा रहा है कि इस असंभव मांग को रखा ही इसलिए गया कि यह पूरी न हो सके। बातचीत शुरू हुई, लेकिन सीटों की संख्या को लेकर गतिरोध ही रहा। इधर देर होती देख ललन सिंह अकेले उतरने का दबाव बनाते रहे। तोलमोल कर कुछ सीटों पर बात बनती इससे पहले ही 51 सीटों पर उतरने की घोषणा कर दी गई। इसके बाद सिलसिला शुरू हुआ गठबंधन में मनमाफिक सीट न दिलवा पाने के लिए आरसीपी को दोषी ठहराने का।

दोषारोपण के बीच 26 प्रत्याशी घोषित कर दिए गए। हैं। 51 अभी तक पूरे नहीं हो पाए हैं। स्टार प्रचारकों की सूची जारी की गई तो उसमें भी आरसीपी का नाम नदारद था। इस प्रकरण में आरसीपी शांत ही रहे। बाद में आरसीपी का नाम स्टार प्रचारकों में डाला गया। माना जा रहा है कि नीतीश के हस्तक्षेप के बाद ऐसा किया गया।

इधर गत शुक्रवार को आरसीपी सिंह ने पटना में यह कहकर नई चिंगारी सुलगा दी कि एक मार्च को नीतीश कुमार के जन्म दिवस से वे घर-घर जाकर राज्य सरकार व केंद्र सरकार की उपलब्धियों को बताएंगे। यह सिलिसिला साल भर चलेगा और इस दौरान वे सदस्यता अभियान भी शुरू करेंगे। सामान्य हालात होते तो इसे पार्टी के विस्तार में सभी के समान योगदान के रूप में देखा जाता, लेकिन तल्खी के कारण इसे सीधे-सीधे राष्ट्रीय अध्यक्ष के अधिकारों में हस्तक्षेप माना गया। तुरंत ललन सिंह गुट सक्रिय हो गया। संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने इसे राष्ट्रीय अध्यक्ष का अधिकार बताया।

ललन सिंह ने कहा कि सदस्यता अभियान अक्टूबर में शुरू होगा। इन बयानबाजी के बीच आरसीपी कुछ नहीं बोले। अब वे स्पष्ट कर रहे हैं कि पार्टी की मजबूती के लिए सदस्य बढ़ाना जरूरी है। वे जब घर-घर जाएंगे तो पार्टी के प्रति आकर्षित होने वालों को शामिल करवाने वाले को वे प्रेरित करेंगे। इसमें बुराई क्या है और किसी को एतराज भी क्यों? चूंकि आरसीपी राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं और निचले स्तर पर उनकी पकड़ भी है, इसलिए उनकी अधिक सक्रियता ललन खेमे को रास नहीं आ रही।

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