धारा 377 और एलजीबीटी अधिकार के मायने!

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

  • धारा 377 जिसे “अप्राकृतिक अपराध” (unnatural offences) के नाम से भी जाना जाता है, को 1857 के विद्रोह के बाद औपनिवेशक शासन द्वारा अधिनियमित किया गया था।
  • दरअसल, उन्होंने अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर हमारे लिये कानून बनाया। तब ईसाइयत में समलैंगिकता को अपराध माना जाता था जबकि इससे पहले समलैंगिक गतिविधियों में शामिल लोगों को भारत में दंडित नहीं किया जाता था।
  • अदालतों ने धारा 377 की कई बार व्याख्या की है और उन व्याख्याओं से निकलने वाला सामान्य सा निष्कर्ष यह है कि ‘धारा 377 में गैर-प्रजनन यौन कृत्यों और यौन विकृति के किसी भी कृत्य को दण्डित करने का प्रावधान है।
  • दरअसल, धारा 377 में गैर-प्रजनन यौन कृत्यों यानी अप्राकृतिक यौन संबंधों जैसे गुदा मैथुन (sadomy), ओरल सेक्स आदि को अपराध माना जाता है और दण्डित करने का भी प्रावधान है।
  • यह धारा विशेष रूप से एलजीबीटी समुदाय (lesbian, gay, bisexual, and transgender community) के लोगों की चिंताओं का कारण इसलिये है, क्योंकि उनके मध्य स्थापित होने वाले संबंधों को अप्राकृतिक ही माना जाता है।
  • ‘नाज़ फाउंडेशन’ ने वर्ष 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय से धारा 377 को गैर-संवैधानिक घोषित करने की मांग की थी। उच्च न्यायलय ने कहा कि:

→ आपसी सहमति से स्थापित यौन संबंधों का अपराधीकरण न केवल लोगों के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार को नकारना है, बल्कि यह भेदभावपूर्ण भी है।
→ समलैंगिकों को धारा 377 की वज़ह से ही समाज अपराधी के तौर पर देखता है, जो कि बेहद चिंताजनक है।

1. दरअसल धारा 377 व्यक्ति की यौन-आचरण से संबंधित है। इसके प्रावधान कुछ ऐसे हैं कि समलैंगिकों के विरुद्ध इसका दुरुपयोग आसान हो जाता है। इसमें कोई शक नहीं है कि इस धारा के खत्म हो जाने से समलैंगिको को कम प्रताड़ित किया जाएगा, लेकिन असली सुधार तब आएगा जब समाज की मानसिकता में बदलाव देखने को मिलेगा।
2. ट्रांसजेंडर्स राइट्स को लेकर हम असंवेदनशील हैं, उन्हें न तो ठीक से शिक्षा मिलती है और न ही नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व। हाल ही में कई ऐसे मामले भी सामने आए हैं जब कॉर्पोरेट कंपनियों ने समलैंगिक कर्मियों को सेवानिवृत्त भी कर दिया है। अतः धारा 377 को खत्म किये जाने से ही बदलाव ला पाना कठिन हो सकता है।
3. निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने के न्यायालय के हालिया निर्णय के बाद अब धारा 377 को लेकर जब भी सुनवाई होगी, इस फैसले का व्यापक प्रभाव देखने को मिलेगा।
4. निर्दोष बच्चों और अप्राकृतिक यौन संबंधों के प्रत्ति असहमति ज़ाहिर करने वाली महिलाओं को इस तरह के आचरण से बचाने के लिये धारा 377 जैसे कानून का अस्तित्व में बने रहना आवश्यक है, लेकिन यह कानून इतना पुराना है कि बदली हुई ज़रूरतों के अनुरूप इसका प्रयोग करना कई तरह की विसंगतियों को जन्म देने वाला है।
5. अतः विधायिका को चाहिये कि इस संबंध में उचित कानूनी प्रयास करे। हालाँकि न्यायपालिका के हालिया रुख को देखते हुए धारा 377 का जाना तय है, जो कि कई मायनों में सही भी है।

  • विदित हो कि धारा 377 को संवैधानिक बताने वाले मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि ‘संसद ही इसे हटाना ही नहीं चाहती’। न्यायालय ने जिक्र किया था कि ‘1950 के बाद से भारतीय दंड संहिता में लगभग 30 बार संशोधन हो चुके हैं और विधि आयोग की 172वीं रिपोर्ट में तो साफ़ तौर पर धारा 377 को हटाने की बात भी कही गई है, लेकिन संसद ने फिर भी इस धारा को नहीं हटाया है। न्यायपलिका ने तब इसे विधायिका की ज़िम्मेदारी बताया था।
  • लेकिन वर्ष 2013 में इस निर्णय के आने के बाद से अब तक 4 साल हो चुके हैं। आज न्यायिक सक्रियता बढ़ी हुई है, अब जब सुप्रीम कोर्ट ने यह निश्चित कर दिया है कि ‘कोई व्यक्ति अपने घर की चहारदीवारी के अन्दर क्या करता है, इससे राज्य का कोई लेना-देना नहीं है और यह उसकी निजी पसंद का मामला है’ तो यह देखना दिलचस्प होगा कि धारा 377 में क्या बदलाव आता है?
  • जहाँ तक समलैंगिकता का सवाल है तो इसे वैध बनाने के विचार से असहमति रखने वाले लोग यह तर्क देते हैं कि यह समाज के नैतिक मूल्यों के खिलाफ है। हालाँकि इसके पक्ष में तर्क देने वालों का मानना है कि नैतिकता, नागरिकों के मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने का आधार नहीं बन सकती।
  • दरअसल, किसी कृत्य के वैधानिक तौर पर गलत होने का निहितार्थ यह है कि वह नैतिक तौर पर भी गलत है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि जो नैतिक तौर पर गलत है वह वैधानिकता की दृष्टि से भी गलत हो। नैतिक तौर पर गलत कृत्य तभी वैधानिक तौर पर गलत हो सकता है, जब यह समाज को प्रभावित करता हो।
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