जाने क्या है पितृपक्ष , अपने पितरो को क्यों देते है जल 

जाने क्या है पितृपक्ष , अपने पितरो को क्यों देते है जल

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श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्क :

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।

सनातन संस्कृति में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमें हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है।
पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है। प्रिय के अतिरेक की अवस्था “प्रेत” है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है। सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।

पिता, पितृ और पूर्वज से हमें अपनी जड़ों का बोध होता है। पितृ जिसे पितर भी कहते हैं। आध्यात्म के अनुसार, एक-स्थूल देह के अंत के बाद दशविधि और त्रयोदश कर्म-सपिण्डन तक दिवंगत आत्मा प्रेत शरीर में होती है। प्रेत यानी देह की अस्थायी व्यवस्था। सुरत अर्थात आत्मा पंचभौतिक देह के त्याग के बाद जिस अस्थायी शरीर को प्राप्त होती है, उसे ही प्रेत शरीर कहते हैं। इस तरह समझें कि एक दैहिक जीवन में बने प्रियजन, प्रियतम व प्रिय वस्तुओं के बिछोह की स्थिति प्रेत है। पंचभौतिक देह के त्याग के पश्चात भी काम, क्रोध लोभ, मोह, अहंकार, तृष्णा और क्षुधा शेष रह जाती है। सपिण्डन के पश्चात वो जब अस्थायी प्रेत शरीर से नए तन में अवतरित होती है, पितृ कहलाती है। आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार, श्राद्धपक्ष पर पूर्वजों को सम्मान देने वाला कर्म तर्पण कहलाता है। वैदिक साहित्य के विस्तार में विशेष रूप से पुराणों में पितृ के मूल एवं प्रकारों के विषय में विशद वर्णन प्राप्त होता है। वायुपुराण में पितृ की तीन स्थितियों का वर्णन हैं। काव्य, बर्हिषद एवं अग्निष्वात्त्। वायु पुराण, वराह पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्मण्ड पुराण ने पितृ के सात तरह के मूल का उल्लेख है, जो सत्रह तत्वों के लिंग शरीर में हैं। जिनमें चार मूर्तिमान् और तीन अमूर्तिमान् हैं। शतातपस्मृति में द्वादश पितृ सहित पिण्डभाज:, लेपभाज:, नान्दीमुखा: एवं अश्रुमुखा: के रहस्य का पता चलता है।
आध्यात्मिक मान्यताएं कहती हैं कि आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक विशिष्ट ब्रह्माण्डिय किरणें धरा का पूर्ण स्पर्श करती हैं और उन किरणों में ही पितृ ऊर्जा समाहित होती है। 16 दिवस के पश्चात शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से पितृ के संग ब्रह्मांडीय किरणें वापस ब्रह्मांड में लौट जाती हैं। इसलिए इस पखवाड़े पितृपक्ष कहते हैं।
श्राद्ध, इस शब्द से मृत व्यक्तियों के लिए किया जाने वाले किसी कर्मकाण्ड का बोध होता है और पितृपक्ष जो सामान्य जन में श्राद्ध के काल के रूप में प्रख्यात है, को मृत व्यक्तियों व पूर्वजों का पखवाड़ा समझ लिया जाता है, कहीं कहीं तो इसे अशुभ काल भी मान लिया जाता है, जो इस पावन कालखण्ड की बेहद त्रुटिपूर्ण व्याख्या है। समय के इस हिस्से में अपार संभावना छुपी हुई हैं। आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार यह तो एक ऐसी अद्भुत बेला है, जिसमें मानव सृष्टि अपने अल्पप्रयास मात्र से ही बृहद और अप्रतिम परिणाम साक्षी बनती है। आध्यात्म के नजरिए से पितृपक्ष रूह और रूहानी यानि आत्मा और आत्मिक उत्कर्ष का वो पुण्यकाल है, जिसमें कम से कम प्रयास से अधिकाधिक फलों की प्राप्ति संभव है। आध्यात्म, इस काल को जीवात्मा के कल्याण यानि मोक्ष के लिये सर्वश्रेष्ठ मानता है। जीवन और मरण के चक्र से परे हो जाने की अवधारणा को मोक्ष कहते हैं।

अपने पूर्वजों की आत्मिक संतुष्टि व शांति और मृत्यु के बाद उनकी निर्बाध अनंत यात्रा के लिए पूर्ण श्रद्धा से अर्पित कामना, प्रार्थना, कर्म और प्रयास को हम श्राद्ध कहते है। इस पक्ष को इसके अदभुत गुणों के कारण ही पितृ और पूर्वजों से संबंध गतिविधियों से जोड़ा गया है।
यह पक्ष सिर्फ मरे हुए लोगों का काल है, यह धारणा सही नहीं है। श्राद्ध दरअसल अपने अस्तित्व से, अपने मूल से रूबरू होने और अपनी जड़ों से जुड़ने, उसे पहचानने और सम्मान देने की एक सामाजिक मिशन, मुहिम या प्रक्रिया का हिस्सा है जो प्राणायाम, योग, व्रत, उपवास, यज्ञ और असहायों की सहायता जैसे अन्य कल्याणकारी सकारात्मक कर्मों और उपक्रमों की तरह है।

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