विकास की संभावनाओं से भरा है झारखंड,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
वर्ष 2019-20 की आर्थिक मंदी और वर्ष 2020-21 की कोविड-19 महामारी के दौरान हुए आर्थिक गतिविधियों में संकुचन के बाद राज्य की अर्थव्यवस्था में लगातार सुधार हुआ है. न केवल विकास दर पूर्ववत हो गया है, बल्कि इसमें उत्तरोत्तर विकास की प्रबल संभावना बनी हुई है. विकास के बाधक तत्वों के दूर होने एवं विकास उन्मुखी प्रयास किये जाने पर यह राज्य देश के अग्रगणी राज्यों मे से एक हो जायगा. झारखंड की वास्तविक आय में वर्ष 2011-12 से 2018-19 के बीच 6.2 प्रतिशत की औसत वार्षिक दर से वृद्धि हुई. वित्तीय 2019-20 में देश की आर्थिक मंदी के कारण एवं वर्ष 2020- 21 मे कोरोना एवं उसके कारण हुए बंदी के कारण राज्य का विकास थम सा गया था.
पिछले वर्ष की तुलना वर्ष 2019-20 में राज्य की कुल वास्तविक आय में मात्र 1.1 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई और वर्ष 2020-21 में तो इसमें 5.5 प्रतिशत की कमी आयी. वर्ष 2021-22 में 10.9 प्रतिशत की वृद्धि के साथ राज्य की आय पूर्ववत हो गयी. वर्ष 2022-23 में इसमें 6.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई और इस वर्ष (2023-24) में इसमें 6.9 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान है.
इस वर्ष विकास दर के कम रहने का कारण एक तरफ एल-नीनो के प्रभाव के कारण मानसून का असामान्य रहना रहा है, तो दूसरी तरफ वैश्विक संघर्ष के वातावरण का कुप्रभाव रहा है. लेकिन, 2019-20 एवं 2020-21 के वर्षों के विपरीत परिस्थितियों के बाद राज्य का विकास अब रफ्तार पकड़ चुका है. आगामी वर्ष (2024-25) में राज्य के विकास दर के 7.5 प्रतिशत रहने का अनुमान है. आने वाले वर्षो में इसके और तीव्र होने का अनुमान है.
देश के अन्य राज्यों के तरह झारखंड की अर्थव्यस्था में भी कृषि का एक महत्वपूर्ण स्थान है. राज्य के करीब आधे कामगार कृषि पर आश्रित हैं और राज्य के विकास दर में इसका योगदान 13.8 प्रतिशत है, लेकिन राज्य का यह क्षेत्र पिछड़ा रहा है. राज्य का केवल 17 प्रतिशत भाग शुद्ध बोया गया क्षेत्र है और उसके ज्यादातर भाग में सिर्फ एक फसल होती है. इसका शुद्ध बोया गया क्षेत्र करीब 1387 हज़ार हेक्टेअर है, लेकिन इसके केवल 426 हजार हेक्टेअर भूमि पर ही एक से ज्यादा फसल होती है. इस तरह से इसकी फसल की सघनता मात्रा 130.7 है. कृषि क्षेत्र में इसके उत्पादन एवं उत्पादकता में भी सुधार की काफी गुंजाइश है.
इस क्षेत्र के उत्पादन और उत्पादकता में सुधार से राज्य के विकास को कई तरह से गति मिलेगी, पहला- यह राज्य की आय को प्रत्यक्ष रूप से बढ़ाएगा. दूसरा- इस क्षेत्र के उत्पादन की वृद्धि से खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों एवं अन्य कृषि आश्रित उद्योगों को कच्चे पदार्थ आसानी से मिल जायेगा, जिससे इस राज्य में इस तरह के उद्योगों का विकास होगा और तीसरा- कृषि क्षेत्र के विकास से इस क्षेत्र में लगे कामगारों की आय में वृद्धि होगी और इस प्रकार उनके लिए आवश्यक वस्तुओं की मांग बढ़ेगी. इन वस्तुओं की मांग बढ़ने से ऐस उत्पादों का उत्पादन करने वाले क्षेत्रों के उत्पादन में भी तेजी आयेगी.
कृषि के विकास के लिए सिंचाई के क्षेत्र का विस्तार किया जाना आवश्यक है. इसके विस्तार से शुद्ध बोये गये क्षेत्र का विस्तार होगा, ज्यादा बड़े क्षेत्र में एक से ज्यादा फसल का उत्पादन होने लग जायगा एवं कृषि की उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि होगी. सिंचाई के क्षेत्र के विकास के लिए सिंचाई के नए स्रोतों (जिसमें प्रमुख, मध्यम और लघु सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण शामिल है) के निर्माण की दिशा में कार्य किया जाना चाहिए. चल रही सिंचाई परियोजनाओं को पूरा किया जाना चाहिए.
