शुभ के सृजन का दुर्लभ अवसर है महाशिवरात्रि.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि मनाई जाती है, यह हिंदुओं का एक धार्मिक त्योहार है, जिसे हिंदू धर्म के प्रमुख देवता महादेव अर्थात शिवजी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। यह शिव से मिलन की रात्रि का सुअवसर है। इसी दिन निशीथ अर्धरात्रि में शिवलिंग का प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये यह पुनीत पर्व सम्पूर्ण देश एवं दुनिया में उल्लास और उमंग के साथ मनाया जाता है। यह पर्व सांस्कृतिक एवं धार्मिक चेतना की ज्योति किरण है। इससे हमारी चेतना जाग्रत होती है, जीवन एवं जगत में प्रसन्नता, गति, संगति, सौहार्द, ऊर्जा, आत्मशुद्धि एवं नवप्रेरणा का प्रकाश परिव्याप्त होता है। यह पर्व जीवन के श्रेष्ठ एवं मंगलकारी व्रतों, संकल्पों तथा विचारों को अपनाने की प्रेरणा देता है।
आध्यात्मिक पथ पर चलने वालों के लिए महाशिवरात्रि का पर्व बहुत महत्वपूर्ण है। पारिवारिक परिस्थितियों में जी रहे लोगों तथा महत्वाकांक्षियों के लिए भी यह उत्सव बहुत महत्व रखता है। जो लोग परिवार के बीच गृहस्थ हैं, वे महाशिवरात्रि को शिव के विवाह के उत्सव के रूप में मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं से घिरे लोगों को यह दिन इसलिए महत्वपूर्ण लगता है क्योंकि शिव ने अपने सभी शत्रुओं पर विजय पा ली थी। महाशिवरात्रि एक अवसर और संभावना है। ये आपको, हर मनुष्य के भीतर छिपे उस अथाह शून्य के अनुभव के पास ले जाती है, जो सारे सृजन का स्त्रोत है।
भगवान शिव आदिदेव है, देवों के देव है, महादेव हैं। सभी देवताओं में वे सर्वोच्च हैं, महानतम हैं, दुःखों को हरने वाले हैं। वे कल्याणकारी हैं तो संहारकर्ता भी हैं। शिव भोले भण्डारी है और जग का कल्याण करने वाले हैं। सृष्टि के कल्याण हेतु जीर्ण-शीर्ण वस्तुओं का विनाश आवश्यक है। इस विनाश में ही निर्माण के बीज छुपे हुए हैं। इसलिये शिव संहारकर्ता के रूप में निर्माण एवं नव-जीवन के प्रेरक भी है। सृष्टि पर जब कभी कोई संकट पड़ा तो उसके समाधान के लिये वे सबसे आगे रहे। जब भी कोई संकट देवताओं एवं असुरों पर पड़ा तो उन्होंने शिव को ही याद किया और शिव ने उनकी रक्षा की। समुद्र-मंथन में देवता और राक्षस दोनों ही लगे हुए थे।
सभी अमृत चाहते थे, अमृत मिला भी लेकिन उससे पहले हलाहल विष निकला जिसकी गर्मी, ताप एवं संकट ने सभी को व्याकुल कर दिया एवं संकट में डाल दिया, विष ऐसा की पूरी सृष्टि का नाश कर दें, प्रश्न था कौन ग्रहण करें इस विष को। भोलेनाथ को याद किया गया गया। वे उपस्थित हुए और इस विष को ग्रहण कर सृष्टि के सम्मुख उपस्थित संकट से रक्षा की। उन्होंने इस विष को कंठ तक ही रखा और वे नीलकंठ कहलाये। इसी प्रकार गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये भोले बाबा ने ही सहयोग किया। क्योंकि गंगा के प्रचंड दबाव और प्रवाह को पृथ्वी कैसे सहन करें, इस समस्या के समाधान के लिये शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को समाहित किया और फिर अनुकूल गति के साथ गंगा का प्रवाह उनकी जटाओं से हुआ।
