‘खंडित भारत’ में देश का विभाजन का तार्किक अध्ययन.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के निर्माण में जिन मनीषियों ने अपना योगदान दिया, उसमें देश के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का विशेष स्थान है। वे गांधीवादी होने के साथ ऐसे चिंतक भी थे, जिनकी प्रज्ञा ने भारतीयता को आधुनिक ढंग से समझने में मदद की है। डा. राजेंद्र प्रसाद ने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें भारतीय शिक्षा, साहित्य शिक्षा और संस्कृति तथा गांधीजी की देन का ऐतिहासिक महत्व माना जाता है।
स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर जिन पुस्तकों की चर्चा चल रही है, उसमें उनकी अंग्रेजी पुस्तक ‘इंडिया डिवाइडेड’ का उल्लेख आवश्यक जान पड़ता है, जिसे उन्होंने 1945 में तर्कपूर्ण ढंग से न केवल लिखा, बल्कि इस तरह उसका विचार प्रतिपादित किया कि भारत के बटवारे के पक्ष-विपक्ष में मौजूद समर्थकों और विरोधियों दोनों के लिए ही यह किताब एक आदर्श पाठ बन गई। आज इसी पुस्तक के हिंदी अनुवाद ‘खंडित भारत’ पर लिखते हुए उसकी प्रासंगिकता की ओर इशारा करने की कोशिश है, जो स्वाधीनता के सात दशक बाद भी अपनी वैचारिक संपदा के कारण सामयिक बनी हुई है।
वर्ष 1940 के लाहौर अधिवेशन में जब मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन का प्रस्ताव पारित किया, तब यह एक बड़े विमर्श और चिंता की बात बन गई। अनेक प्रमुख व्यक्तित्वों ने इस बात पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए इस समस्या के समाधान सुझाए। इसी बात को केंद्र में रखते हुए राजेंद्र प्रसाद ने ‘इंडिया डिवाइडेड’ का खाका तैयार किया।
यह कहा जा सकता है कि उन्होंने भविष्य में भारत के विभाजन की एक धुंधली सी छाया का आकलन कर लिया था, जिससे व्यथित होकर उस पूरे परिदृश्य को तटस्थता से देखते हुए उन्हें यह जरूरी लगा कि तथ्यपरक ढंग से इस समस्या पर विचार करने की आवश्यकता है। यह अकारण नहीं है कि उन्होंने उस समय जिस तरह इस किताब को लेकर शोध और वैचारिक अनुशीलन किया, वह आज एक दस्तावेज के रूप में हमें हासिल है।
भारत विभाजन को ही मूल प्रस्तावना में रखा गया
इस पुस्तक में विचार की दृष्टि से भारत विभाजन को ही मूल प्रस्तावना के रूप में रखा गया है, जिसके प्रति राजेंद्र प्रसाद की सोच विभाजन के प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थी। आज इसकी प्रासंगिकता को लेकर भले ही उत्तर औपनिवेशिक समय इसे कुछ पुराना मान ले, मगर इस बात से कहां इन्कार किया जा सकता है कि उस दौर के एक गांधीवादी क्रांतिकारी के तर्क, बहस और विचार को स्वाधीनता के संदर्भ में देखने-परखने की प्रासंगिकता हमेशा ही बची रहने वाली है?
फिर इसकी एक बड़ी विशेषता यह भी रही कि इसमें लेखक ने अपने विचारों को पाठकों या जनसामान्य पर आरोपित नहीं किया। तथ्यों, आंकड़ों, तालिकाओं, नक्शों, ग्राफों और अन्यान्य प्रामाणिक संदर्भो की सहायता से उन्होंने भारतीय प्रायद्वीप के विभाजन से संबंधित चीजों को विवेकपूर्ण दृष्टि से समाज के सामने रखा। इस उद्देश्य के साथ कि पाकिस्तान निर्माण के विषय में एक आम भारतीय अपनी सहज राय बना सके। यह एक जोखिम भरा काम था, जिसका औचित्यपूर्ण समाधान ढूंढना आवश्यक था। इसलिए भी कि संपूर्ण राष्ट्र, उस समय एक ऐसे निर्णायक दौर से गुजर रहा था, जिसमें देश के विभाजन की बात यहां के नागरिकों के लिए विचलित और आहत करने वाली थी।
इसी संदर्भ में राजेंद्र प्रसाद की इस व्यवस्थित पुस्तक का आना, एक ऐसा ऐतिहासिक कदम था, जो समाज को सही सूचना देने और उन्हें विभाजन पर अपना स्वतंत्र विचार विकसित करने की प्रेरणा देने वाली थी। पुस्तक छह भागों में विभक्त थी, जिसमें पहला भाग- दो राष्ट्र, दूसरा भाग- सांप्रदायिक त्रिभुज, तीसरा भाग- विभाजन की योजनाएं, चौथा भाग- अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का पाकिस्तान का प्रस्ताव, पांचवां भाग- मुस्लिम राज्यों की उत्पादक योग्यता तथा छठा भाग- पाकिस्तान के विकल्प थे। हर अध्याय में कई उपशीर्षकों के तहत छोटे विनिबंध भी उन्होंने लिखे, जिसका ताíकक विश्लेषण करते हुए उन्होंने हर तरह के फायदे और नुकसान का भविष्य के संदर्भ में जायजा लिया।
विभाजन के उद्देश्य पर भी लेखक के उर्वर विचार
किताब में ढेरों उद्धरण ऐसे हैं, जिन्हें पढ़कर लेखक के उर्वर विचारों को सुगमता से समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर ‘राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय राज’ निबंध से यह तर्क पढ़ना प्रासंगिक होगा- विभाजन का उद्देश्य, प्रथम महासमर के बाद यूरोप में स्थापित हुए राजों की तरह, हिंदू और मुसलमानी राजों की स्थापना है, जिसमें हिंदूू और मुसलमान दोनों को अपने-अपने राज में अपनी विशेष प्रवृत्ति के अनुसार सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के विकास के निमित्त समुचित अवसर मिल सके और वे अपना भविष्य स्वयं निर्धारित कर सकें।
इस उद्देश्य के संबंध में, यदि इसकी पूर्ति हो सके, किसी के झगड़ने की आवश्यकता नहीं है। पर हिंदूू और मुसलमान अधिवासी सर्वत्र इस प्रकार बिखरे और आपस में मिलेजुले हैं कि देश के किसी भी भाग में हिंदूू या मुसलमान किसी को एक सा एकजातीय राज बन सकना संभव नहीं है, जिसमें दूसरी जाति के बहुत से लोग अल्पसंख्यक के रूप में शेष न रह जाते हों।
ऐसे विचारों से ओत-प्रोत एक महत्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक दस्तावेज, जिसे पढ़कर हम स्वाधीनता और विभाजन के उस निर्णायक काल को सहजता से समझ सकते हैं। राजेंद्र बाबू उचित ही लक्ष्य करते हैं कि उपयुक्त सामग्री के अभाव में ऐसी विस्तृत पुस्तक लिखना सरल नहीं, जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति, जीवन पर उसकी गंभीर और अमिट छाप व जनता पर उसके अस्पष्ट प्रभावों की पूरी चर्चा हो।
देश विभाजन के बाद की परिस्थितियां कैसी हो सकती हैं, इसका आकलन डा. राजेंद्र प्रसाद ने पहले ही कर लिया था और अपनी इस पुस्तक के जरिये इसके प्रति आगाह करने का प्रयास भी किया था
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