परत पुस्तक तत्कालीन समाज का सत्य है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेन्ट्रल डेस्क
बिहार में सारण प्रमंडल के तीन लाल है। छपरा, सीवान और गोपालगंज। गोपालगंज 02 अक्टूबर 1973 को जिला बना। जिले ने पिछले 50 वर्षों में खूब विकास किया है। एक से बढ़कर एक लाल इसकी धरती से पैदा हुए हैं। इन्हीं में से एक है सर्वेश तिवारी श्रीमुख, आप पेसे से शिक्षक है लेकिन आपकी लेखनी पर मां सरस्वती के असीम कृपा है। आपकी रचित पुस्तक ‘परत’ पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ।
मैं इस पुस्तक पर आत्मवलोकन प्रस्तुत कर रहा हूं। पुस्तक 44 अध्याय में विभाजित होकर 158 पृष्ठों में संकलित है। पुस्तक को हर्फ पब्लिकेशन नईदिल्ली ने प्रकाशित किया है। पुस्तक के आमुख आपने बड़ा न करते हुए ‘दो शब्द’ में कहा है की “परत हमारे युग का सत्य है जिसे जानकर भो कोई जानना नहीं चाहता। एक साहित्यकार जब अपने समय की पीड़ा को महसूस करता है तो वह यूं ही सत्य की परतों को उधेड़ने लगता है। परत इसी सत्य की कथा है क्योंकि सत्य की फितरत है कि वह दूर तक सुनाई दे।
सर्वेश जी ने अपने लेखन के प्रयोजन के बारे में बताया है कि समाज के सारे तथ्यों को यूं ही नकार दिया गया तो हमें भविष्य कभी क्षमा नहीं करेगा और कई प्रकार के प्रश्न पूछेगा। परंतु लिखने का कार्य भी पुरोहित की तरह होता है आय कम होती है पर प्रतिष्ठा अत्यधिक मिलती है शायद आय और प्रतिष्ठा में व्युत्क्रमानुपात केवल पंडिताई में ही बचा हुआ है नहीं तो अन्य क्षेत्रों में प्रतिष्ठा भी उसी को मिलती है जिसकी आय अधिक हो।
पुस्तक पढ़ने के क्रम में अध्याय की कथा अपने टोले-मोहल्ले,आस-पड़ोस की घटना लगती है। समाज में इस समय जो राजनीति एवं लव जिहाद का विष व्याप्त है उसकी गाथा पृष्ठों में संकलित है। पुस्तक एक बार अवश्य पढनी चाहिए।
पुस्तक की कुछ पंक्तियां आपको गुदगुदाती है, उद्वेलित करती है, और नग्न सच्चाई से परिचित भी कराती है।
प्रस्तुत है इसकी वानगी—-
-मनुष्य के अन्दर यदि बड़ा कहलाने का हवस ना हो तो वह विपन्नता में भी मुस्कुरा सकता है। क्योंकि व्यक्ति की अतृप्त इच्छाओं की संख्या बताती है कि बाजार ने उसे किस हद तक मूर्ख बनाया है।
-आधुनिकता,विकास, बौद्धिकता और न जाने किन-किन बड़े शब्दों के बीच धरातल की सच्चाई यही है कि हम अभी भी एक ऐसा समाज नहीं बना सके हैं जहाँ एक दरिद्र पिता बेटी के जन्म लेने पर मुस्कुरा सके। भारत में न्याय से अधिक महंगी वस्तु दूसरी कोई नहीं। कचहरी के भीड़ में कितने ही बुजुर्ग ऐसे होते हैं जो पिछले 15- 20 वर्षों से न्यायालय का चक्कर लगा रहे हैं पर न्याय उनसे बहुत दूर है। क्योंकि मनुष्य जब भागता है तो बड़ा तेज भागता है, दुखों से समाज से, जीवन से, उसे लगता है जैसे उस पार पहुंचते ही सब कुछ बदल जाएगा, दु:ख सुख में बदल जाएंगे,नरक स्वर्ग में बदल जाएगा।
