दुनियाभर में अनेक अखबार अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे है,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
कोरोना महामारी ने मीडिया के समक्ष अपने को बचाये रखने की चुनौती पेश की है. दुनियाभर में अनेक अखबार अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कई अखबार बंद भी हो जा रहे हैं, लेकिन हांगकांग में एक अखबार का बंद होना दुनियाभर की सुर्खियों में है. चीन की लोकतंत्र विरोधी नीतियों के कारण हांगकांग के 26 साल पुराने लोकतंत्र समर्थक अखबार एप्पल डेली को बंद करना पड़ा है. उसके आखिरी संस्करण के प्रकाशन के समय तो लोग भारी बारिश के बावजूद आधी रात से ही अखबार के दफ्तर के बाहर जमा हो गये थे.
प्रकाशन के अंतिम दिन अखबार की लगभग 10 लाख प्रतियां बिकीं, जबकि सामान्य दिनों में 80 हजार प्रतियां छपती थीं. अखबार के बंद होने का संदेश स्पष्ट है कि हांगकांग से प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी है. एप्पल डेली पर चीनी सत्ता ने राजद्रोह का आरोप लगाते हुए उसके प्रधान संपादक रॉयन लॉ एवं दो अन्य संपादकों को गिरफ्तार किया था. अखबार की संपत्ति भी जब्त की गयी थी. दरअसल, पिछले दो सालों से हांगकांग में लोकतंत्र के समर्थन में व्यापक आंदोलन हुए हैं और उनकी खबरें इस अखबार में मुखरता से प्रकाशित होती रहीं.
कुछ दिनों पहले चीनी प्रशासन ने चेतावनी दी थी कि जो अखबार लोकतंत्र के समर्थन में लिखेगा, उसे राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के उल्लंघन का दोषी माना जायेगा, लेकिन एप्पल डेली इसके आगे झुका नहीं. उसने इसका डटकर विरोध किया और अगले दिन समाचार पत्र की पांच लाख प्रतियां छापीं.
उस दिन भी लोगों ने कतार में लग कर अखबार खरीदा था. अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने एप्पल डेली के बंद होने को हांगकांग और दुनियाभर में मीडिया की आजादी के लिए एक दुखद दिन करार दिया है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के माध्यम से गिरफ्तारी और धमकियों से चीन ने स्वतंत्र मीडिया को दबाने व असहमतिपूर्ण विचारों को चुप कराने के लिए अपनी ताकत का दुरुपयोग किया है. राष्ट्रपति बाइडन ने कहा कि स्वतंत्र मीडिया की समाज में एक अहम भूमिका है. उन्होंने चीन से स्वतंत्र प्रेस को निशाना बनाना बंद करने और गिरफ्तार पत्रकारों को रिहा करने की अपील की है.
दरअसल, हांगकांग की व्यवस्था अन्य चीनी शहरों से भिन्न है. हांगकांग पर 1842 से ब्रिटेन का नियंत्रण रहा था. इसे ब्रिटेन को 99 साल की लीज पर दिया गया था. बाद में दोनों पक्षों ने 1984 में एक समझौता किया कि एक देश-दो प्रणाली सिद्धांत के तहत हांगकांग को 1997 में चीन को सौंप दिया जायेगा. इसका आशय यह था कि चीन का हिस्सा होने के बावजूद हांगकांग 50 वर्षों तक विदेशी और रक्षा मामलों को छोड़ कर अन्य सभी मामलों में स्वायत्त रहेगा.
चीन ने 2047 तक हांगकांग के लोगों को स्वतंत्रता और मौजूदा कानूनी व्यवस्था बहाल रखने की गारंटी दी थी, लेकिन जैसी चीन की फितरत है, वह जल्द ही अपने वादे से पलट गया. साल 2014 आते-आते हांगकांग में लोकतंत्र समर्थकों पर चीन की सरकार कार्रवाई करने लगी. आजादी की समर्थक पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. हांगकांग में हर रोज आजादी के नारे मुखर हो रहे हैं और चीन समर्थित प्रशासन उनका दमन कर रहा है.
