अफगानिस्तान की तरह वियतनाम से भी 19 साल बाद भागा था अमेरिका,क्या यह इसकी आदत हैं?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
आप या तो हमारे साथ या हमारे खिलाफ हैं…।” 9/11 के भीषण आतंकी हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने 21 सितंबर 2001 को यह बयान दिया और इसके ठीक 15 दिन बाद अमेरिकी विमानों ने अफगानिस्तान में बम बरसाने शुरू कर दिए। आज करीब 20 बरस बाद वही अमेरिका अफगानिस्तान से भाग खड़ा हुआ है। काबुल समेत तकरीबन पूरा अफगानिस्तान फिर से उसी तालिबान के कब्जे में है, जिसके खिलाफ इस महाशक्ति ने War on terror यानी आतंक के खिलाफ जंग छेड़ी थी।
अमेरिका के इस फैसले से आम अफगानी इस कदर बेचैन है कि वो अपने ही देश से भागने के लिए उड़ते हवाई जहाज के लैंडिंग गियर में बैठकर जान गंवाने से भी नहीं चूक रहा।
खासबात यह है कि अमेरिका की फैलाई ऐसी अफरातफरी न पहली बार है और न अफगानिस्तान इसका शिकार बनने वाला पहला देश। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कम से कम चार बड़े मौकों पर अमेरिका चार देशों से इसी तरह निकल चुका है।
1. वियतनाम: लगातार 19 साल लड़ने के बाद देश छोड़कर चला गया था अमेरिका
- अमेरिका के पीछे हटने के मामलों में सबसे ज्यादा चर्चित है वियतनाम का किस्सा। अफगानिस्तान से पांच गुना सैनिक और 19 साल की भीषण बमबारी के बावजूद अमेरिका कम्युनिस्ट उत्तरी वियतनाम को झुका नहीं सका।
- घरेलू दबाव के आगे 1969 में राष्ट्रपति बने रिचर्ड निक्सन ने वियतनाम से बाहर निकलने का मन बना लिया। जनवरी 1973 में पेरिस में अमेरिका, उत्तरी वियतनाम और दक्षिण वियतनाम और वियतकॉन्ग के बीच शांति समझौत हुआ।।
- दरअसल, इस समझौते की आड़ में अमेरिका वियतनाम से अपनी सेना हटाना चाहता था। इसके बाद वियतनाम में भी वही हुआ जो आज अफगानिस्तान में हो रहा है।
- अमेरिकी फौज के पूरी तरह निकलने से पहले ही 29 मार्च 1973 को उत्तरी वियतनाम ने दक्षिणी वियतनाम पर हमला बोल दिया।
- दो साल बाद 30 अप्रैल 1975 को कम्युनिस्ट वियतनाम की फौज साइगॉन में घुस गई और वहां बचे हुए अमेरिकियों को आनन-फानन में भागना पड़ा।
- साइगॉन को आज एकीकृत वियतनाम की राजधानी हो-ची-मिन सिटी के नाम से जाना जाता है। हो-ची-मिन कम्युनिस्ट वियतनाम के सबसे बड़े नेता थे।
- वियतनाम युद्ध की शुरुआत 1955 से मानी जाती है। 1954 में जिनेवा समझौते के तहत उत्तर और दक्षिणी वियतनाम की स्थापना हुई थी। वहां एकीकृत वियतनाम के लिए दो साल चुनाव होने थे, जो कभी हो नहीं सके।
- कम्युनिस्ट उत्तरी वियतनाम की अगुवाई हो-ची-मिन कर रहे थे, तो दक्षिण वियतनाम की कमान कैथोलिक राष्ट्रवादी नगो दीन्ह दीम के पास थी।
- 1955 उत्तरी वियतनाम ने दक्षिण के खिलाफ सैन्य जमावड़ा शुरू किया तो अमेरिका ने कम्युनिस्म को फैलने से रोकने के लिए सैन्य टुकड़ियां भेजना शुरू कर दीं।
- 1967 आते-आते वियतनाम में अमेरिकी फौजियों की संख्या 5 लाख तक पहुंच गई थी।
2. क्यूबा: बुरी तरह मात खाई, अपने भेजे लड़ाकों को ऐन मौके पर वायुसेना की मदद देने से मुकरा
- जनवरी 1959 को कम्युनिस्ट क्रांतिकारी फीदेल कास्त्रो ने क्यूबा के तानाशाह फुलगेन्सियो बतिस्ता की सत्ता उखाड़ फेंकी।
- नई कम्युनिस्ट सरकार ने क्यूबा में निजी प्रापर्टी को जब्त करना शुरू कर दिया। इनमें ज्यादातर उत्तरी अमेरिकियों की थी।
- कास्त्रो ने लैटिन अमेरिका के कई देशों में कम्युनिस्ट क्रांति को हवा देना शुरू कर दी। वो खुलकर अमेरिका के खिलाफ भी बोलने लगे।