जीवन स्वर्ग हो जाएगा लेकिन इस कचहरी में व्यक्ति हार जाता है लेकिन यह कोर्ट कचहरी कभी नहीं हारता। इसलिए जीवन में प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर पुलिस, कचहरी, डॉक्टर के अस्पताल से अवश्य बचाएं। मृत्यु का भय सबसे प्रबल होता है। व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली हो, मृत्यु को सामने देखते ही उसकी दशा खराब हो जाती है, वह सारा घमंड, सारी लज्जा और समस्त मोह का त्याग कर प्राणों की रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगता है। मृत्यु के भय में आप न जाने क्या-क्या बोल जाते हैं।
– सरकार की कर्मचारियों के लिए एक अघोषित सरकारी नियम है कि किसी व्यक्ति की जिस कार्य के लिए नियुक्ति हुई है वह उस कार्य को नहीं करेगा, उसे छोड़ कर सभी प्रकार के कार्य करेगा। शिक्षक सत्र प्रारम्भ होने के समय शौचालय की जाँच करता है, मई-जून में वोटर लिस्ट बनाता है, जुलाई-अगस्त में चुनाव कराता है, सितंबर-अक्टूबर में पशुगणना करता है, नवम्बर-दिसम्बर में बच्चे पर्व तीज-त्यौहार मनाते है और फरवरी की परीक्षा में बच्चे पास हो जाते है।विभाग को तो छोड़िए लड़के को स्वंय पता नहीं होता की वह कैसे उत्तीर्ण हो गया है। बच्चे को कहते है “बेटा! जब भी भैंस का दूध दूहना हो तो अपने माथे पर के गमछा से उसका पिछवाड़ा झाड़ना पड़ता है समझे ना! यही दुनियादारी है।
-आधुनिकता के नाम पर आज कथित मोबाइल क्रांति ने भारत की बच्चों को ब्लू फिल्म देखने की लत लगाई है। आलम यह है कि लड़कियों के लिए अपनी बहन को छोड़कर प्रत्येक लड़की ‘माल’ है। गर्ल फ्रेंड और ब्याव फ्रेंड और बर्थडे पार्टी हमारे गांवों को आधुनिकता में मिला है। वस्तुत: प्रगतिशीलता इस युग का सबसे बड़ा ढोंग है। प्रगतिशीलता के नाम पर देश की हर स्त्री को नग्न करने की वकालत करता फिल्म शायर कथाकार देश को यह कभी नहीं बताता कि उसकी बेटी को घर से बुर्के में क्यों निकलना पडता है।
स्त्री को साड़ी से बिकनी में लाने वाले महान शोमैन कभी नहीं बता पाए कि उनके जीते जी उनके परिवार की स्त्रियां सिनेमा में क्यों नहीं आई और उनके बेटों से विवाह करने वाली अभिनेत्रियों को फिल्मों से दूर क्यों होना पड़ा। सिनेमा की संवाद सुनने में भले ही अच्छे लगे पर यदि उन पर भरोसा कर लिया जाए तो जीवन नर्क बन जाता है। यह संवाद कुछ हद तक उचित है, क्योंकि मनुष्य दु:खों से अधिक लज्जा से डरता है। लेकिन व्यक्ति जब किसी से आशा न रखें तो वह तिरस्कार के दु:ख से मुक्त हो जाता है।
– नई उम्र का प्रेम बड़ी प्रभावशाली होता है वह अपने आगे किसी अन्य संबंध को फल ने फूलने नहीं देता है। क्योंकि प्रेम और कुछ सिखाए न सिखाए सबसे पहले झूठ बोलना और छल करना सिखा देता है। प्रेम संसार का सबसे तेज नशा है।व्यक्ति जब नशे में हो तो सही राह दिखाने वाले मित्र को भी शत्रु समझता है। आधुनिक प्रेम बच्चों को यही तो सिखाता है,पहले झूठ बोलना,फिर माता-पिता को धोखा देना। क्योंकि उनकी नज़र में तो प्यार के आगे संसार हारता है। परन्तु प्रेम में पराजित लड़कियां सबसे पहले बर्दाश्त करना सीखती है। घर में पिता की छवि पहाड़ जैसी होती है।
