नथुनी ठाकुर दो दशकों से घोंसले बनाकर पाल रहे हैं गौरेया, कहा होती है आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति
विश्व गौरेया दिवस पर विशेष
श्रीनारद मीडिया, सीवान(बिहार):
हमारी सुख-सुविधाएं तो बढ़ी हैं।लेकिन हमारी सोच सिकुड़ती-सिमटती जा रही हैं।हमारे दिल में नन्हीं-सी गौरेया के लिए जगह नहीं है। नतीजतन, नन्हीं-सी चिड़िया गौरेया घर हमारे घर के आंगन में फुदकने-चहचहाने के बजाय हमसे दूर होती जा रही हैं। उनका दूर होते जाना इस बात का द्योतक है कि हमारी संवेदनशीलता अपने परिवेश के प्रति कमती जा रही है।
एक जमाना था,जब गौरेया हमारे घर के मुंडेर पर घंटों चहकती थी और सहज भाव से आंगन में उतर आती थी, मानो हमारी नन्हीं बिटियां से बतियाने आती हो और न जाने बिटिया के कानों में क्या बूदबुदाती जाती थी कि बिटियां अपने आप घंटों बिहंसती, मुस्कुराती और चहकती रहती थी।अलबत्ता, बिटियां उसे पकड़ कर अपने मन की बात कह देना चाहती थी,लेकिन तबतक वह फूदकती हुई कहीं दूर चली जाती थी। शायद यह कहते हुए कि फिर कल मुलाकात होगी तो ढेर सारी बातें होगीं।
हां,दादी उस बतकही का हिस्सा बने बिना धीरे से लाकर चावल की खुदी झिड़क देती और फिर टुकुर-टुकुर गौरेया की फुदकन को निहारती और मन ही मन इठलाती-धधाती रहती। पता न किसकी नज़र लग गयी, नन्हीं-सी गौरैया अब घर के आंगन में नहीं आ पा रही है।आती भी है तो सशंकित। ठहरती नहीं, रुकती नहीं, बतियाती नहीं। एक अघोषित भय से भयाक्रांत गौरेया अब चुपके से आती है और फिर फुर्र हो जाती है।
घर-घर की चिड़िया गौरैया आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। भारत के पक्षी वैज्ञानिकों के अनुसार गत कुछ सालों में गौरैया की संख्या में भारी गिरावट आयी है। जब गौरेया हमारी आंखों से ओझल हो रही थी,आंगन से कलरव खत्म हो रहा था तो हमने शायद इसे गंभीरता से नहीं लिया।और जब वह नहीं दिखती तो हमारी तंद्रा टूटती है।
हालांकि गौरेया अब भी आंगन में कभी-कभार उतरती है तो मन को संतुष्टि मिलती है। हमारे जीवन से इस तरह गौरेया के गायब होते जाने के कारणों का विश्लेषण से पता चलता है कि हम मनुष्यों की आधुनिक जीवन शैली और पर्यावरण के प्रति उदासीनता ही इसके के लिए जिम्मेदार है। मुझे याद है कि जब हमारा घर बन रहा था तो दादी ने राजमिस्त्रियों को अपना फरमान जारी कर रखा था कि गौरयों के लिए घर के आंगन घोंसले जरुर बनाना है। हुआ भी ऐसा ही।
आज भले हमारे घर बड़े-बड़े जरुर बन रहे हैं।लेकिन आधुनिक बनावट वाले मकानों में गौरैया को अब घोंसले बनाने की इजाजत नहीं है, उसके लिए जगह नहीं मिलती है। भले हमारे घर बड़े हो रहे हैं,लेकिन हमारा दिल छोटा होता जा रहा हैं।जहां कुतों के लिए जगह होती है,लेकिन नन्हीं-सी गौरेया के लिए नहीं।
अलबत्ता जहां गौरेया के लिए जगह मिलती है, वहां हम उसे घोंसला बनाने नहीं देते।हम अपने घर में थोड़ी-सी गंदगी बर्दाश्त नहीं करते और इतनी मेहनत से तिनका-तिनका जुटाकर बनाया गया गौरेये के घर उजाड़ देते हैं। गौरेया हमारे घरों में जितना सुरक्षित है,उतना बाहर नहीं। बाहर में गौरेये के जन्मे-अजन्मे बच्चों को बिल्ली, कौए, चील, बाज आदि पर भक्षियों का शिकार होना पड़ता है। शहरों और गांवों में बड़ी तदाद में लगे मोबाइल फ़ोन के टावर भी गौरैया समेत दूसरे पक्षियों के लिए बड़ा ख़तरा बने हुए हैं। इनसे निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें उनकी प्रजनन क्षमता पर बुरा प्रभाव डालती हैं। बताया जाता है कि उनके दाना-पानी का जुगाड़ कर पाना भी एक समस्या है।
लेकिन इन सबके बीच सीवान जिले के बड़हरिया प्रखंड के ज्ञानी मोड़ से सुखद समाचार आया है। बड़हरिया प्रखंड के कैलगढ़ गांव निवासी नथुनी ठाकुर का ज्ञानी मोड़ स्थित सैलून को गौरेयों का रैन बसेरा बना हुआ है। करीब 20 सालों से गौरेयों के लिए समर्पित नथुनी ठाकुर की दिनचर्या में गौरेयों की देखभाल शामिल है।पहले कार्टून या डिब्बों से उनके लिए घोंसले तैयार करना, फिर उनके लिए दाना-दुनका एकत्रित करना और पानी की व्यवस्था करना नथुनी ठाकुर की दिनचर्या में शामिल है। उनके सैलून के बरामदे में लटक रहे दर्जनों घोंसले इस बात का गवाह हैं कि ठाकुर जी गौरेयों की देखभाल किसी पूजा से कम नहीं है। नथुनी ठाकुर कहते हैं कि गौरेयों की चहचहाहट और कलरव से उन्हें आध्यात्मिक सुख मिलता है। यह भी साबित होता है कि भले जगह छोटी है,लेकिन उनका दिल बहुत बड़ा है। यहीं नहीं श्री ठाकुर सुबह सुबह जब दुकान खोलते है तो बहनी की चिंता किये वगैर पहले गौरेयों के लिए कटोरियों में पानी भरते है, दाना डालते है फिर उसके बाद अपनी जीविकोपार्जन के कार्य में लग जाते है। श्रीनारद मीडिया परिवार इस कार्य के लिए नथुनी ठाकुर को सहृदय धन्यवाद देती है तथा समाज के अन्य सक्षम लोगों से अपील करती है कि नथुनी ठाकुर द्वारा किये जा रहे कार्यों से प्रेरणा लेकर अपने आस पास गौरेया चिडि़यों को संरक्षित करने का प्रयास करें।
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