लता दी भारत की असली कोहिनूर है।

लता दी भारत की असली कोहिनूर है।

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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अलविदा लता दी!

आँखे नम हो जाया करेगी जब आपकी याद आयेगी…

लता भारत की असली कोहिनूर है। अंग्रेज तो बेहुदे पत्थर उठा ले गये। लता ने पराधीन भारत को जगाया और उसे दो हिस्सों में तक्सीम होते हुए निर्निमेष देखा है। उसने अनवरत देश की माटी और बेटे-बेटियों के लिए पंचम स्वर में गीत गाया है। सारे सुरों, असुरों, गंधर्वों, यक्ष, नाग और किन्नरों को भारतीय एक लता पर न्यौछावर है।

आज संयोग ही कहा जायेगा कि जहाँ एक ओर माँ सरस्वति का विसर्जन हो रहा हैं वही दूसरी ओर सरस्वति पुत्री सुरों की देवी लता मंगेकश्वेर जी ने अपना शरीर को त्याग दिया।

जर्मन विद्वान गेटे ने एक बार “अभिज्ञानशाकुंतलम्” की प्रशस्ति में कहा था, यदि मनुष्य कभी चन्द्रलोक का वासी बना तो “शाकुंतलम्” वहाँ अवश्य होगा। मैं सोचता हूँ यदि गेटे सौ साल बाद हिन्दुस्तान को देख पाता तो अपने वक्तव्य को संशोधित करके उसमें लता मंगेशकर का नाम जरूर जोड़ देता।

बड़े गुलाम अली खां साहब लता की गायकी से इतने प्रभावित थे कि उनके मुँह से बरबस निकल पड़ा था ..कम्बख़्त ये कभी बेसुरी नहीं होती!
गुलाम अली की यह दुलार भरी उक्ति लता के अलावा शायद किसी के लिए नहीं फूटी।

महाकवि माघ ने लिखा है, “क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपम् रमणीयतायाः।” बात सही है। सौंदर्य जड़ता में नहीं, गत्यात्मकता में ही संभव है। जल तो तड़ाग और सरिता दोनों में है, लेकिन आकर्षित सरिता का प्रवाही जल करता है, स्थिर तड़ाग का नहीं। पर अफ़सोस ! यदि सामने ताजमहल और लता हों तो उक्त कथन आपको मुतमईन नहीं कर सकता। एक लता ही हैं जो देहरी दीपक की तरह दोनों को आलोकित करती हैं।

महाकवि भी एक सीमा के बाद खुद को दुहराने लगते हैं, सधे हुये कलाकार भी एक समय बाद अपने ही अभिनय के नाना रूपों की तरफ वापस लौटने लगते हैं, लेकिन लता जैसी गायिका के लिए कोई सार्थक प्रतिमान अभी तक आविष्कृत नहीं हुआ है। वह अनवरत पचहत्तर साल से जैसे अपना ही मुकाबला कर रही हैं।

आपको जीवन के जितने रंग चाहिए, चले जाइए लता की बगिया में। चुन लीजिए एक-एक भाव के लिए हज़ारों तराने, जनम से लेकर आख़िरी बेला तक के गीत। मनुष्य की अनुभूति, आवेग और वर्ण कम पड़ जाएंगे, लेकिन लता के यहाँ गीतों की कमी नहीं मिलेगी। विविध रूप, रस और गंध के साथ आपको सब मिल जाएगा।

मैं सोचता हूँ इस अनगढ़ और विशृंखल संसार की रचना करके विधाता बहुत पछताया होगा। फिर उसने भूल सुधार करते हुए लता के कंठ को बड़े मनोयोग से गढ़ा। अपनी सारी रचनात्मक प्रतिभा उसने यहीं खर्च कर दी और पुनः रीत गया।

देश में गांधी और टैगोर की भर्त्सना करने वाले लोग मिल जाएंगे। नास्तिक, आस्तिक और विविध मतावलंबी मिल जाएंगे। लेकिन लता का विरोध करने वाले शायद बड़ी मश़क्कत से मिल पाएँ। लौकिक भारत में समूचे देशवासियों पर इतने लंबे समय तक तो किसी शाहंशाह और सम्राट ने भी हुकूमत नहीं की है।

लता के प्रति मेरी यह अनुरक्ति अतिरंजनापूर्ण हो सकती है, लेकिन मैंने सर्द-कुहरीली रातों में मफलर लपेटे ट्रेन के केबिनमैन को लता का गीत सुनते हुए देखा है। मील-फैक्ट्री में थककर दुहर चुके मज़दूरों को लता के गीत से ताजा होते हुए देखा है। मई-जून की तपती दुपहरी में सड़क पर कोलतार लपेटे मज़दूरों को शीतल होते देखा है। भेड़ चराते चरवाहों और दूध दूहते ग्वालों को लता के गीत पर झूमते हुये देखा है। मंदिरों-मठों को छोड़िए ..कुंभ के मेले में लौंसा पहने नागाओं को लता का गीत सुनकर बेसुध होते पाया है। हिंदुस्तान की सरज़मी और दसों दिशाओ को नापने का मेरे पास एक पैमाना है …लता की आवाज़ !

अल्बरूनी और ह्वेनसांग यदि बाद में आए होते तो लता पर उनका कम अभिनिवेश नहीं होता।

यदि श्रुतियों की रचना बाद में हुई होती तो शताधिक प्रश्नाकुल, रहस्यमयी ऋचाएँ लता के लिए भी अवश्य होतीं। सृष्टि में हज़ारों शिखरों से निकलकर भागती नदियाँ सागर के अंक में विश्रांति पाती हैं। वे बिना भेद-भाव लोगों का उद्धार करती जाती हैं। क्या लता की सुर-सरिता पर यह बात लागू नहीं होती ?

बिना दर्प वाली प्रतिभा ओजहीन होती है। श्रेष्ठ कलाकार को दर्प शोभता है। इसलिए लता में भी दर्प है। और वह दर्प भारतीय जनमानस को सहर्ष स्वीकार है।

मेरे बाप-दादा ने भी लता को सुना और गुनगुनाया है। मैं भी आकंठ डूबा हूँ। असंख्य प्रेमी-प्रेमिकाओं को लता के गीतो नें संकोच सागर से उबारा और उन्हें सलज्ज रहने दिया …क्योंकि लता के गीत लोगों के लिए संकेतार्थ बनते रहे हैं। ऐसी इमदाद तो हमारा हितैषी विधाता भी नहीं करता।

कितने गायक-गायिका लता के साथ दो गीत गाकर अमर हो गये। बहुत लोगों ने लता के आशीर्वाद से अपने सतरंगी सपनों को साकार किया। दो-दो, तीन-तीन पीढ़ियों के कलाकारों, गायकों और संगीत-निर्देशकों ने एक ही लता के साथ काम किया और देदीप्यमान हो गये।

लता के गीत गृहस्थ और परिव्राजक दोनों को समवेत ग्राह्य हैं। वे स्वर्ग और धरती के संधिबिंदु पर गुंजायमान हो रहे हैं।

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