वह दुनिया के लिए भले ही महत्वपूर्ण नहीं हो पर अपने बच्चों के लिए नायक होता है। बच्चे मानते हैं कि मेरे पिता हीरो है। पिता जानता है कि वह अपने बच्चों का नायक है, पिता के जीवन में कितनी भी कठिनाइयां क्यों ना हो, वह अपने बच्चों के सामने नहीं रोता, वह बच्चों के सामने नहीं टूटता, वह उनके समक्ष कमजोर दिखाना नहीं चाहता। मनुष्य को लज्जा अपने प्राणों से प्रिय से भी अधिक प्रिय होती है।
– भारत में किसी भी वस्तु की सरकारी बंदी उसका मूल्य बढ़ा देती है।इसकी वानगी हम बिहार में शराबबंदी को देख सकते है।क्योंकि एक-दूसरे को बेहूदा का नाम ही लोकतंत्र है। अपने देश में भीड़ या तो पैसे व शराब के बल पर जुटती है या जाति व अंध धर्म के नाम पर। क्योंकि सत्ता के समक्ष किसी प्रकार का नशा नपुंसक हो जाता है। देश में आरक्षण का पेड़ सत्तर वर्ष पुराना हो गया है परन्तु उसके फल अब भी कुछ सीमित लोग ही ग्रहण कर रहे हैं। दिलचस्प बात यह है की पूरी व्यवस्था में किसी को यह पता नहीं की आरक्षण सफल क्यों नहीं हो पा रहा है। इसके लिए जनता द्वारा किया गया आंदोलन सदैव अल्पकालिक एवं मूक होता है। क्योंकि इस प्रकार की क्रांति हर बार शीघ्रपतन की शिकार हो जाती है।
– भोजपुरिया क्षेत्र में सनातन पर्व गोबर से प्रारंभ होकर गोबर पर ही समाप्त हो जाता है। लोकतंत्र में सबसे महंगी जनता हो गई है। जिसके एक वोट को खरीदने के लिए 5 साल की कमाई न्योछावर करनी पड़ती है। लोकतंत्र का पर्व समाज को तोड़ने के लिए आता है, लोक का पर्व समाज को जोड़ने के लिए। आधुनिक भारत की परंपरा और प्राचीन भारत की परंपरा में यही अंतर है। यह लोकतंत्र तो ठीक उसे नाच की तरह है जिसमें राम और रावण की भूमिका निभाने वाले कलाकार पर्दे के पीछे जाकर साथ में ही बीड़ी पीते हैं। चुनाव की हार बड़ी भयानक होती है वह मृत्यु से भी अधिक कष्ट देती है।
चुनाव हारने का दु:ख नेता से अधिक समर्थकों को होता है। लोकतंत्र में चुनाव क्षेत्र के आरक्षित हो जाने से मंदी आ जाती है, वोट का रेट गिर जाता है। अपने से छोटे को कष्ट देना हर सजीव का लक्षण है। मनुष्य ही नहीं इस सृष्टि का हर जीव अपने से कमजोर को दु:ख देता है। पेड़ पौधे तक अपने से छोटे पौधे को अपनी छाया में उपजने नहीं देते,क्योंकि अमीरी कब्र पर उपजी गरीबों की घास तनिक कड़वी भर होती है, पर गरीबों के पेड़ पर खिला अमीरी का फूल बड़ा जहरीला होता है।
– मनुष्य अन्य मनुष्यों या जीवन के समक्ष कितना भी शक्तिशाली बन जाए, जीवन के समक्ष सदैव भीगी बिल्ली बना रहता है। जीवन उसे जिस ताल पर चाहे नचा देता है। मनुष्य जीवन से लड़ने और जीतने की जितने भी दावे कर ले पर सच यही है कि वह प्रत्येक कदम पर जीवन से पराजित होता है और उससे समझौता कर लेता है। वह जिसे अपनी जीत कहता है, वह वस्तुतः उसकी नहीं,जीवन की ही जीत होती है।
