बिहार में सीवान के लाल खुदा बख्श खां की पुस्तकालय!

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

1757 का पलासी, 1764 का बक्सर और 1857 के विद्रोह से मुगलिया सल्तनत पूरी तरह छितिर -वितीर हो गया। शिराजे की तरह बिखर गया।

मुगलों की विरासत कई मामलों में बेहद कल्चर्ड थी। पर्शियन(फारसी) उनकी ऑफिशियल लैंग्वेज थी। अरबी, उर्दू, संस्कृत और हिंदवी बाद में सल्तनत के रिकॉर्ड पर आई। एक तरफ से देखें तो बहु-भाषा की दरियादिल मुगलों की विरासत में थी। इस्लाम अपने चरित्र में एकेशरवादी (monotheistic) जरूर रहा। लेकिन मुगल अपने चरित्र में Federal Monarch थे.
मुगलों की सांस्कृतिक विरासत बहुत समृद्ध थी। उसमे बड़े पैमाने पर ऐतिहासिक महत्व की पर्शियन और अन्य भाषाओं के पांडुलिपि(Manuscripts) पेंटिंग्स संरक्षित थे

कंपनी राज को वह विरासत मुफ्त में मिला। जो बाद के दिनों में ब्रिटिश लाइब्रेरी और म्यूजियम का हिस्सा बना.

जो ले जा नही सके, कंपनी राज ने उन मनुस्क्रिप्ट्स का देश भर में बाज़ार लगाए और बोली लगाकर बेच दिया। कई मुल्कों के ट्रैवलर्स, स्कॉलर्स आदि ने खरीदा।

अपने देश में दो लोग ऐसे हुए जो सल्तनत के उस भाषिक और सांस्कृतिक पूंजी को खरीदने के लिए आगे आए। उनमें एक धन से सक्षम, रामपुर के नवाब साहब हुए। उस विरासत को रामपुर के रजा लाइब्रेरी के नाम से जानते है।

एक दूसरे व्यक्ति भी थे – मौलवी मोहम्मद बक्श (1815 -1876)। सिवान जिले के ऊखई (पूरब हाता) में जन्मे मौलवी साहब की रामपुर के नवाब साहब के सामने औकात तो नही थी। लेकिन मनुस्क्रिप्ट्स खरीदने, खोजने , पढ़ने और उसे करीने से संभालकर रखने का गजब का जुनून और शौक था।

यह जन्मजात मेरिट उन्हे कहां से और कैसे मिली,कहना मुश्किल है.

मौलवी साहब अपने समय के इस्लामिक स्कॉलर थे। इस नाते उन्हें जागीरदारी प्रथा के तहत टैक्स – फ्री जमीनें मिली थी। जहां वर्नाकुलर स्कूल आदि चलते थे। तब, सीवान, अलीगंज था। 1848 में सिवान सारण जिले का सबडिविजन बना।

मौलवी साहब के बेटे खुदा बक्श (1842 – 1908) का जन्म सिवान के उखई गांव में हुआ। बेटे के जन्म के बाद मौलवी साहब , परिवार को लेकर बांकीपुर (पटना) में शिफ्ट हो गए।

पर्शियन, अरबी – उर्दू के अच्छे जानकार थे। मशक्कत कर मौलवी साहब पटना में काबिल पेशकार बन गए। तब, अंग्रेजी राज के कोर्ट – कचहरियों की भाषा पर्शियन हुआ करती थीं।

मौलवी साहब मनुस्क्रिप्ट्स संग्रह के राह – ए – जुनून में 1400 रेयर मनुस्क्रिप्ट्स जमा कर लिए। उसे अपने बनाए कुतुबखाने में करीने से संभालते रहे।

कहते है की मौलवी साहब खुदा के प्यारे होने से पहले मनुस्क्रिप्ट्स की जमा पूंजी अपने बेटे खुदा बक्श को सौंपते हुए मौखिक वसीयत कर गए कि हमारी इस निजी जमा पूंजी में दिन – दूनी – रात चौगुनी इजाफा कर पटना के पब्लिक को सौंप देना… तभी मेरी रूह को जन्नत नसीब होगी।

पिता के सानिध्य में खुदा बक्श की शिक्षा – दीक्षा पटना और कोलकाता में हुई। पढ़ाई पूरी कर वे पहले सरकारी पेशकार बने। फिर वकालत करने लगे।

26 साल की उम्र में खुदा बक्श पटना के चर्चित वकील और प्रभावशाली व्यक्ति बन चुके थे। उनके काबिलियत का अंदाजा इससे लगता है कि पटना म्युनिस्पैलिटी वे पहले चेयरमैन बने. पटना मे सेल्फ गवर्नमेंट की बुनियाद आपने ही रखी.

इन सबके बीच पिता से मिले मनुस्क्रिप्ट्स संग्रह की विरासत, उनके नैसर्गिक प्रवृति का हिस्सा बन चुका था।

खुदा बक्श अपने पिता के काबिल बेटे निकले। पिता से मिली मनुस्क्रिप्ट्स की विरासत में चार गुना से भी अधिक इजाफा किए।

बाद में जमापूंजी जोड़कर पिता के कुतुबखाने को विस्तार देने में जी – जान से लगे रहे। आज से लगभग सौ डेढ़ सौ साल पहले 80,000 रुपए खर्च कर ओरियंटल पब्लिक लाइब्रेरी की नींव और उसके लिए भवन बनवाए।