भारत की जनता को भी मीडिया पर पाबंदियों का एहसास है. आपातकाल की ज्यादतियों को इस देश ने नजदीक से महसूस किया है. तब प्रेस की स्वायत्तता पर किस तरह कुठाराघात किया गया था, वह पुरानी पीढ़ी के लोगों को बखूबी याद होगा, लेकिन नयी पीढ़ी को शायद इसका एहसास न हो. उस दौरान दिल्ली के प्रमुख अखबारों की बिजली काट दी गयी थी, ताकि अखबार प्रकाशित न हो सकें. जो अखबार छपे भी थे, उन्हें जब्त कर लिया गया.
इमरजेंसी 25 जून, 1975 की रात लगी और 26 जून की दोपहर तक प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी गयी थी. अखबारों के दफ्तरों में सरकारी अधिकारी बैठा दिये गये थे, जिनकी अनुमति के बिना अखबारों में राजनीतिक खबरें नहीं छप सकती थीं. जयप्रकाश नारायण और अन्य अनेक नेताओं की गिरफ्तारी की खबरें अखबारों में प्रकाशित नहीं हो पा रही थीं. सैकड़ों पत्रकारों को भी गिरफ्तार किया गया था. पत्रकारों की मान्यता रद करने के साथ ही प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को भी भंग कर दिया गया था.
मीडिया ही नहीं, बॉलीवुड को भी निशाना बनाया गया. जो कलाकार सरकार के समर्थक नहीं थे, उन्हें काली सूची में डाल दिया गया. सरकार के समर्थन में गाना गाने से मना करने की वजह से आकाशवाणी और दूरदर्शन पर किशोर कुमार के गानों के प्रसारण पर पाबंदी लगा दी गयी थी. गुलजार की फिल्म ‘आंधी’ पर रोक लगी, क्योंकि फिल्म की हीरोइन सुचित्रा सेन और हीरो संजीव कुमार का किरदार इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी से मिलता-जुलता था. अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’के मूल प्रिंट को ही जला दिया गया था. ऐसी अनेक घटनाएं हैं, लेकिन हर दौर में अखबार अभिव्यक्ति की आजादी का सशक्त माध्यम बन कर उभरे हैं.
सोशल मीडिया के मौजूदा दौर में भी अखबार हर मोर्चे पर भरोसे का साथी रहे है. कोरोना संकट के इस दौर में भी अखबार के साथी मुस्तैदी से अपने काम में लगे रहे हैं. खुद को जोखिम में डाल कर पाठकों तक विश्वसनीय खबरें पहुंचा रहे हैं. प्रभात खबर ने तो अपने सामाजिक दायित्व के तहत अपने पाठकों तक मास्क पहुंचाने का प्रयास किया है, ताकि कोरोना काल में आप सभी सुरक्षित रहें.
यह सच है कि समय बदल गया है और पत्रकारिता का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है. साक्षरता बढ़ने के साथ राजनीतिक चेतना भी बढ़ी है. नतीजतन, पाठकों की संख्या में खासी बढ़ोतरी हुई है. स्थानीय संस्करणों ने ग्रामीण इलाकों में अखबारों की पैठ बढ़ा दी है. पत्रकारिता के भी विभिन्न आयाम हो गये हैं. अखबार तो हैं ही, साथ ही टीवी और सोशल मीडिया भी प्रभावी माध्यम बन कर उभरे हैं, लेकिन सोशल मीडिया की भूमिका को लेकर गंभीर सवाल उठ रहे हैं.
सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के एक असरदार माध्यम के रूप में उभरा है. आज कोई भी व्यक्ति सोशल मीडिया के माध्यम से अपने विचार रख सकता है और उसे हजारों-लाखों लोगों तक पहुंच सकता है, लेकिन इसके दुरुपयोग के भी अनेक मामले सामने आये हैं. इसके माध्यम से समाज में भ्रम व तनाव फैलाने की कोशिशें हुईं हैं. मौजूदा दौर में सोशल मीडिया पर कोरोना को लेकर फेक वीडियो व फेक खबरें बड़ी संख्या में चल रही हैं. एक अन्य सशक्त माध्यम टीवी की गंभीरता पर भी सवाल उठने लगे हैं. दूसरी ओर अखबारों की ओर नजर दौड़ाएं, तो आप पायेंगे कि वे आज भी सूचनाओं के सबसे विश्वसनीय स्रोत हैं.
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