सिंचाई के खराब या निष्क्रिय स्रोतों की मरम्मत की जानी चाहिए. एवं खेत में जल के उपयोग की दक्षता में सुधार और पानी की बरबादी को कम करने के लिए ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर जैसी जल बचत प्रौद्योगिकियों का कार्यान्वयन किया जाना चाहिए. इसके फलस्वरूप प्रति बूंद अधिक फसल का उत्पादन संभव हो सकेगा. इनके अतिरिक्त नमी संरक्षण और पानी का संरक्षण की विधि को भी ज्यादा से ज्यादा अपनाने की जरूरत है.
राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 17 प्रतिशत हिस्सा बंजर भूमि और वर्तमान परती भूमि है. इन भूमियों को भूमि समतलीकरण, भूमि विकास और भूमि विकास के उपयुक्त हस्तक्षेपों के माध्यम से खेती के तहत लाया जा सकता है. इससे भी राज्य के शुद्ध फसल क्षेत्र मे वृद्धि होगी एवं कृषि के उत्पादन एवं उत्पादकता मे वृद्धि होगी. धान की गोड़ा किस्म, दाल, गोंदली, मडुआ (रागी या फिंगर मिलेट), और बाजरा जैसी फसलों में सूखा प्रतिरोधी क्षमता होती है.
कम बारिश में भी ये फसल आसानी से हो जाते हैं. ऐसी फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित कर असामान्य मानसून की परिस्थिति से भी आसानी से निपटा जा सकता है. फसल उत्पादन की श्री विधि भी कम पानी में अच्छी फसल उत्पादन को सुनिश्चित करने में कारगर होगा. मिट्टी की उर्वरता को बनाये रखने और वर्तमान परती को कम करने के लिए फसल रोटेशन एक कारगर विधि हो सकती है. बागवानी के विकास, जिसमें फल एवं सब्जी का उत्पादन सम्मिलित है, के द्वारा भी राज्य में कृषि विकास संभव हो सकेगा.
निर्माण भी एक अत्यधिक श्रम-गहन गतिविधि है और इसका अन्य आर्थिक गतिविधियों के साथ घनिष्ठ संबंध है. राज्य में अवसंरचना को सुदृढ़ कर राज्य के विकास दर को तीव्रता प्रदान की जा सकती है. शैक्षिक संस्थानों और अस्पतालों/स्वास्थ्य केंद्रों के विकास के के द्वारा भी इस राज्य के विकास को गति प्रदान की जा सकती है. राज्य और कुछ पड़ोसी राज्यों के छात्र बड़ी संख्या में शिक्षा, विशेष रूप से उच्च शिक्षा के लिए देश के अन्य हिस्सों (विशेष रूप से दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु) जाते हैं.
इसी तरह से, इस राज्य के लोगों (रोगी और उनके परिचारक) के साथ पड़ोसी राज्यों के लोग बड़ी संख्या में देश के अन्य हिस्सों में (विशेष रूप से दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, वेल्लोर और चेन्नई) चिकित्सा उपचार के लिए जाते हैं. इन दो क्षेत्रों का विकास इस राज्य को शिक्षा और चिकित्सा के लिए केंद्र बना सकता है.
यह न केवल राज्य के लोगों के खर्च और कठिनाई को बचायेगा, बल्कि पड़ोसी राज्य के छात्रों और रोगियों (उनके परिचारकों सहित) को भी आकर्षित करेगा. यह इस राज्य में इनसे संबंधित कई अन्य तरह की आर्थिक गतिविधियों का सृजन करेगा.
भारत के आदिवासियों को अब अमेरिका के काले नीग्रो लोगों की तरह डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग जूनियर द्वारा दिखाये गये एक बड़े सपने को देखना और साकार करना होगा. राजा राममोहन राय की तरह सती प्रथा जैसी गलत प्रथा और परंपराओं को तोड़कर ब्रह्म समाज की तरह एक नया आदिवासी समाज बनाना होगा. महात्मा ज्योतिबा फुले की तरह अपनी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक गुलामगिरी की जंजीरों को तोड़ना होगा. तर्कपूर्ण सत्यशोधक समाज खड़ा करना होगा. डॉक्टर भीमराव आंबेडकर और मान्यवर कांशीराम की तरह सकारात्मक राजनीति का पाठ पढ़ाकर समाज को राजनीतिक कुपोषण से मुक्त करना होगा. सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय दिलाना होगा. बिरसा मुंडा और सिदो-कान्हू मुर्मू की तरह समाज के लिए अंग्रेजों के खिलाफ समर्पित भाव से संघर्ष करना होगा.
डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने लगभग 300 वर्षों तक अमेरिका में गुलाम बने नीग्रो लोगों को आवाज दी- “आओ, एकजुट हो जाओ, हमारे पास तुम्हारे लिए गुलामी से आजादी का एक सपना है.” काले लोग 28 अगस्त 1963 को अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में लाखों की संख्या में जमा हुए. डॉक्टर किंग ने कहा- “अब हम आजाद होंगे, क्योंकि संविधान में हमारे लिए भी हिस्सा है. काले व गोरे दोनों का खून लाल है अर्थात हम बराबर के हकदार हैं. ईश्वर ने सबको एक समान बनाया है.” अंतत: नीग्रो लोगों को आजादी मिली. डॉक्टर किंग ने कहा था-
“ इंसान जब तक व्यक्तिगत चिंताओं के दायरे से ऊपर उठकर पूरी मानवता की वृहद चिंताओं के बारे में नहीं सोचता है, तब तक उसने जीवन जीना ही शुरू नहीं किया है. तब भी अपने लिए जीते हो… तो तुम्हारा, बच्चों का भविष्य तुम्हारे समाज का दुश्मन तय करेगा. हो सकता है तुम बच जाओ, मगर पीढ़ियों की गुलामी के जिम्मेदार तुम खुद हो.” आदिवासी समाज तभी बचेगा, जब उसका हासा, भाषा, जाति, धर्म, रोजगार, इज्जत, आबादी और संविधान-कानून प्रदत्त अधिकार बचेंगे. इसके लिए आदिवासी समाज को एक वृहद एकता और निर्णायक जन आंदोलन खड़ा करना पड़ेगा.
हर आदिवासी गांव-समाज में नशापन, अंधविश्वास, डायन प्रथा, वोट की खरीद-बिक्री आदि को बंद कर समाज सुधार करना होगा. अधिकांश अनपढ़, पियक्कड़, नासमझ लोगों के द्वारा संचालित आदिवासी शासन व्यवस्था को भी अविलंब जनतांत्रिक और संविधानसम्मत बनाना जरूरी है, ताकि पढ़े-लिखे आदिवासी स्त्री पुरुषों की भागीदारी का रास्ता प्रशस्त हो सके. सबको सरना धर्म कोड और भारत राष्ट्र के भीतर (झारखंड को केंद्रित कर) आदिवासी राष्ट्र निर्माण जैसे बड़े सपनों के साथ जोड़ना होग, एकजुट करना होगा.
प्रत्येक आदिवासी गांव-समाज में समाज-सुधार और एकजुटता आ जाए तो देश में आदिवासी समाज अपने सपनों को जरूर पूरा कर सकता है. परंतु, आदिवासी समाज पर आज गलत और स्वार्थ की राजनीति हावी है, जबकि गैर-आदिवासी समाज अपनी समृद्धि के लिए राजनीति पर हावी है. आरक्षित सीटों से जीतने वाले आदिवासी एमएलए / एमपी अपने समाज के बदले केवल पार्टियों की गुलामी करते हैं.
अधिकतर आदिवासी सामाजिक जनसंगठन भी उन्हीं आदिवासी नेताओं की परिक्रमा करते हैं. प्रत्येक आदिवासी गांव-समाज में आदिवासी स्वशासन व्यवस्था के नाम पर वंशानुगत काबिज अधिकतर आदिवासी प्रमुख समाज को एकजुट कर आगे बढ़ाने के बदले नशापान, अंधविश्वास, डायन प्रथा, डंडोम (जुर्माना लगाना ), बारोन (सामाजिक बहिष्कार), डान पनते (डायन बनाना), रूमूग (झुपना), बुलुग (मताल होना), वोट की खरीद-बिक्री जैसी बुराइयों की दलदल में धकेलते रहते हैं.
हर आदिवासी गांव-समाज को एक बड़ा सपना, समाज सुधार और एकता का संकल्प देना होगा, तभी आदिवासी समाज को मंजिल मिलेगी। अन्यथा वह अपने पेट, परिवार और स्वार्थ की दुनिया में भटकता रह जायेगा. फिलवक्त आदिवासी समाज को अपनी मंजिल की प्राप्ति के लिए राजनीति से ज्यादा समाज-नीति की फिक्र करना श्रेयस्कर हो सकता है. पार्टियों और उसके वोट बैंक को बचाने की अपेक्षा मरणासन्न आदिवासी समाज को बचाना अधिक जरूरी है.