भोजपुरी भाषा साहित्य के शुभचिंतक केदारनाथ सिंह जी के पुण्यतिथि प आखर परिवार बेर बेर नमन क रहल बा ।
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
जन्मतिथि – 7 जुलाई 1934, पुण्यतिथि – 19 मार्च 2018
लोकतन्त्र के जन्म से बहुत पहले का
एक जिन्दा ध्वनि लोकतंत्र है यह
जिसके एक छोटे से ‘हम ’ में
तुम सुन सकते हो करोडों
‘मैं ’ की धड़कनें”.
-केदारनाथ सिंह
केदारनाथ सिंह जी के जन्म , उत्तर प्रदेश के बलिया जिला के चकिया गांव में भइल रहे । शुरुवाती शिक्षा गांव प आ फेरु उदय प्रताम कालेज आ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बाकी के शिक्षा भइल । इहां के गोरखपुर में सेंट एंड्र्युज कालेज में पढवनी आ बाद में जे एन यु में भारतीय भाषा केंद्र में आचार्य आ बाद में अध्यक्ष रहनी । इहां के क गो अलग अलग राज्य से हिंदी खातिर मशहूर सम्मान मिलल रहे, इहां के साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलल रहे ।
तो मैंने भागीरथी से कहा-
माँ,
माँ का ख़्याल रखना
उसे सिर्फ़ भोजपुरी आती है।
केदारनाथ जी भोजपुरी में कुछ कविता कुछ लेख लिखले रहनी बाकिर इ कुल्ह उहां के डायरी में ही रहि गइल प्रकाशित ना हो पावल । आज उहां के पुण्यतिथि प पढी उहें के लिखल भोजपुरी लेख –
हिंदी भुला जानी – केदारनाथ सिंह
पर किस तरह मिलूँ
कि बस मैं ही मिलूँ,
और दिल्ली न आए बीच में
क्या है कोई उपाय!
– ‘ गाँव आने पर’
जहाँ गंगा आ सरजू ई दूनो नदी क संगम बा, ओसे हमरे गाँव के दूरी लगभग आठ किलोमीटर होई। दूनो नदी क बीच में पड़ला के वजह से एह इलाका के ‘दोआब’ कहल जाला। एक तरह से ई इलाका उत्तर प्रदेश आ बिहार के सीमा-रेखा पर बा, बाकिर सांस्कृतिक दृष्टि से ए इलाका के संबंध बिहार से अधिका बा, खाली नाता-रिश्ता ना, बल्कि खान-पान आ बोलियो-बानी बिहारे से अधिक मिलेले। ऐ क्षेत्र के भोजपुरी गाजीपुर आ बनारस के भोजपुरी के अधिका निकट पड़ेले जवन अपने बनावट में आरा जिला भोजपुरी के अधिका निकट ह।
हमरा गाँव से चार किलोमीटर दक्खिन गंगा बाड़ी आ करीब-करीब ओतने उत्तर सरजू। कहल जा सकेला कि ई दूनो नदी के माटी-पानी से ई इलाका बनल बा। पहिले जब बाँध ना बनल रहे त जुलाई-अगस्त के महीना में ई दूनो नदी मिल के एक हो जात रहल। हमरा इयाद में ऊ छोटकी नदी बहुत गइराई में कहीं आजो मौजूद बा जवन हमरा चबूतरा के सामने बहेले आ एक ओर जहाँ ओकर एक छोर गंगा से मिलेले त दूसर सरजू से। शायद एही वजह से नदी के साथ हमार मन के बहुत गहरा जुड़ाव बा।
जवना गाँव में हम पैदा भइल रहनी ओकर नाम ह चकिया। एक ठीक-ठीक इतिहास त हमरा पता ना बा, बाकिर ए संबंध में कई तरह के कहानी सुनल जाले जवने के सार इहे ह कि एह गाँव के मूल निवासी कहीं बाहर से आइल रहे आ नदी के किनारा देखके इहें सब गइलें। पहिले जब आवागमन के साधन के साधन कम रहे त एह नदी क उपयोग व्यापारिक काम खातिर होत रहे।
धीरे-धीरे एकर उपयोग कम होत गइल आ हालत ई बा कि नदी अब नाममात्र के नदी रह गइल बा। कभी केहू के एह विषय पर खोज करे के चाहीं कि देश के दूरवर्ती भाग में बहे वाली अइसन असंख्य नदियन के आज का हालत बा। सभ्यता के विकास के साथ-साथ नदी काहें सूखत जात बाड़ी स? ई हमनी के समय के एगो बड़ सवाल बा, जवना के उत्तर हमनी के खोजे के चाहीं।
