पुरानी पेंशन योजना को अब अपने राज्यों में बहाल करने के वादे होने लगे हैं!
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
अनेक लोगों को लगता है कि हाल ही में हिमाचल प्रदेश में हुए चुनावों में कांग्रेस की जीत का सबसे प्रमुख कारण पुरानी पेंशन स्कीम या ओपीएस को लागू करने का उसका वादा था। इस वादे ने राज्य के मतदाताओं को आकृष्ट किया, क्योंकि वोटरों का एक बड़ा प्रतिशत इसके पक्ष में था।
हालांकि यह कहना एक ओवरस्टेटमेंट होगा कि कांग्रेस की जीत का यही इकलौता कारण था। दूसरे मुख्य कारण भी थे, जैसे महंगाई, बेरोजगारी, सेब की पैकेजिंग पर बढ़े हुए जीएसटी की समस्या आदि, जिनके कारण कांग्रेस वोटरों को अपने पक्ष में लामबंद करने में सफल रही। राज्य में भारतीय जनता पार्टी की अंतर्कलह का फायदा भी कांग्रेस को मिला।
लेकिन अनेक सरकारों और राजनीतिक दलों को अब भनक लग गई है कि आने वाले चुनावों में पुरानी पेंशन योजना एक महत्वपूर्ण फैक्टर साबित हो सकती है। इसलिए अब वे भी अपने राज्यों में इसे बहाल करने के वादे करने लगे हैं, फिर भले ही यह उनकी वित्तीय दशा के लिए नुकसानदेह साबित हो।
हाल के दिनाें में हिमाचल प्रदेश के अलावा चार राज्यों- पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड ने पुरानी पेंशन योजना की बात की है और अपने कर्मचारियों के सामने यह विकल्प रखा है कि या तो वे पुरानी पेंशन योजना को अपनाएं या नई पेंशन योजना के ही हितग्राही बने रहें।
यह मानना तो खैर सरलीकरण होगा कि पेंशन योजना इस साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों और अगले साल के लोकसभा चुनावों में ज्यादा बड़ा मुद्दा बन सकेगी, क्योंकि इससे लाभान्वित होने वाले वर्ग की संख्या छोटी ही है। ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए समझदारी भरा कदम यही होगा कि दूसरे अहम मुद्दों को भुनाने के साथ ही वे पेंशन संबंधी वादों को भी अपने चुनावी एजेंडा का एक हिस्सा बनाएं।
बहरहाल, इसमें संदेह नहीं कि हिमाचल प्रदेश में चुनाव-उपरांत सर्वेक्षणों के नतीजों के अनुसार पुरानी पेंशन योजना लागू करने के वादे से कांग्रेस को फायदा मिला था, क्योंकि ओपीएस का समर्थन करने वाले 56 प्रतिशत वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया, जबकि इसके विरोधी मतदाता 14 प्रतिशत ही थे।
इसके विपरीत, ओपीएस के वादे का विरोध करने वाले 74 प्रतिशत मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया, जबकि केवल 33 प्रतिशत ओपीएस समर्थकों के वोट ही भारतीय जनता पार्टी के खाते में आए। यानी इस मसले पर कांग्रेस को स्पष्ट एडवांटेज मिला। हिमाचल प्रदेश में शासकीय सेवक बड़ी संख्या में हैं, जो इस योजना से लाभान्वित होते हैं। यही कारण था कि बिजनेस कम्युनिटी के वोटरों ने इसके प्रति कोई खास रुचि नहीं दिखलाई।
वास्तव में हिमाचल में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की हार का एक मुख्य कारण केंद्र सरकार की अग्निवीर योजना भी थी, क्योंकि लोग पहले ही बढ़ती बेरोजगारी और आसमान छूती महंगाई से परेशान थे। हिमाचल में सेब का उत्पादन करने वाले किसानों की तादाद बहुत बड़ी है और सेब की पैकेजिंग पर जीएसटी दर में वृद्धि का खामियाजा भी भारतीय जनता पार्टी ने भुगता।
इसके उलट कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में वादा किया था कि वह एक होर्टिकल्चर कमीशन का गठन करेगी, जिसमें सेब-उत्पादक किसान सदस्य होंगे। साथ ही वह सेब की पैकेजिंग पर जीएसटी को 18 प्रतिशत से कम करेगी। यह वादा भी कांग्रेस के पक्ष में गया।
यानी वोटरों की अलग-अलग समस्याएं होती हैं और विभिन्न वर्गों के वोटर अपनी निजी चिंताओं से संचालित होते हैं। इस साल जब नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे, तो उनमें भी हर राज्य के स्थायी मसले उनमें निर्णायक भूमिका निभाएंगे।
2022 में हुए विधानसभा चुनावों में देखा गया था कि एक राज्य के ही भीतर विभिन्न प्रकार के मुद्दे महत्वपूर्ण साबित हुए थे। वैसे में लोकसभा चुनावों की बात तो रहने ही दें, जो कि राष्ट्रव्यापी मुद्दों पर लड़ा जाता है। 2024 के आम चुनावों में राम मंदिर, राष्ट्रीय सुरक्षा, प्रधानमंत्री की लोकप्रियता जैसे फैक्टर ज्यादा कारगर साबित होंगे।
वैसे में पुरानी पेंशन योजना लोकसभा चुनावों में तो गेमचेंजर साबित नहीं होगी, वहीं विधानसभा चुनावों में वह भले ही एक फैक्टर सिद्ध हो, यह मानना भ्रमपूर्ण ही होगा कि वह एक इकलौते फैक्टर के रूप में चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखेगी।
राजनीतिक दलों को भनक लग गई है कि चुनावों में पुरानी पेंशन योजना एक महत्वपूर्ण फैक्टर साबित हो सकती है। इसलिए हिमाचल प्रदेश की तरह वे भी अपने राज्यों में इसे बहाल करने के वादे करने लगे हैं।
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