- ऐसे हालात में जनवरी 1961 में अमेरिका ने क्यूबा से कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए।
- इससे पहले ही राष्ट्रपति आइजनहावर ने CIA को कास्त्रो का तख्ता पलटने के लिए क्यूबा के भागे लोगों को ट्रेनिंग और हथियार देने की अनुमति दे दी।
- 15 अप्रैल 1961 अमेरिका में तीन विमानों ने क्यूबा के एयरबेस पर बमबारी की। इन विमानों को क्यूबाई पायलट उड़ा रहे थे।
- 17 अप्रैल 1961 को अमेरिकी हथियारों, ट्रेनिंग और जरूरत पड़ने पर हवाई मदद के वादे के साथ 1200 से ज्यादा क्यूबाई लड़ाकों ने क्यूबा के पिग्स की खाड़ी (Bay of pigs) के रास्ते क्यूबा पर हमला कर दिया।
- कास्त्रो को पहले ही इस हमले की जानकारी मिल चुकी थी। क्यूबा की वायुसेना ने हमलावरों की ज्यादातर नावों को डुबा दिया।
- आइजनहावर के बाद राष्ट्रपति बने जॉन एफ कैनेडी वादे के मुताबिक ऐन मौके पर हवाई मदद देने से मुकर गए।
- आखिरकार कुछ ही घंटों में 100 से ज्यादा हमलावर मारे गए। करीब 1,100 को पकड़ लिया गया।
- इस घटना के बाद ही सोवियत संघ ने क्यूबा में परमाणु मिसाइल तैनात कर दी थी। भनक लगते ही अमेरिकी नौसेना ने क्यूबा की घेराबंद कर दी।
- अमेरिका ने सोवियत मिसाइल न हटाने पर परमाणु युद्ध की धमकी दे दी। दोनों देश परमाणु युद्ध की कगार पर आ खड़े हुए।
- ऐन मौके सोवियत संघ मिसाइल हटाने को राजी हो गया और संकट टल गया। इसे क्यूबन मिसाइल संकट कहा जाता है।
3. सोमालिया: मानवीय मिशन छोड़कर चला गया था अमेरिका
- जनवरी 1991 में अफ्रीकी देश सोमालिया में कई विरोधी कबीलों की मिलिशिया, यानी सशस्र विद्रोही गुटों ने राष्ट्रपति मोहम्मद सियाद बरे का तख्ता पलट दिया।
- सोमालिया की राष्ट्रीय सेना के सैनिक अपने-अपने कबीलों के सशस्त्र गुटों में शामिल हो गए। पूरे सोमालिया में सत्ता हथियाने के लिए गृह युद्ध छिड़ गया।
- राजधानी मोगादीशू में मुख्य विद्रोही गुट यूनाइटेड सोमालिया कांग्रेस भी दो गुटों बंट गया था। इनमें एक गुट का नेता अली मेहदी मुहम्मद राष्ट्रपति बन गया। दूसरे गुट को मोहम्मद फराह अदीदी चला रहा था।
- मानवीय संकट बढ़ने पर यूनाइटेड नेशन्स ऑपरेशन इन सोमालिया-2 (UNOSOM-2) के तहत आम लोगों को खाने-पीने और डॉक्टरी मदद शुरू की गई, मगर अदीदी का गुट इसमें आड़े आ रहा था।
- ऐसे में अमेरिका ने 3 अक्टूबर को मोगादीशू में एक घर से अदीदी के दो करीबी साथियों को पकड़ने के लिए सेना की टास्क फोर्स भेजी।
- यह हमला अमेरिका के लिए बड़ा मुसीबत बन गया। मिशन के दौरान विद्रोहियों ने अमेरिकी सेना के दो ब्लैक हॉक हेलिकाप्टर मार गिराए।
- अभियान के दौरान 19 अमेरिकी सैनिक भी मारे गए। करीब 73 घायल हो गए। एक को विद्रोहियों ने पकड़ लिया। उसे 11 दिनों बाद बहुत मुश्किल से छुड़ाया गया।
- मारे गए अमेरिकी सैनिकों और पायलटों के शवों को विद्रोहियों की भीड़ ने सड़कों पर घसीटा। इन सभी क्रूर नजारों की रिकॉर्डिंग अमेरिकी TV पर प्रसारित हुई।
- पूरी रात चली लड़ाई के बाद सुबह संयुक्त राष्ट्र मिशन के तहत वहां तैनात पाकिस्तानी सेना ने अमेरिकी सैनिकों को वहां से निकाला।
- अमेरिका सोमालिया में मानवीय मदद के पूरे मिशन से पीछे हट गया। उसने अपने सभी सैनिक वापस बुला लिए। इसके चलते संयुक्त राष्ट्र का मानवीय सहायता का मिशन काफी हद तक आम लोगों को राहत नहीं पहुंचा सका।
- अल कायदा के प्रमुख ओसामा बिन लादेन ने भी अमेरिका के भागने पर जमकर तंज किया और अमेरिकी फौजियों को डरपोक बताया। इसके बाद 1994 में रवांडा में हुए नरसंहार में अमेरिका चुप रहा।
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