मर्यादा में रहकर बात करना सीखने की जरूरत,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत में आस्थाओं पर स्वस्थ संवाद की परंपरा बहुत पुरानी और सम्मान्य रही है। ईसा से पांच सौ वर्ष पूर्व बौद्ध और जैन धर्मों के निरीश्वरवादी आचार्य सदियों से चले आ रहे ईश्वरवाद और उससे जुड़े दर्शनों को अपने प्रखर तर्कों से चुनौती दे रहे थे तो नितांत भौतिकवादी लोकायत या चार्वाक दर्शन के आचार्य बृहस्पति बौद्ध और जैन धर्मों को चुनौती दे रहे थे। उस युग के किसी धर्म या दर्शन का कोई ऐसा बड़ा ग्रंथ नहीं मिलेगा, जिसमें दूसरे दर्शनों की बातें न रखी गई हों। ये बातें उन इतिहासकारों की धारणा का खंडन करती हैं, जो प्राचीन भारत में धार्मिक असहिष्णुता खोजने का प्रयास करते हैं।

यह परंपरा भारत में नए पंथों के आगमन और विदेशी आक्रमणों के बावजूद जारी रही। अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने लिखा है कि 1578 में इबादतखाने में हुए दार्शनिक सम्मेलन में चार्वाक दर्शन के आचार्यों ने भी भाग लिया था। अफसोस की बात है कि शिक्षा और विकास के इस युग में आस्थाओं पर संवाद की परंपरा फलने-फूलने के बजाय उसका अस्तित्व ही खतरे में दिख रहा है। ज्ञानवापी से मिली सामग्री और भाजपा के दो पूर्व प्रवक्ताओं के बयानों पर उठे बवाल के बाद विश्व हिंदू परिषद ने ईशनिंदा कानून की मांग की है।

भारत का अधिकांश मुस्लिम समुदाय पहले से ही ऐसे कानून की मांग करता आया है। तीन तलाक के खिलाफ कानून, स्कूलों में हिजाब पर पाबंदी और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों के साथ इतिहास की बातें मुस्लिम समुदाय को बेचैन कर रही हैं। हालांकि ईशनिंदा कानून का इनसे कोई सीधा संबंध नहीं, फिर भी उसे इसमें सुरक्षा दिखाई देती है।

हिंदुओं के एक बड़े वर्ग को लगने लगा है कि जैसी तत्परता दूसरे धर्मावलंबियों की आस्था के बचाव में दिखाई जाती है, वैसी उनकी आस्था के बचाव में नहीं दिखाई जाती। जैसे ज्ञानवापी सर्वेक्षण के बाद से हिंदू देवी-देवताओं को लेकर इंटरनेट मीडिया और चैनलों की बहस के दौरान जिस घटिया दर्जे की टीका-टिप्पणी हो रही है, उससे आस्था को ठेस पहुंचने से अधिक लिखने-बोलने वालों की मानसिकता पर जुगुप्सा होती है, लेकिन इसे रोकने के लिए कोई आवाज नहीं उठ रही।

जब एक टीवी चैनल की बहस में सत्तारूढ़ पार्टी की एक प्रवक्ता के तथ्यात्मक तंज पर और दूसरे प्रवक्ता के ट्वीट पर विश्वस्तरीय हंगामा खड़ा हो गया तो हिंदुओं को लग रहा है कि उनकी आस्थाओं की समीक्षा तो सहिष्णु उदारवाद के अभ्यास के रूप में देखी जाती है, लेकिन दूसरे धर्मावलंबियों की आस्थाओं की समीक्षा को सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाली धर्माधता बताकर बवंडर खड़ा कर दिया जाता है। आ

स्थावान हिंदुओं को सबसे अधिक तीखी आलोचना और व्यंग्य बाण हिंदुओं के ही उस वर्ग से झेलने पड़ रहे हैं, जो यूरोप के ईसाई वर्ग की तरह निरीश्वरवादी और नास्तिक बनता जा रहा है, पर दोनों में एक बुनियादी अंतर यह है कि यूरोप के निरीश्वरवादी-नास्तिक आस्थावान धर्मावलंबियों पर टिप्पणी करते समय मर्यादा का ध्यान रखते हैं।