स्वंय के साथ छल करने वाला मनुष्य अपनी पराजय के लिए तो जीवन और परिस्थितियों को दोषी मानता है, पर अपनी कथित जीत के पीछे जीवन के योगदान को स्वीकार नहीं करता। मनुष्य की सुंदरता उसके समय पर आधारित होती है। समय सुंदर हो तो व्यक्ति भी सुंदर लगता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में दो चीज मिलती हैं पहला प्यार, दूसरा समय, परंतु समय किसी का नहीं होता और प्यार हर किसी का नहीं होता।
– गांव देहात लोक बाग परंपरा समाज भारत की बहती हुई धारा का नाम है। युगों से बहती आ रही यह नदी आधुनिकता के नाम पर बांध दिए गए तमाम बन्धनों के बाद भी बह रही है। सत्ता के लिए समाज के नियम कभी मूल्यवान नहीं रहे पर लोक ने अपनी रक्षा के लिए नियम बनाए थे और लोग आज भी उसे मानता है। क्योंकि घर पुरुष के बनाने से नहीं बनता घर स्त्री बनती है। वह स्वप्न देखती है उसे पूरा करती है, पुरुष उसे स्वप्न को पूरा करने के लिए साधन इकट्ठा करता है और तब स्त्री अपने हाथों से घर को गढती है तभी घर,घर कहलाता है।
पुरुष सामाजिक प्रतिष्ठा का लोभी होता है वह उसे पाने का सपना देखा है।स्त्री घर बनाती है उसी में जीती है उसी के लिए जीती है। विश्व के लिए विवाहित प्रक्रिया है, हमारे लिए विवाह पूर्ण होने का माध्यम। विवाह व्यक्ति को परिवार बनाता है विवाह सृष्टि को सृष्टिकर्ता होने का नैतिक आधार देता है। विवाह इस सृष्टि की सबसे पवित्र परंपरा है।
सृष्टि के प्रारंभ से पृथ्वी पर अनेक सभ्यताएं बसी और नष्ट हुई पर सब में एक समानता रही की विवाह की परंपरा प्रत्येक सभ्यता में निभाई गई। मनुष्य के द्वारा बनाई गई यह एकमात्र परंपरा है जो प्रत्येक देश, प्रत्येक सभ्यता में विद्यमान है। घर में पिता केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं होता कि वह पिता है, पिता इसलिए भी महत्वपूर्ण होता है क्योंकि उसे जीवन का अनुभव बच्चों से अधिक होता है। जीवन केवल प्रेम के बल पर नहीं जिता जा सकता।
जीवन जीने के लिए घर की जरूरत होती है वह घर जहां सुख हो, जहां स्नेहा हो, जहां धर्म हो, जहां समर्पण हो, क्योंकि धर्म भारत की शक्ति है, धर्म के कारण ही भारत आज बचा हुआ है नहीं तो उसके बाद जन्मी असंख्य सभ्यताएं कब की समाप्त हो गई और उनका स्थान बर्बरता नहीं ले लिया। प्रत्येक युग के अपनी पीड़ा होती है, हर युग की अपनी समस्या होती है।भारत हर बार अपनी पीड़ा को जीतकर बाहर निकाला है और इस बार भी जो समस्या उसके समक्ष में आई है उसे भी मात कर करके वह निकलेगा। भारत का गांव फिर से अपनी समस्याओं का हल जरूर निकाल लेगा।
और अतत:
“सत्यमेव जयते नानृतम् सतयेन पनथा विततो देवयान:।”
- यह भी पढ़े………………
- बिहार में शिक्षक सोशल मीडिया पर पोस्ट करने से पहले हजार बार सोचें,क्यों?
- डॉलरीकरण किसी अर्थव्यवस्था को कैसे बचा सकता है
- महासागरों के तापमान में वृद्धि के क्या कारण है?