न्यायपालिका और सरकार राजद्रोह संबंधी धारा-124 ए को लेकर आमने-सामने
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
राजद्रोह संबंधी भारतीय दंड संहिता की धारा-124 ए को लेकर न्यायपालिका और सरकार फिर आमने-सामने हैं। यह पहली बार नहीं है। बहुत पहले से ऐसे अवसर आते रहे हैं, जब न्यायपालिका सरकार द्वारा बनाए कानूनों में हस्तक्षेप करती रही है और विधायिका एवं कार्यपालिका से जुड़े लोग कभी इशारों में, कभी मुखर हो आपत्ति करते रहे हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने तो बहुत पहले ही संवैधानिक व्यवस्था के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट के विधायिका का ‘तीसरा सदन’ बन जाने की आशंका व्यक्त की थी। वह संसद को श्रेष्ठतर मानते थे।
हमारा संविधान दुनिया का सबसे वृहत लिखित संविधान है। तब भी इसमें अब तक शताधिक संशोधन किए जा चुके हैं, फिर भी छिद्र बाकी हैं। लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च होती है। लोकसभा और विधानसभाओं में तो जनप्रतिनिधि ही होते हैं। जनता के प्रति वे उत्तरदायी होते हैं। तर्क बुद्धि तो यही कहती है कि जनहित मापने का बौद्धिक यंत्र उन्हीं के पास है, न कि न्यायपालिका के पास, जिसके जज या तो वकील से प्रोन्नत होते हैं या न्यायिक सेवा से।
देश में कालेजियम पद्धति के चलते जज ही जज की नियुक्ति कर देते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस पद्धति को बदलने का यत्न किया, पर उसे सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया।वर्तमान संविधान में अनुच्छेद 13 सहित कुछ ऐसे प्रविधान हैं कि जिससे न्यायपालिका कानूनों की न्यायिक समीक्षा कर सकती है। इसी का सहारा लेकर वह संप्रति कानूनों को रोकने, बदलने, निरस्त करने का कार्य करती रहती है। यही नहीं, वह अपराधों का भी स्वत: संज्ञान लेकर अधिकार का प्रयोग करती है। सरकारी भूमि से अतिक्रमण हटाने के लिए भी नौकरशाही स्वतंत्र नहीं है। सुप्रीम कोर्ट उसे रोक देता है।
विधायिका और सरकार से जुड़े लोग दबी जुबान ‘लक्ष्मण रेखा’ में रहने की बात कहकर अपनी पीड़ा व्यक्त तो करते हैं, किंतु ऐसी रेखा संविधान में खिंची ही नहीं है। बात ‘संवैधानिक नैतिकता’ की होती है, किंतु वह तो अब है ही नहीं। सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर मूल अधिकार अक्षुण्ण बनाए रखने और संविधान का मूल ढांचा क्षरित न होने की बात कहता रहा है। संविधान मानव द्वारा तत्समय की सामाजिक, राजनीतिक स्थितियों और नैतिक मानकों को दृष्टिगत रखते हुए निर्मित किया गया है। अब तक सैकड़ों संशोधन हुए हैं और फिर भी वह आज की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है। तब क्यों न इसे वर्तमान परिस्थितियों और जन आंकाक्षाओं के अनुरूप बनाया जाए।
धारा-124 ए को संज्ञेय अपराध का दर्जा तो इंदिरा गांधी ने दिया था और 1962 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इसे वैध ठहराया था। अब शीर्ष न्यायालय अपने ही निर्णय के उलट जाते दिख रहा है, जो आश्चर्यजनक है।
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