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नालंदा सिर्फ नाम नहीं, पहचान है, गौरव है, सम्मान है-प्रधानमंत्री - श्रीनारद मीडिया

नालंदा सिर्फ नाम नहीं, पहचान है, गौरव है, सम्मान है–प्रधानमंत्री

नालंदा सिर्फ नाम नहीं, पहचान है, गौरव है, सम्मान है–प्रधानमंत्री

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आधुनिक समय में भी नालंदा विद्या व संस्कृति के नये केंद्र के रूप में उभरा है. इसमें दक्षिण एशिया व विश्व को नयी समझ, शांति व मनुष्यता को विकसित करने की अपार क्षमता है. यह उसके अतीत से आता है. नालंदा विश्व का ऐसा पहला आवासीय विश्वविद्यालय था, जो सामान्य व्यक्ति के लिए भी उपलब्ध था. इस विश्वविद्यालय से शिक्षा की व्यवस्थित व वैज्ञानिक प्रणाली का विकास संभव हुआ था. तब विश्वविद्यालय शब्द चलन में नहीं था.

इसके लिए अमूमन महाविहार शब्द प्रयुक्त होता था. प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को श्री नालंदा महाविहार के रूप में जाना जाता था. नालंदा विचार के साथ-साथ साहित्य का केंद्र भी था. यह कम लोगों को ज्ञात है कि नालंदा में हिंदी कविता का जन्म हुआ. यह अपभ्रंश के रूप में हुआ. महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, सरहपा हिंदी कविता के प्रथम कवि थे. उनकी रचना ‘दोहा कोश’ राहुल सांकृत्यायन को तिब्बत में अनूदित मिली, जिसका अपभ्रंश में रूपांतरण उन्होंने किया. एक नयी दृष्टि, भाव बोध व काव्य व्याकरण को जन्म देने का श्रेय सरहपा की रचना को जाता है.

सरहपा की जैसी चर्चा नालंदा के परिप्रेक्ष्य में होनी चाहिए थी, नहीं हुई. कोई पीठ, मार्ग, भवन, चौराहा तक नहीं है उनके नाम पर. कथ्य है कि राहुल श्रीभद्र यानी सरहपा प्राचीन श्री नालंदा विश्वविद्यालय के अंतिम दिनों में आचार्य थे, उसके बाद यह धरोहर में तब्दील हो गया. गुप्त काल में विकसित उदार सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएं नालंदा के बहुविषयक शैक्षणिक पाठ्यक्रम का मूल आधार बनीं, जिसमें बौद्धिक बौद्ध धर्म को विभिन्न क्षेत्रों में उच्च ज्ञान के साथ मिश्रित किया गया.

नालंदा आरंभ से ही जैन, बौद्ध व सनातन का समन्वित केंद्र रहा है. पावापुरी में जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण हुआ था. महाभारतकालीन अवशेष, जरासंध का अखाड़ा, विश्वस्तरीय मलमास मेला, गर्म जल का कुंड, गया में पितरों का विसर्जन आदि की सनातन परंपरा रही है. बिंबिसार ने भगवान बुद्ध का प्रथम बार राजगीर में स्वागत किया था. स्पष्ट है कि नालंदा केवल बुद्ध का ही आभा क्षेत्र नहीं रहा है, इसलिए नालंदा के माध्यम से केवल बुद्ध धर्म को रेखांकित करना एकांगिकता है.

विचारकों में असहमति है कि पांचवीं शताब्दी में स्थापित श्री नालंदा महाविहार के बाद राजगीर स्थित नालंदा विश्वविद्यालय, जो 2014 में स्थापित हुआ, सीधे उत्तराधिकारी है. सच यह है कि नव नालंदा महाविहार, जो नालंदा में स्थित है, वह प्राथमिक रूप से 1951 में ही भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के सौजन्य से स्थापित हो चुका था. भिक्षु जगदीश काश्यप ने इस इलाके में नया जागरण किया था.

वे और प्रख्यात हिंदी लेखक व तब बिहार के शिक्षा सचिव जगदीश चंद्र माथुर ने इसकी कल्पना की थी. आज नव नालंदा महाविहार संस्कृति मंत्रालय (भारत सरकार) का सम विश्वविद्यालय है, जिसमें अनेक देशों के विद्यार्थी पढ़ने आते हैं. नालंदा ने प्राचीन और प्रारंभिक मध्यकालीन भारत में एक प्रमुख शैक्षणिक प्रतिष्ठान के रूप में कार्य किया है.

उस अवधि के मंदिरों, मठवासी आवासों, प्रार्थना संरचनाओं, कांस्य और पत्थर से बनी कलाकृतियों के अवशेष देखे जा सकते हैं. प्राचीन महाविहार में आर्यभट्ट प्रमुख रह चुके थे. प्रवेश के इच्छुक छात्रों को शीर्ष आचार्यों के साथ कठोर मौखिक साक्षात्कार में भाग लेना पड़ता था. इसकी तीन पुस्तकालय इमारतों में से एक को तिब्बती बौद्ध विद्वान तारानाथ ने नौ मंजिला बताया था.

प्रख्यात चीनी भिक्षु और यात्री ह्वेनत्सांग ने नालंदा में अध्ययन और अध्यापन किया था. गुप्त काल के बाद भी नालंदा को शाही संरक्षण प्राप्त रहा. यहां चीन, जापान, कोरिया और दक्षिण-पूर्व और मध्य एशिया के देशों से छात्र आते थे. माना जाता है कि नालंदा का पाठ्यक्रम धार्मिक ग्रंथों से आगे बढ़कर साहित्य, धर्मशास्त्र, तर्कशास्त्र, व्याकरण, चिकित्सा, दर्शन, कला और तत्वमीमांसा को भी शामिल करता था. ह्वेनत्सांग ने महाविहार की शोभा बढ़ाने वाले गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानचंद्र, संतरक्षित, शीलभद्र, धम्मपाल और चंद्रपाल जैसी प्रसिद्ध हस्तियों का उल्लेख किया है.

नालंदा ने महायान, वज्रयान व सहज यान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. शांति व धर्मकीर्ति की रचनाओं ने नया उन्मेष दिया. नागार्जुन ने शून्यवाद का नया दर्शन दिया. महाविहार को वास्तुकला की एक उत्कृष्ट कृति माना जाता था और इसकी पहचान एक ऊंची दीवार एवं द्वार से थी. नालंदा में आठ अलग-अलग परिसर और दस मंदिरों के साथ कई अन्य ध्यान कक्ष और कक्षाएं भी थीं.

माना जाता है कि कुमारगुप्त ने पांचवीं शताब्दी में महाविहार की स्थापना की थी. बुद्धगुप्त, नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त तृतीय आदि कई गुप्त राजाओं की मुहरें नालंदा में पायी गयी हैं. नालंदा दुनिया में बौद्ध शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र बन गया था, जो 13वीं शताब्दी तक 800 से अधिक वर्षों तक चला. चीन के तीन भिक्षु छात्रों के यात्रा वृत्तांतों में पांचवीं से सातवीं शताब्दी तक के भारत के सामाजिक जीवन और नालंदा में शैक्षणिक जीवन के बारे में आकर्षक जानकारी है.

उनमें शहरी जीवन, कानून, चिकित्सा, शुद्धता और प्रदूषण मुक्ति के प्रति जुनून, भोजन संबंधी वर्जनाओं, अस्पृश्यता और सामाजिक संघर्षों का वर्णन है. आज समकाल में भी नालंदा इन सभी प्रश्नों के प्रति संवेदनशील है तथा गतिशील भी.

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