फिर ऐसा समय आया की उस विरासत को संभालना उनके लिए कठिन होने लगा।

तब, उन्होंने ओरियंटल पब्लिक लाइब्रेरी के नाम से ट्रस्ट – डीड बनाए और बंगाल के गवर्नर को सौंप दिए। गवर्नर सर चार्ल्स इलियट के आदेश से 1891 में बांकीपुर ओरियेंटल लाइब्रेरी खुली। गवर्नर साहब कोलकाता से स्वयं उद्धघाटन करने के लिए पटना आए ।

आजादी के बाद भारत सरकार ने लाइब्रेरी को ‘ राष्ट्रीय महत्व ‘ की विरासत घोषित किया। पार्लियामेंट में 1969 में ‘मौलवी खुदा बक्श पब्लिक ओरियंटल लाइब्रेरी’ के नाम से एक्ट पास हुआ।

आज यह लाइब्रेरी इस्लामिक कल्चर एंड सिविलाइजेशन के अध्ययन के लिए ईस्ट एशिया की प्रमुख लाइब्रेरियों में शामिल है। दुनियाभर के इस्लामिक और अन्य स्कॉलर के लिए लाइब्रेरी तीर्थ की तरह है।

लाइब्रेरी में पर्शियन,अरबी और पश्तो में लगभग 20 हजार से अधिक रेयर मनुस्क्रिप्ट्स है. उनमे कुछ ऐसे भी मनुस्क्रिप्ट्स है, जो केवल इसी लाईब्रेरी में है.

कई रेयर मनुस्क्रिप्ट्स ऐसे है, जिन्हे देखना ही रोमांचित करता है। मसलन, उर्दू में भागवत गीता, तवारिख – ए – तैमुरिया ( मुगलों का खानदानी इतिहास), जहांगीर का शाहनामा, हुमायूं और जहांगीर का फरमानों पर किए गए दस्तखत..!

लाइब्रेरी में दो – ढाई लाख से अधिक प्रिंटेड किताबें है। दिलचस्प रूप से उनमें पर्शियन, अरबी, उर्दू, हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, पंजाबी, फ्रेंच, रशियन, जर्मन, जापानी और पश्तो भाषाओं की किताबें शामिल है।

लाइब्रेरी के विरासत को संभालने और आगे ले जाने में खुदा बक्श के बेटे सलाउद्दीन खुदा बक्श (1875 – 1934) का भी बड़ा योगदान है। सलाउद्दीन साहब ऑक्सफोर्ड से पढ़े – लिखे थे। उनकी गिनती जहीन विद्वानों में होती थी। उनकी कई किताबें इस्लामिक वर्ल्ड के धरोहर है।

#खुदा_बक्श_लाइब्रेरी होने का मतलब

19वी और 20वी सदी का बड़ा हिस्सा खुदा बक्श लाइब्रेरी बनने और निखरकर गौरव हासिल करने में लगा है।

खुदा बक्श साहब चार सालों के लिए हैरदबाद में चीफ जस्टिस बने। उन चार सालों के लिए उन्होंने सचिदानंद सिन्हा साहब को लाइब्रेरी का मानद सचिव बनाए थे।

सिन्हा साहब अपने संस्मरणों में खुदा बक्श और उनके बेटे सलाउद्दीन खुदा बक्श को याद किया है. सिंहा साहब ने खुदा बक्श साहब दरियादिली, और उस दौर के बिहारी इंटेलिजेंसियां को जिस तरह से याद किया है, उससे दो बातें निकल कर आती है।

उनमें एक यह कि बंगाल से बिहार को अलग प्रांत बनाने के लिए खुदाबक्श लाइब्रेरी में जुटान की अहम भूमिका थी।

दूसरा यह कि खुदा बक्श की विरासत इस मिथक को तोड़ने में सफल हुआ की इंटेलिजेंसिया की धरती केवल बंगाल ही नहीं है। इस मामले में बिहार और बिहारी भी कमतर हैसियत नहीं रखते है।

सिन्हा साहब खुदा बख्श से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने स्वयं पटना में लाइब्रेरी खोले। डाॅ० काशी प्रसाद जायसवाल ने शोध संस्थान खोले। जहां से डार्क में पड़े प्राचीन भारत के इतिहास खोज निकाले गए।

हाल के दिनों में पीएम मोदी के पहल पर भारत सरकार के सांस्कृतिक मंत्रालय ने राष्ट्रीय महत्व की लाइब्रेरियों को डिजिटलाइजेशन की प्रक्रिया शुरू की है। प्रथम चरण में जिन सात लाइब्रेरियों को शामिल किया गया है। उनमें पटना का खुदा बक्श लाइब्रेरी प्रमुख है।

#मौलवी_साहब कौन जात??

बड़ा अटपटा सवाल है। लेकिन है बड़ा वाजिब। सिवान जिले का उखई कोयरियों का बड़ा गांव है। उखई (पूरब हाता) में शाह (साई), शेख और अंसारी आदि मुस्लिम जातियां रहती है। मजा यह की मौलवी साहब के गांव उखई में उनसे जुड़ी कोई निशानी नहीं बची है। अलबते शेख भाई लोग दावा करते है की मौलवी मोहम्मद बक्श, शेख जाति के थे। दूसरी तरह शाह (साई) भाइयों का दावा है की वह साई थे। इस दावे प्रति – दावे के बीच मौलवी साहब की विरासत उनके गांव में बिखर कर गुम हो गई है।

बहरहाल, बिहारी मौलवी साहब को सैलूट करते हुए अपनी ओर से जरूर कहना चाहूंगा की मौलवी मोहम्मद बक्श और उनके काबिल बेटे खुदा बक्श चमकते हुए, ऐसे शीशे की तरह थे.. जो टूटकर भी खनक छोड़ गए।

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