लगभग पचास साल पहिले चकिया छोड़लीं, हालाँकि चकिया से संबंध अभिनों छूटल नइखें, बीच-बीच में जात रहीलें, बाकिर अब गइला बुझाला जइसे कवनो परदेसी लेखा भा जादे से जादे कवनो मेहमान लेखा। ई स्थिति बहुत तकलीफदेह होले आ एकरा दंश से बचल मुश्किल होला। सब गाँवन के तरह हमारी गाँव ऊ नइखे रह गइल जवन हम छोड़ले रहलीं। हवा-पानी से लेके विचार-व्यवहार तक बहुत बड़ बदलाव देखल जा सकेला। एगो बहुत प्रत्यक्ष बदलाव त ईहे बा कि गाँव के जवन तथाकथिक शिक्षित वर्ग बा शायद उहे सबसे अशिक्षितों बा। असल में जवना तरह से ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा के विकास हो रहल बा, ई बुनियादी दोष ओकरे में निहित बा, बाकिर इहाँ ओ प्रसंग के विस्तार में गइले के जरूरत नइखे।
पहिले हमरा परिवार में खेती-बारी होत रहे, अब ऊ बंद हो गइल बा। खेती जादे ना रहे, बाकिर खाए-पीए लायक हो जाए-ओमें से कुछ खेती आजो बाँचल बा। ओकरा के हम बचा के रखले बानी। एह पवित्र मोह खातिर कि कभी-कभी एही बहाने गाँवे जात रहीं।
अब गाँव गइले पर सबसे बड़ा समस्या ई होला कि बतियाईं केकरा से! हमरा अपना उमिर के जतन संगी-साथी बाड़े ऊ अपना-अपना काम में व्यस्त रहेलें, आ ओमें से कई लोग बाहर चल गइलें। बहुत लोग त ए दुनिया में अब नइखे। एह समस्या के समाधान हम एह तरह से खोजले बानी कि गाँव में जेतना दिन हम रहेलीं – हिंदी भुला जानी। कभी केहू पढ़ल-लिखल हिंदी बोलबो करेला त हम धन्यभाग से भोजपुरिए बोले के कोशिश करेलीं।
एकर दू गो फायदा बा – जहाँ भोजपुरी के अभ्यास ताजा हो जाला उहें एक बार हिंदी के एक तरफ रख देला के बाद गाँव के छोट-से-छोट आदमी से बतियइले में कवनो बाधा-व्यवधान ना रह जाला। भोजपुरी के सहज आत्मीयता हमराए अहसासों के तार-तार कर देले कि हम परदेसी हो गइल बानीं। तबो गाँव के चीज आ अपना संबंध में एगो छोट घटना क जिक्र करब। एगो हमार बचपन के से साथी, जेकर एही साल निधन हो गइल ह, हमरा रास्ता में मिल गइल त ए अनचीन्हारपन के अउर तीखा बोध भइल। ओकर नाम जगरनाथ रहे आ आज के भाषा में ओके दलित कहल जाई।
त काफी लमहर अंतराल के बाद मिलला पर हम जगरनाथ से कहनी कि साँझ के तोहसे भेट होखे के चाहीं। साँझ के जगरनाथ अइले, आवते सवाल कइले – ‘बताईं कौन काम बा?’ हम जगरनाथ के कौनों काम खातिर ना बोलइलें रहीं, असहीं मिलें खातिर बोलइलें रहीं। बाकिर उनका सवाल के बाद हमरा पहिला दफे ई महसूस भइल कि एतना दिन गाँव से बाहर रहला के बाद खुद गाँव के लोगन से हमरा संबंध चुपचाप बदल गइल बा। ई ए गो आघात नियन रहल लेकिन एकरा बावजूद हम लगातार ई कोशिश करत रहलीं आ आजुओ करीलें कि गाँव जाईं त ओकरा चौहद्दी में ओसहीं प्रवेश करीं जइसे आज से पचास साल पहिले करत रहीं। लेकिन ई पचास बरस के टाइम के नकारल ना जा सकेला, अब त कई बार गइला पर ईहो सोचे के पड़ेला – जइसन अपना एगो हिंदी कविता में हम लिखले बानीं –
आ तो गया हूँ
पर क्या करूँ मैं?
-‘गाँव आने पर’
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