साहित्य किसी समाज की विचार-परंपरा का वाहक होता है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारतीय लोकतंत्र में महज बहुमत प्राप्ति के उद्देश्य से विभिन्न दलों व संगठनों के प्रतिनिधियों द्वारा एक दूसरे पर अनीतिपूर्ण दोषारोपण आम बात है। इसी कड़ी में यदा कदा जिस तरह की अनर्गल टिपण्णी और उस पर जवाबी प्रतिक्रिया क्रमशः अनायास व सुनियोजित रूप से कर दी जाती है, उससे पारस्परिक मतभेदों में इजाफा होता है। इस आपसी वैमनस्यता से हर किसी का चिंतित होना स्वाभाविक है।
दरअसल, विविधतापूर्ण भारतीय परिवेश में जिस तरह के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, साम्प्रदायिक व धार्मिक समन्वय की दरकार है, उससे हमारा संविधान कोसों दूर है। क्योंकि यह पुरातन भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों से कम और आधुनिक पाश्चात्य दर्शन से ज्यादा प्रभावित है।समय समय पर इसमें किये गए लक्षित संशोधनों से वैचारिक व नीतिगत विरोधाभास और बढ़ा है।
इन सबकी भरपाई के लिए अक्सर उठने वाली समान नागरिक संहिता बनाने की मांग भी नक्कारखाने में तूती की आवाज की मानिंद दबकर रह गई है। इन सब बातों का नकारात्मक असर हमारे साहित्य सृजन व विचार प्रवाह पर भी दिखाई पड़ रहा है। भारतीय पत्रकारिता और सिनेमा जगत भी कतिपय टुच्ची सोच से आक्रांत हो चुका है।
ऐसे भेदभावमूलक माहौल में बहुमत के जुगाड़ के मद्देनजर विधायिका यानी राजनेताओं की मजबूरी तो समझ में आती है। लेकिन व्यापक राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं मानवीय मूल्यों के दृष्टिगत इन्हें नियंत्रित रखने के लिए सिविल प्रशासन, न्यायिक प्रशासन, मीडिया प्रबंधन, सिविल सोसाइटी और अन्य तमाम तरह के पेशेवरों की उदासीनता हमारी समझ से भी परे है।
आखिरकार ऐसे लोगों के समक्ष राजनेताओं के अंधानुकरण की क्या मजबूरियां है, यह चिंता से ज्यादा चिंतन का विषय है। हमारे प्रबुद्ध वर्ग में जातीय, साम्प्रदायिक, क्षेत्रीय या वर्गीय सोच का घर करते जाना किसी वैचारिक महामारी का द्योतक है। यथा राजा, तथा प्रजा की राजतंत्रीय सोच यदि आधुनिक लोकतंत्र में भी विद्यमान रहेगी तो समझा जा सकता है कि आने वाला वक्त कितना कठिन होगा।
कहना न होगा कि यदि स्थापित मानवीय मूल्यों को भी अल्पमत या बहुमत के चश्मे से देखा जाएगा तो देर सबेर प्राणी जगत पर भी अस्तित्व का खतरा मंडराने लगेगा। नीतिगत उलटबांसी से पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन भी गड़बड़ा जाएगा। यही वजह है कि गत दिनों उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडु ने दो टूक कहा दिया कि परिवर्तनशील समाज के बदलते सरोकारों पर प्रबुद्ध वर्ग की टिप्पणी स्वाभाविक है और जरूरी भी तथा साहित्यिक लेखन में भी यह बदलाव दिखना चाहिए।
लेकिन शब्दों के शिल्पकार लेखकों या वक्ताओं से यह अपेक्षित है कि उनकी टिप्पणी समाज में सौहार्दपूर्ण बौद्धिक विमर्श शुरू करे, न कि अनावश्यक विवाद। उन्होंने आगाह भी किया कि यदि हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की आज़ादी दी गई है तो ये भी अपेक्षित है कि हम उस आज़ादी का उपयोग जिम्मेदारी से करें, किसी की आस्था या संवेदना को आहत करने के लिए नहीं।
इस आजादी का प्रयोग, शब्दों की मर्यादा और भाषा के संस्कारों के अनुशासन में रह कर भी किया जा सकता है। क्योंकि एक सभ्य समाज की सुसंस्कृत भाषा से यही अपेक्षित है।
दरअसल, साहित्यकार, लेखक, विचारक, राष्ट्र की बौद्धिक निधि होते हैं। कोई भी राष्ट्र मात्र धनधान्य से ही समृद्ध नहीं बनता, बल्कि अपने विचारों, संस्कारों से भी समृद्ध बनता है। अपने साहित्य और सृजन से भी समृद्ध होता है। क्योंकि कोई भी साहित्य समाज में हो रहे चिंतन को दिखाता है। यह समाज के अनुभव का, उसकी अपेक्षाओं का दर्पण होता है।
हर मनुष्य अपने साथ सदियों की मनुष्यता का अनुभव लिए होता है। साहित्य समाज के उस अनुभव का, उसकी अपेक्षाओं का दर्पण होता है। इसलिए लेखकों को अपने लेखन में भारतीय परंपरा के मूल्यों, आदर्शों और आस्थाओं को परिलक्षित करना चाहिए, ताकि देश में नए सांस्कृतिक पुनर्जागरण का सूत्रपात किया जा सके।
कहना न होगा कि शब्द और भाषा मानव इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण अविष्कार हैं। यदि भाषा संस्कारों और संस्कृति की वाहक है तो साहित्य किसी भी भाषा की सबसे परिष्कृत रूप है। साहित्य किसी समाज की विचार-परंपरा का वाहक होता है। इसलिए जो समाज जितना सुसंस्कृत होगा, उसकी भाषा भी उतनी ही परिष्कृत होगी। जो समाज जितना जागृत होगा, उसका साहित्य भी उतना ही व्यापक होगा।
