हवन कुंड और हवन के नियमों के बारे में  जाने विशेष जानकारी

 

हवन कुंड और हवन के नियमों के बारे में  जाने विशेष जानकारी

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श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्‍क:

जन्म से मृत्युपर्यन्त सोलह संस्कार या कोई शुभ धर्म कृत्य यज्ञ अग्निहोत्र के बिना अधूरा माना जाता है। वैज्ञानिक तथ्यानुसार जहाॅ हवन होता है, उस स्थान के आस-पास रोग उत्पन्न करने वाले कीटाणु शीघ्र नष्ट हो जाते है।

शास्त्रों में अग्नि देव को जगत के कल्याण का माध्यम माना गया है जो कि हमारे द्वारा दी गयी होम आहुतियों को देवी देवताओं तक पहुंचाते है। जिससे देवगण तृप्त होकर कर्ता की कार्यसिद्धि करते है। इसलिये पुराणों में कहा गया है।

“”अग्निर्वे देवानां दूतं “”

कोई भी मन्त्र जाप की पूर्णता , प्रत्येक संस्कार , पूजन अनुष्ठान आदि समस्त दैवीय कर्म , हवन के बिना अधूरा रहता है।

हवन दो प्रकार के होते हैं वैदिक तथा तांत्रिक. आप हवन वैदिक करायें या तांत्रिक दोनों प्रकार के हवनों को कराने के लिए हवन कुंड की वेदी और भूमि का निर्माण करना अनिवार्य होता हैं. शास्त्रों के अनुसार वेदी और कुंड हवन के द्वारा निमंत्रित देवी देवताओं की तथा कुंड की सज्जा की रक्षा करते हैं. इसलिए इसे “मंडल” भी कहा जाता हैं.

हवन की भूमि? हवन करने के लिए उत्तम भूमि को चुनना बहुत ही आवश्यक होता हैं. हवन के लिए सबसे उत्तम भूमि नदियों के किनारे की, मन्दिर की, संगम की, किसी उद्यान की या पर्वत के गुरु ग्रह और ईशान में बने हवन कुंड की मानी जाती हैं. हवन कुंड के लिए फटी हुई भूमि, केश युक्त भूमि तथा सांप की बाम्बी वाली भूमि को अशुभ माना जाता हैं.

हवन कुंड की बनावट? हवन कुंड में तीन सीढियाँ होती हैं. जिन्हें “ मेखला ” कहा जाता हैं. हवन कुंड की इन सीढियों का रंग अलग – अलग होता हैं.

1? हवन कुंड की सबसे पहली सीधी का रंग सफेद होता हैं.

2? दूसरी सीढि का रंग लाल होता हैं.

3? अंतिम सीढि का रंग काला होता हैं.
ऐसा माना जाता हैं कि हवन कुंड की इन तीनों सीढियों में तीन देवता निवास करते हैं.

1? हवन कुंड की पहली सीढि में विष्णु भगवान का वास होता हैं.

2? दूसरी सीढि में ब्रह्मा जी का वास होता हैं.

3? तीसरी तथा अंतिम सीढि में शिवजी का वास होता हैं.

हवन कुंड के बाहर गिरी सामग्री को हवन कुंड में न डालें – आमतौर पर जब हवन किया जाता हैं तो हवन में हवन सामग्री या आहुति डालते समय कुछ सामग्री नीचे गिर जाती हैं. जिसे कुछ लोग हवन पूरा होने के बाद उठाकर हवन कुंड में डाल देते हैं. ऐसा करना वर्जित माना गया हैं. हवन कुंड की ऊपर की सीढि पर अगर हवन सामग्री गिर गई हैं तो उसे आप हवन कुंड में दुबारा डाल सकते हैं. इसके अलावा दोनों सीढियों पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती हैं. इसलिए इस सामग्री को उन्हें ही अर्पित कर देना चाहिए।

तांत्रिक हवन कुंड ? वैदिक हवन कुंड के अलावा तांत्रिक हवन कुंड में भी कुछ यंत्रों का प्रयोग किया जाता हैं. तांत्रिक हवन करने के लिए आमतौर पर त्रिकोण कुंड का प्रयोग किया जाता हैं.