इसके विपरीत भारत में ज्ञानवापी सर्वेक्षण के बाद देखा गया कि निरीश्वरवादी हिंदू वर्ग द्वारा की गई टिप्पणियों ने सारी मर्यादाएं तोड़ दीं। यह स्थिति दूसरे धर्मावलंबियों के साथ-साथ आस्थावान हिंदुओं को भी उस रास्ते पर धकेल रही है, जिससे यह देश हजारों साल से दूर रहता आया है। इस्लामी शासन में करीब छह सौ बरस बिताने के बाद भी भारत ने आस्थाओं पर खुले संवाद की गुंजाइश बनाए रखी और ईशनिंदा कानून की जरूरत महसूस नहीं होने दी।

आज हिंदुओं के परस्पर विरोधी वर्गों और दूसरे धर्मावलंबियों के बीच जरा-जरा सी बातों पर चलने वाली अंतहीन बहस और ओछी टिप्पणियों से फैली कड़वाहट की रोकथाम के लिए ईशनिंदा कानून एक आसान उपाय लगता है, पर ऐसा है नहीं। मध्ययुगीन यूरोप, मध्य और पश्चिम एशिया का इतिहास ईशनिंदा के नाम पर लोगों को दी गई भीषण यातनाओं से भरा पड़ा है।

बदला निकालने के लिए लोगों को विधर्मी और ईशनिंदक घोषित कर जिंदा जला देना या भीड़-हिंसा में मार डालना आम बात थी। दुनिया के करीब 80 देशों में आज भी ईशनिंदा और धर्मत्याग विरोधी कानून हैं। इनकी आड़ में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और खाड़ी के कई देशों में हर साल दर्जनों लोगों की हत्या की जाती है या मौत की सजा दी जाती है। सच यह है कि ईशनिंदा कानून बनाना जितना आसान है, उसका दुरुपयोग रोकना उतना ही मुश्किल।

सबसे बड़ी समस्या रूढ़िवादिता की तरफ बढ़ते उस रुझान की है, जो हमें ईशनिंदा कानून की ओर ले जाती है। शिक्षा और विकास की वजह से समाज में अतीत का सही मूल्यांकन करने का विवेक और साहस आना चाहिए, ताकि वर्तमान को सही दिशा देकर बेहतर भविष्य की योजनाएं बनाई जा सकें, लेकिन मजहबी बातों को लेकर बढ़ती कड़वाहट के चलते आपसी संवाद के दरवाजे बंद होते जा रहे हैं।

इससे आस्थाओं और मान्यताओं का पुनर्मूल्यांकन करने और उन्हें बदलते समय के हिसाब से ढालने की संभावना भी क्षीण हो रही है। कहां तो संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता का पालन करने वाले एक समरस समाज के सपने देखे थे। कहां विभिन्न धर्मावलंबी अपनी-अपनी पारंपरिक मान्यताओं की कोठरी में कैद होने में जुट गए हैं।

आस्था तो दूर, अब तो इतिहास, साहित्य और कलाओं पर भी संवाद की गुंजाइश नहीं दिखती। उसे भी निंदा के रूप में देखा जाने लगा है। आस्थाओं के प्रश्न पर ताले लगा चुके, ईशनिंदा और धर्मत्याग विरोधी कानूनों के आदी समाजों के लिए यह एक सहज स्थिति हो सकती है, मगर हजारों वर्षों से खुले संवाद के परिवेश में रहे भारत जैसे देश के लिए यह किसी अनजाने अंधियारे अतीत में जाने से कम नहीं।

ईशनिंदा कानून तो समाज के उन वर्गों के वैचारिक विकास और सुधार के दरवाजे बंद करेगा, जिन्हें उनकी सबसे अधिक जरूरत है। क्या हम ईशनिंदा कानून बनाए बिना मौजूदा कानूनों के सहारे वैसा सामाजिक सौहार्द नहीं बना सकते, जैसा सिंगापुर में दशकों से बना हुआ है? क्यों नहीं? पर इसके लिए सबसे पहले हमें मर्यादा में रहकर बात करना सीखना होगा, ताकि आस्थाओं पर संवाद बहाल हो सके। हमें सबकी आस्थाओं को समान आदर देना और सबको साथ लेकर चलना होगा और हां, असहिष्णुता के समक्ष झुकना बंद करना होगा।

 

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