सृष्टि से जुड़े अनेक संकट और उनसे मुक्ति के शिव-प्रयत्नों केे घटना-क्रम हैं जिनके लिये शिव ने अपनी शक्तियों, तप और साधना का प्रयोग करके दुनिया को नव-जीवन प्रदान किया। शिव का अर्थ ही कल्याण है, वही शंकर है, और वही रुद्र भी है। शंकर में शं का अर्थ कल्याण है और कर का अर्थ करने वाला। रुद्र में रु का अर्थ दुःख और द्र का अर्थ हरना- हटाना। इस प्रकार रुद्र का अर्थ हुआ, दुःख को दूर करने वाले अथवा कल्याण करने वाले। शिव की प्रतिमाओं में तीसरा नेत्र अवश्य बनाया जाता है, शिवालयों की रचना बिना नन्दी की मूर्ति के पूर्ण नहीं होती, प्रश्न है कि ये केवल आस्था एवं पूजा-विधान की बात है या इसके गूढ़ एवं सृजनकारी अर्थ भी है? शिव का तीसरा नेत्र भौतिक नेत्र नहीं हैख् वहीं नंदी भी केवल एक बेल मात्र नहीं है, ये दोनों जीवन एवं सृष्टि से जुड़ी अर्थपूर्ण संरचनाएं है, इसके मर्म को समझकर ही हम शिव की साधना के सक्षम पात्र हो सकते हैं। असल में ये अद्भुत प्रेरणा एवं शक्ति है जो हमें शिव की तरह जीवन को देखने के लिये प्रेरित करती है।
भौतिक एवं भोगवादी भागदौड़ की दुनिया में शिवरात्रि का पर्व भी दुःखों को दूर करने एवं सुखों का सृजन करने का प्रेरक है। भोलेनाथ भाव के भूखे हैं, कोई भी उन्हें सच्ची श्रद्धा, आस्था और प्रेम के पुष्प अर्पित कर अपनी मनोकामना पूर्ति की प्रार्थना कर सकता है। दिखावे, ढोंग एवं आडम्बर से मुक्त विद्वान-अनपढ़, धनी-निर्धन कोई भी अपनी सुविधा तथा सामथ्र्य से उनकी पूजा और अर्चना कर सकता है। शिव न काठ में रहता है, न पत्थर में, न मिट्टी की मूर्ति में, न मन्दिर की भव्यता में, वे तो भावों में निवास करते हैं।
ऐसी मान्यता है कि इस दिन पूजा एवं अभिषेक करने पर उपासक को समस्त तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त होता है। शिवरात्रि का व्रत करने वाले इस लोक के समस्त भोगों को भोगकर अंत में शिवलोक में जाते हैं। शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए। शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प तथा प्रसाद में भांग अति प्रिय हैं। लौकिक दृष्टि से दूध, दही, घी, शकर, शहद- इन पाँच अमृतों (पंचामृत) का पूजन में उपयोग करने का विधान है। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है। शिवरात्रि वह समय है जो पारलौकिक, मानसिक एवं भौतिक तीनों प्रकार की व्यथाओं, संतापों, पाशों से मुक्त कर देता है। शिव की रात शरीर, मन और वाणी को विश्राम प्रदान करती है। शरीर, मन और आत्मा को ऐसी शान्ति प्रदान करती है जिससे शिव तत्व की प्राप्ति सम्भव हो पाती है। शिव और शक्ति का मिलन गतिशील ऊर्जा का अन्तर्जगत से एकात्म होना है। लौकिक जगत में लिंग का सामान्य अर्थ चिह्न होता है जिससे पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग की पहचान होती है। शिव लिंग लौकिक के परे है। इस कारण एक लिंगी है। आत्मा है। शिव संहारक हैं। वे पापों के संहारक हैं। शिव की गोद में पहुंचकर हर व्यक्ति भय-ताप से मुक्त हो जाता है।