हवन कुंड और हवन के नियम
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हवन कुंड के प्रकार – हवन कुंड कई प्रकार के होते हैं. जैसे कुछ हवन कुंड वृताकार के होते हैं तो कुछ वर्गाकार अर्थात चौरस होते हैं. कुछ हवन कुंडों का आकार त्रिकोण तथा अष्टकोण भी होता हैं.

आहुति के अनुसार हवन कुंड बनवायें
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1? अगर अगर आपको हवन में 50 या 100 आहुति देनी हैं तो कनिष्ठा उंगली से कोहनी (1 फुट से 3 इंच )तक के माप का हवन कुंड तैयार करें।

2? यदि आपको 1000 आहुति का हवन करना हैं तो इसके लिए एक हाथ लम्बा (1 फुट 6 इंच ) हवन कुंड तैयार करें।

3? एक लक्ष आहुति का हवन करने के लिए चार हाथ (6 फुट) का हवनकुंड बनाएं।

4? दस लक्ष आहुति के लिए छ: हाथ लम्बा (9 फुट) हवन कुंड तैयार करें।

5? कोटि आहुति का हवन करने के लिए 8 हाथ का (12 फुट) या 16 हाथ का हवन कुंड तैयार करें।

6? यदि आप हवन कुंड बनवाने में असमर्थ हैं तो आप सामान्य हवन करने के लिए चार अंगुल ऊँचा, एक अंगुल ऊँचा, या एक हाथ लम्बा – चौड़ा स्थण्डिल पीली मिटटी या रेती का प्रयोग कर बनवा सकते हैं।

7? इसके अलावा आप हवन कुंड को बनाने के लिए बाजार में मिलने वाले ताम्बे के या पीतल के बने बनाए हवन कुंड का भी प्रयोग कर सकते हैं. शास्त्र के अनुसार इन हवन कुंडों का प्रयोग आप हवन करने के लिए कर सकते हैं. पीतल या ताम्बे के ये हवन कुंड ऊपर से चौड़े मुख के और नीचे से छोटे मुख के होते हैं. इनका प्रयोग अनेक विद्वान् हवन – बलिवैश्व – देव आदि के लिए करते हैं।

8? भविषयपुराण में 50 आहुति का हवन करने के लिए मुष्टिमात्र का निर्देश दिया गया हैं. भविष्यपूराण में बताये गए इस विषय के बारे में शारदातिलक तथा स्कन्दपुराण जैसे ग्रन्थों में कुछ मतभेद मिलता हैं।

हवन के नियम? वैदिक या तांत्रिक दोनों प्रकार के मानव कल्याण से सम्बन्धित यज्ञों को करने के लिए हवन में “मृगी” मुद्रा का इस्तेमाल करना चाहिए।

1? हवन कुंड में सामग्री डालने के लिए हमेशा शास्त्रों की आज्ञा, गुरु की आज्ञा तथा आचार्यों की आज्ञा का पालन करना चाहिए।

2? हवन करते समय आपके मन में यह विश्वास होना चाहिए कि आपके करने से कुछ भी नहीं होगा. जो होगा वह गुरु के करने से होगा।

3? कुंड को बनाने के लिए अड़गभूत वात, कंठ, मेखला तथा नाभि को आहुति एवं कुंड के आकार के अनुसार निश्चित किया जाना च हिए।

4? अगर इस कार्य में कुछ ज्यादा या कम हो जाते हैं तो इससे रोग शोक आदि विघ्न भी आ सकते हैं।

5? इसलिए हवन को तैयार करवाते समय केवल सुन्दरता का ही ध्यान न रखें बल्कि कुंड बनाने वाले से कुंड शास्त्रों के अनुसार तैयार करवाना चाहिए।

हवन करने के फायदे
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1? हवन करने से हमारे शरीर के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।

2? हवन करने से आस – पास का वातावरण शुद्ध हो जाता हैं।

3? हवन ताप नाशक भी होता हैं।

4? हवन करने से आस–पास के वातावरण में ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ जाती हैं।