यहां पर भारत की भाषाई विविधता उल्लेखनीय है। भारत इस मायने में सौभाग्यशाली है कि हमारे देश में भाषाई विविधता है। हमारा साहित्य भी विविध और समृद्ध है। हर भारतीय भाषा अपने आप में राष्ट्रीय भाषा है। हर भारतीय भाषा उस क्षेत्र की, उस समाज की पीढ़ियों की चिंतन परंपरा, उसके अनुभव की वाहक है। हर भारतीय भाषा की अपनी गौरवशाली साहित्यिक परंपरा रही है। इसलिए भाषाई विविधता हमारी शक्ति है। ये विविधता हमारी सांस्कृतिक एकता के सूत्र से बंधी है।
लिहाजा, भारतीय भाषाओं व उनके उदात्त साहित्य के बीच संवाद होना चाहिए। इसलिए कुछ वर्ष पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमलोगों से आह्वान किया कि हम सब दूसरी भारतीय भाषाओं के कुछ शब्द, मुहावरे या गिनती अवश्य सीखें। देश की भाषाई और भावनात्मक एकता के लिए यह बहुत जरूरी है।
मसलन, इस नजरिए से भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य को अन्य क्षेत्रों तक पहुंचाने में नेशनल बुक ट्रस्ट और साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं के प्रयास सराहनीय हैं। इस दिशा में और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है तथा इन प्रयासों में आधुनिक तकनीक सहायक होगी।
भारतीय भाषाओं के बीच यह संवाद दोनों तरफ से होना चाहिए तथा हिंदी के पाठकों को भी अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य का लाभ मिलना ही चाहिए। देश के विश्वविद्यालयों के भाषा विभागों में अन्य भारतीय भाषाओं से अनुवाद की गई साहित्यिक रचनाओं को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।
सम्मानित व पुरस्कृत नई कृतियों, नई रचनाओं पर विश्विद्यालयों में विमर्श होना ही चाहिए। विश्विद्यालयों में हो रहे शोध, सिर्फ एक थीसिस बन कर रह जाते हैं। इसलिए यह अपेक्षित है कि एक शोध थीसिस को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाना चाहिए। उसे रोचक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किए जाने के प्रयास होने चाहिए जिससे समाज को उस शोध का लाभ मिल सके।
कहना न होगा कि विगत कुछ वर्षों से कई शहरों में आयोजित साहित्यिक समारोहों या लिटफेस्ट से युवा लेखकों को मंच मिला है। उन्हें अपनी रचनाओं को समाज और मीडिया के सामने प्रस्तुत करने का एक माध्यम मिला है। नए संदर्भों में, नए विषयों पर, पुस्तकें लिखी जा रही है, युवा लेखकों द्वारा नए प्रयोग किए जा रहे हैं। उन पर बौद्धिक बहस हो रही है। पाठक नए दृष्टिकोण से परिचित हो रहे हैं। इन आयोजनों में नए युवा रचनाकारों की नई रचनाओं को प्रबुद्ध समाज और मीडिया के सामने प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है।
हालांकि यह चिंता की बात है कि राष्ट्रीय मीडिया में अन्य भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य पर हो रहे शोध को उचित स्थान नहीं मिल सका है। जबकि अन्य भारतीय भाषाओं में हो रहे विमर्श को भी राष्ट्रीय मीडिया में स्थान मिलना चाहिए। सच कहा जाए तो अपने कर्तव्यों-दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वहन ही राष्ट्रभक्ति है और देश के नागरिकों की सेवा ही देशभक्ति है।
यही नहीं, हमारी दर्शन परंपरा में आत्मज्ञान से ही ब्रह्मज्ञान तक पहुंचा जा सकता है। क्योंकि आत्मज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। आत्मज्ञान ही ज्ञान है बाकी सब तो सूचना मात्र है। इसलिए लेखक की सार्थकता पाठक को चिंतन की गहराइयों में ले जाकर आत्म रूप को खोजने के लिए प्रेरित करने में है, न कि निरर्थक भेदभाव या विवाद पैदा करने में।
निष्कर्षतः यही कहना समीचीन होगा कि बढ़ते सामाजिक विघटन के इस दौर में हर किसी को अपने सार्वजनिक भाषणों में भाषा की शालीनता का पालन करना चाहिए। किसी भी देश में लेखकों और विचारकों को राष्ट्र की बौद्धिक पूंजी समझा जाता है, जो अपने सृजनात्मक विचारों से साहित्य व समाज को समृद्ध करते हैं।
इसलिए उनसे सकारात्मकता बढ़ाने और नकारात्मकता को हतोत्साहित करने की उम्मीद है। किसी भी देश की समृद्ध भाषाई विविधता वह राष्ट्रीय शक्ति है जिसने हमारी सांस्कृतिक एकता को मजबूत किया। इस नजरिए से संतुलित साहित्य ही समाज की विचार-परंपरा का जीवंत वाहक है।
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