शिव पुराण के अनुसार सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा ने इसी दिन रुद्र रूपी शिव को उत्पन्न किया था। शिव एवं हिमालय पुत्री पार्वती का विवाह भी इसी दिन हुआ था। अतः यह शिव एवं शक्ति के पूर्ण समरस होने की रात्रि भी है। वे सृष्टि के सर्जक हैं। वे मनुष्य जीवन के ही नहीं, सृष्टि के निर्माता, पालनहार एवं पोषक हैं। उन्होंने मनुष्य जाति को नया जीवन दर्शन दिया। जीने की शैली सिखलाई। शिवरात्रि भोगवादी मनोवृत्ति के विरुद्ध एक प्रेरणा है, संयम की, त्याग की, भक्ति की, संतुलन की। सुविधाओं के बीच रहने वालों के लिये सोचने का अवसर है कि वे आवश्यक जरूरतों के साथ जीते हैं या जरूरतों से ज्यादा आवश्यकताओं की मांग करते हैं। इस शिवभक्ति एवं उपवास की यात्रा में हर व्यक्ति में अहंकार नहीं, बल्कि शिशुभाव जागता है। क्रोध नहीं, क्षमा शोभती है। कष्टों में मन का विचलन नहीं, सहने का धैर्य रहता है। यह तपस्या स्वयं के बदलाव की एक प्रक्रिया है। यह प्रदर्शन नहीं, आत्मा के अभ्युदय की प्रेरणा है। इसमें भौतिक परिणाम पाने की महत्वाकांक्षा नहीं, सभी चाहों का संन्यास है।
शिव ने संसार और संन्यास दोनों को जीया है। उन्होंने जीवन को नई और परिपूर्ण शैली दी। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति की जीवन में आवश्यकता और उपयोगिता का प्रशिक्षण दिया। कला, साहित्य, शिल्प, मनोविज्ञान, विज्ञान, पराविज्ञान और शिक्षा के साथ साधना के मानक निश्चित किए। सबको काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष की पुरुषार्थ चतुष्टयी की सार्थकता सिखलाई। वे भारतीय जीवन-दर्शन के पुरोधा हैं। आज उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व सृष्टि के इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है। उनका सम्पूर्ण जीवन प्रेरणास्रोत है। लेकिन हम इतने भोले हैं कि अपने शंकर को नहीं समझ पाए, उनको समझना, जानना एवं आत्मसात करना हमारे लिये स्वाभिमान और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला अनुभव सिद्ध हो सकता है। मानवीय जीवन के सभी आयाम शिव से ही पूर्णत्व को पाते हैं।
आज चारों ओर अनैतिकता, आतंक, अराजकता और अनुशासनहीनता का बोलबाला है। व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र- हर कहीं दरारे ही दरारे हैं, हर कहीं टूटन एवं बिखराव है। मानवीय दृष्टि एवं जीवन मूल्य खोजने पर भी नहीं मिल रहे हैं। मनुष्य आकृति से मनुष्य रह गया है, उसकी प्रकृति तो राक्षसी हो चली है। मानवता क्षत-विक्षत होकर कराह रही है। इन सबका कारण है कि हमने आत्म पक्ष को भुला दिया है। इन विकट स्थितियों में महादेव ही हमें बचा सकते हैं, क्योंकि शिव ने जगत की रक्षा हेतु बार-बार और अनेक बार उपक्रम किये।
वस्तुतः अपने विरोधियों एवं शत्रुओं को मित्रवत बना लेना ही सच्ची शिव भक्ति है। जिन्हें समाज तिरस्कृत करता है उन्हें शिव गले लगाते हैं। तभी तो अछूत सर्प उनके गले का हार है, अधम रूपी भूत-पिशाच शिव के साथी एवं गण हैं। समाज जिनकी उपेक्षा करता है, शंकर उन्हें आमंत्रित करते हैं। शिव की बरात में आए नंग-धडंग, अंग-भंग, भूत-पिशाच इसी तथ्य को दृढ़ करते हैं। इस लिहाज से शिव सच्चे पतित पावन हैं। उनके इसी स्वभाव के कारण देवताओं के अलावा दानव भी शिव का आदर करते हैं। सचमुच! धन्य है उनकी तितिक्षा, कष्ट-सहिष्णुता, दृढ़-संकल्पशक्ति, धैर्यशीलता, आत्मनिष्ठा और अखण्ड साधनाशीलता।