हवन से सम्बंधित कुछ आवश्यक बातें
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अग्निवास का विचार
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तिथि वार के अनुसार अग्नि का वास पृथ्वी ,आकाश व पाताल लोक में होता है। पृथ्वी का अग्नि वास समस्त सुख का प्रदाता है लेकिन आकाश का अग्नि वास शारीरिक कष्ट तथा पाताल का धन हानि कराता है। इसलिये नित्य हवन , संस्कार व अनुष्ठान को छोड़कर अन्य पूजन कार्य में हवन के लिये अग्निवास अवश्य देख लेना चाहिए।

हवन कार्य में विशेष सावधानियां
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मुँह से फूंक मारकर, कपड़े या अन्य किसी वस्तु से धोक देकर हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्ज्वलित करना तथा जलती हुई हवन की अग्नि को हिलाना – डुलाना या छेड़ना नही चाहिए।

हवन कुण्ड में प्रज्ज्वलित हो रही अग्नि शिखा वाला भाग ही अग्नि देव का मुख कहलाता है। इस भाग पर ही आहुति करने से सर्वकार्य की सिद्धि होती है। अन्यथा

कम जलने वाला भाग नेत्र – यहाँ आहुति डालने पर अंधापन ,

धुँआ वाला भाग नासिका – यहां आहुति डालने से मानसिक कष्ट ,

अंगारा वाला भाग मस्तक – यहां आहुति डालने पर धन नाश तथा काष्ठ वाला भाग अग्नि देव का कर्ण कहलाता है यहां आहुति करने से शरीर में कई प्रकार की व्याधि हो जाती है। हवन अग्नि को पानी डालकर बुझाना नही चाहिए।

विशेष कामना पूर्ति के लिये अलग अलग होम सामग्रियों का प्रयोग भी किया जाता है।

सामान्य हवन सामग्री ये है
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तिल, जौं, चावल ,सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र , पानड़ी , लौंग , बड़ी इलायची , गोला , छुहारे , सर्वोषधि ,नागर मौथा , इन्द्र जौ , कपूर काचरी , आँवला ,गिलोय, जायफल, ब्राह्मी तुलसी किशमिश, बालछड़ , घी आदि ……

हवन समिधाएँ
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कुछ अन्य समिधाओं का भी वाशिष्ठी हवन पद्धति में वर्णन है । उसमें ग्रहों तथा देवताओं के हिसाब से भी कुछ समिधाएँ बताई गई हैं। तथा विभिन्न वृक्षों की समिधाओं के फल भी अलग-अलग कहे गये हैं।

यथा-नोः पालाशीनस्तथा।
खादिरी भूमिपुत्रस्य त्वपामार्गी बुधस्य च॥
गुरौरश्वत्थजा प्रोक्त शक्रस्यौदुम्बरी मता ।
शमीनां तु शनेः प्रोक्त राहर्दूर्वामयी तथा॥
केतोर्दभमयी प्रोक्ताऽन्येषां पालाशवृक्षजा॥

आर्की नाशयते व्याधिं पालाशी सर्वकामदा।
खादिरी त्वर्थलाभायापामार्गी चेष्टादर्शिनी।
प्रजालाभाय चाश्वत्थी स्वर्गायौदुम्बरी भवेत।
शमी शमयते पापं दूर्वा दीर्घायुरेव च ।
कुशाः सर्वार्थकामानां परमं रक्षणं विदुः ।
यथा बाण हारणां कवचं वारकं भवेत ।
तद्वद्दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिका॥
यथा समुत्थितं यन्त्रं यन्त्रेण प्रतिहन्यते ।
तथा समुत्थितं घोरं शीघ्रं शान्त्या प्रशाम्यति॥

अब समित (समिधा) का विचार कहते हैं, सूर्य की समिधा मदार की, चन्द्रमा की पलाश की, मङ्गल की खैर की, बुध की चिड़चिडा की, बृहस्पति की पीपल की, शुक्र की गूलर की, शनि की शमी की, राहु दूर्वा की, और केतु की कुशा की समिधा कही गई है । इनके अतिरिक्त देवताओं के लिए पलाश वृक्ष की समिधा जाननी चाहिए । मदार की समिक्षा रोग को नाश करती है, पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली, पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली, गूलर की स्वर्ग देने वाली, शमी की पाप नाश करने वाली, दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है। जिस प्रकार बाण के प्रहारों को रोकने वाला कवच होता है, उसी प्रकार दैवोपघातों को रोकने वाली शान्ति होती है। जिस प्रकार उठे हुए अस्त्र को अस्त्र से काटा जाता है, उसी प्रकार (नवग्रह) शान्ति से घोर संकट शान्त हो जाते हैं।

