आवारा कुत्तों के बढ़ते कहर पर स्थानीय निकाय उदासीन- सुप्रीम कोर्ट
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
प्रत्येक दिन कहीं न कहीं से कुत्तों के काटने से बच्चों की मौत की खबरें आ रही हैं। स्पष्ट है कि सड़कों पर आवारा कुत्तों का आतंक तेजी से बढ़ रहा है। समाधान के नाम पर नसबंदी और सतर्कता की बात कही जाती है। इसमें स्थानीय प्रशासन भी असमर्थ दिखता है। कहीं धनराशि की कमी का बहाना है तो कहीं नियमों के अनुपालन में कोताही-लापरवाही है। परिणाम है कि न तो आवारा कुत्तों की संख्या कम हो रही है और न ही खतरे टल रहे हैं।
भारत में रेबीज से होती है दुनिया की एक तिहाई मौतें
ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि चूक कहां है और जिम्मेवार कौन है? आवारा कुत्तों की समस्या देश में कितनी गंभीर होती जा रही है इसका अंदाजा केंद्र सरकार के पशुपालन मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि कुत्तों के काटने से होने वाली रेबीज बीमारी से दुनिया में होने वाली कुल मौतों में एक तिहाई भारत में होती है।
सौ प्रतिशत जानलेवा है रेबीज
रेबीज सौ प्रतिशत जानलेवा है, लेकिन वैक्सीन से इसका सौ प्रतिशत बचाव भी संभव है। इस आंकड़े से साफ है कि रेबीज की नौबत ही न आए। इसके लिए जरूरी है कि आवारा कुत्तों के बढ़ते कहर को रोकने के लिए केंद्र से लेकर राज्यों की तमाम संबंधित सरकारी एजेंसियां इस पर लगाम कसने के लिए गंभीरता से पहल करें।
भारतीय पशु कल्याण बोर्ड ने इस दिशा में परामर्श भी जारी कर रखे हैं मगर उन पर अमल नहीं हो पा रहा है। बोर्ड की स्थापना तब किया गया था, जब आवारा कुत्तों को संरक्षित करने के लिए 1960 में संसद ने पशु क्रूरता निवारण अधिनियम बनाया था। यह बोर्ड केंद्र एवं राज्य सरकारों को पशुओं के मामलों में सलाह देने वाली एक निकाय है और अधिनियम-1960 के तहत बनाए गए नियमों के कार्यान्वयन से संबंधित मामलों को देखता है।
इसी क्रम में जब आवारा जानवरों का आतंक और नागरिकों से उनका संघर्ष बढ़ने लगा तो इसी अधिनियम के तहत पशु जन्म नियंत्रण (कुत्ते) नियम-2001 बनाया गया। अभी इसी प्राविधान के अनुरूप स्थानीय प्राधिकरणों एवं निकायों द्वारा आवारा कुत्तों की आबादी को नियंत्रित करने के उपाय किए जा रहे हैं। इनमें मुख्य रूप से कुत्तों का रेबीज रोधी टीकाकरण एवं उनकी संख्या को स्थिर करने के उद्देश्य से आवारा कुत्तों की नसबंदी की जाती है।
मगर देखा जा रहा है कि निगमों एवं स्थानीय निकायों द्वारा पशु जन्म नियंत्रण नियमों का क्रियान्वयन ठीक से नहीं किया जाता है। बोर्ड भी समय समय पर सिर्फ दिशा-निर्देश जारी कर औपचारिकता पूरी कर लेता है। कहीं किसी शहर में कुत्ते के काटने की घटनाएं जब बढ़ने लगती हैं तो स्थानीय निकायों की नींद खुलती है। और फिर कुत्तों को स्थानांतरित कर दिया जाता है। इससे कुछ दिनों तक मोहल्ले में शांति हो जाती है, लेकिन फिर वही सारे कुत्ते आ धमकते हैं और सबकुछ पूर्ववत चलने लगता है। इसे देखते हुए ही सुप्रीम कोर्ट को कई बार हस्तक्षेप कर आदेश देना पड़ा कि कुत्तों को अन्यत्र विस्थापित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
हाल के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि निकायों को पशु जन्म नियंत्रण एवं रेबीज रोधी कार्यक्रम को संयुक्त रूप से लागू करना चाहिए। केंद्र सरकार ने भी इसे गंभीरता से लिया है। वन हेल्थ अभियान को इसी रूप में देखा जा रहा है।
केंद्रीय मत्स्य पालन, पशुपालन एवं डेयरी राज्यमंत्री संजीव बालियान भी मानते हैं कि नियम बना देने भर से ही संकट का समाधान नहीं हो पाएगा। इसे गंभीरता से लागू करने की भी जरूरत है। आवारा कुत्तों की जन्मदर कम करने की पहल को ढंग से लागू नहीं किया जा सका। जिम्मेवारी नगर निकायों की है। बोर्ड का काम सिर्फ इतना है कि अगर कोई संस्था आवारा कुत्तों की नसबंदी के लिए इच्छुक है तो बोर्ड उसे मान्यता दे सकता है।
मालूम हो कि निविदा निकालने और अमल करने का काम स्थानीय निकाय करते हैं। सच बात यह है कि यह काम टुकड़ों में होता है। जरूरत है समग्रता में काम करने की। अगर पूरे देश में एक साथ नसबंदी कार्यक्रम चला दें तो निश्चित तौर पर आवारा कुत्तों के खतरे कम हो जाएंगे। वन हेल्थ के तहत हम भी इस पर जल्द काम करने वाले हैं।
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