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LGBTQIA+: क्या हैभारत में इस आंदोलन की समयरेखा ? - श्रीनारद मीडिया

LGBTQIA+: क्या हैभारत में इस आंदोलन की समयरेखा ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

LGBTQAI+ लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स और एसेक्सुअल और अन्य लोगों को संबोधित करता है। ये ऐसे लोग होते हैं जिनमें सीसजेंडर विषमलैंगिक “आदर्शों” की अनुपस्थिति होती है। उन्हें सांस्कृतिक रूप से या तो “न पुरुष, न ही महिला” या एक महिला की तरह व्यवहार करने वाले पुरुषों के रूप में परिभाषित किया जाता है। वर्तमान में उन्हें थर्ड जेंडर भी कहा जाता है।

LGBT एक संयुक्त नाम है जो लैस्बियन, गे, बायसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर को मिलाकर बना है। वैसे तो इनके अलावा भी कुछ उपनाम हैं, लेकिन मोटे तौर पर इन्हें समझना भी काफी है। समलैंगिकता का अस्तित्व सभी संस्कृतियों और देशों में पाया गया है, यद्यपि कुछ देशों की सरकारें इस बात का खण्डन करती है।

दरअसल इंसानी तौर पर हम विपरीत आकर्षण को सामान्य मानते हैं बाकी को असामान्य… जैसे पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण और स्त्री का पुरुष के प्रति आकर्षण एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन इसके अलावा भी आकर्षण कई रूपों में हो सकता है, जिसे हम असामान्य करार देकर कई अलग-अलग कैटेगिरी में डिवाइड करते हैं।

इसमें स्त्री का स्त्री के प्रति आकर्ष‍ित होना लैस्बियन कैटेगिरी में, जबकि पुरुष का पुरुष के प्रति आकर्षित होना गे कैटेगिरी में आता है। वहीं ऐसे लोग जो महिला एवं पुरुष दोनों की ओर आकर्षित होते हैं, इन्हें बायसेक्सुअल कहा जाता है।

कुछ लोग इस समुदाय के ऐसे भी हैं जो मेडिकल सांइस की मदद से सर्जरी द्वारा सेक्स चेंज करवा लेते हैं, इन लोगों को ट्रांसजेंडर कहा जाता है। इस तरह के लोगों में मन और शरीर दो धड़ों में बंटा होता है क्योंकि ये मन से वैसा महसूस नहीं करते जैसा इनका शरीर है। उदाहरण के लिए पुरुष होते हुए भी ये महिलाओं की तरह महसूस करते हैं या महिला होते हुए पुरुष की तरह। लेकिन भारत में इस पूरे समुदाय के लिए एक ही शब्द प्रयोग किया जाता है… हिजड़ा या किन्नर।

भारत में LGBTQIA+ आंदोलन की समयरेखा

  • 1860 में ब्रिटिश शासन के दौरान, समलैंगिक संभोग को अप्राकृतिक माना जाता था और इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के अध्याय 16, धारा 377 के तहत एक आपराधिक कृत्य घोषित किया गया था।
  • स्वतंत्रता के बाद, 26 नवंबर, 1949 को, समानता का अधिकार अनुच्छेद 14 के तहत लागू किया गया था लेकिन समलैंगिकता अभी भी एक आपराधिक कृत्य बना हुआ है।
  • दशकों बाद, 11 अगस्त 1992 को समलैंगिक अधिकारों के लिए पहला ज्ञात विरोध हुआ।
  • 1999 में, कोलकाता ने भारत की पहली गे प्राइड परेड की मेजबानी की। इसमें केवल 15 लोग उपस्थित थे, इन्हीं लोगों के साथ परेड का नाम कलकत्ता रेनबो प्राइड रखा गया।
  • 2009 में, नाज़ फाउंडेशन बनाम दिल्ली सरकार मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक निर्णय आया कि वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक संबंध को अपराध मानना भारत के संविधान द्वारा संरक्षित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
  • 2013 में सुरेश कुमार कौशल और अन्य बनाम नाज़ फाउंडेशन और अन्य मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को पलट दिया जो उसने नाज़ फाउंडेशन बनाम दिल्ली सरकार मामले में सुनाया था और भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को बहाल कर दिया।
  • 2015 के अंत में, सांसद शशि थरूर ने समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने के लिए एक विधेयक पेश किया लेकिन इसे लोकसभा ने खारिज कर दिया।
  • अगस्त 2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक पुट्टुस्वामी फैसले में निजता के अधिकार को संविधान के तहत मौलिक अधिकार के रूप में बरकरार रखा। इससे एलजीबीटी कार्यकर्ताओं में नई उम्मीद जगी।
  • 6 सितंबर, 2018 को, सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि धारा 377 असंवैधानिक थी “जहां तक यह समान लिंग के वयस्कों के बीच सहमति से यौन आचरण को अपराधी बनाता है”।
  • धारा 377 के खिलाफ लड़ाई खत्म हो गई है लेकिन एलजीबीटी समुदाय के लिए समान अधिकारों की बड़ी लड़ाई अभी भी जारी है।
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