ऋतुओं के अनुसार समिधा के लिए इन वृक्षों की लकड़ी विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।

वसन्त-शमी
ग्रीष्म-पीपल
वर्षा-ढाक, बिल्व
शरद-पाकर या आम
हेमन्त-खैर
शिशिर-गूलर, बड़

यह लकड़ियाँ सड़ी घुनी, गन्दे स्थानों पर पड़ी हुई, कीडे़-मकोड़ों से भरी हुई न हों, इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।

विभिन्न हवन सामग्रियाँ और समिधाएं विभिन्न प्रकार के लाभ देती हैं। विभिन्न रोगों से लड़ने की क्षमता देती हैं।

प्राचीन काल में रोगी को स्वस्थ करने हेतु भी विभिन्न हवन होते थे। जिसे वैद्य या चिकित्सक रोगी और रोग की प्रकृति के अनुसार करते थे पर कालांतर में ये यज्ञ या हवन मात्र धर्म से जुड़ कर ही रह गए और इनके अन्य उद्देश्य लोगों द्वारा भुला दिए गये।

सर भारी या दर्द होने पर किस प्रकार हवन से इलाज होता था इस श्लोक से देखिये :-

श्वेता ज्योतिष्मती चैव हरितलं मनःशिला।
गन्धाश्चा गुरुपत्राद्या धूमं मुर्धविरेचनम्।।
(चरक सू* 5/26-27)

अर्थात अपराजिता , मालकांगनी , हरताल, मैनसिल, अगर तथा तेज़पात्र औषधियों को हवन करने से शिरो विरेचन होता है। परन्तु अब ये चिकित्सा पद्धति विलुप्त प्राय हो गयी है।

रोग और उनके नाश के लिए प्रयुक्त होने वाली हवन सामग्री
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१.? सर के रोग, सर दर्द, अवसाद, उत्तेजना, उन्माद मिर्गी आदि के लिए
ब्राह्मी, शंखपुष्पी , जटामांसी, अगर , शहद , कपूर , पीली सरसो

२.? स्त्री रोगों, वात पित्त, लम्बे समय से आ रहे बुखार हेतु बेल, श्योनक, अदरख, जायफल, निर्गुण्डी, कटेरी, गिलोय इलायची, शर्करा, घी, शहद, सेमल, शीशम

३.? पुरुषों को पुष्ट बलिष्ठ करने और पुरुष रोगों हेतु सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , अश्वगंधा , पलाश , कपूर , मखाने, गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र , लौंग , बड़ी इलायची , गोला

४.? पेट एवं लिवर रोग हेतु भृंगराज, आमला , बेल , हरड़, अपामार्ग, गूलर, दूर्वा , गुग्गुल घी , इलायची

५? श्वास रोगों हेतु वन तुलसी, गिलोय, हरड , खैर अपामार्ग, काली मिर्च, अगर तगर, कपूर, दालचीनी, शहद, घी, अश्वगंधा, आक, यूकेलिप्टिस।

हवन में आहुति डालने के बाद क्या करें
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आहुति डालने के बाद तीन प्रकार के क्षेत्रों का विभाजित करने के बाद मध्य भाग में पूर्व आदि दिशाओं की कल्पना करें. इसके बाद आठों दिशाओं की कल्पना करें. आठों दिशाओं के नाम हैं – पूर्व अग्नि, दक्षिण, नीऋति, पश्चिम, वायव्य, उत्तर तथा इशान।

हवन की पूर्णाहुति में ब्राह्मण भोजन
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“”ब्रह्स्पतिसंहिता “” के अनुसार यज्ञ हवन की पूर्णाहुति वस्तु विशेष से कराने पर निम्न संख्या में ब्राह्मण भोजन अवश्य कराना चाहिए।

पान – 5 ब्राह्मण
पक्वान्न – 10 ब्राह्मण
ऋतुफल – 20 ब्राह्मण
सुपारी – 21 ब्राह्मण
नारियल – 100 ब्राह्मण
घृतधारा – 200 ब्राह्मण

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