पूण्यतिथि पर याद किये गये महान शिक्षा ऋषि पद्मश्री एवं पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित विश्वकर्मा समाज के गौरव कल्याण देव जी महाराज
श्रीनारद मीडिया, सुबाष शर्मा, सीवान (बिहार):
अखिल भारतीय विश्वकर्मा महासभा’ के सिवान जिला ईकाई द्वारा महान शिक्षा ऋषि पद्मश्री एवं पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित विश्वकर्मा समाज के गौरव कल्याण देव जी महाराज के 19वें पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन व्यापार मंडल कालोनी स्थित जिला कार्यालय पर किया गया।इस दौरान उनके जीवनी पर प्रकाश डालते हुए वक्ताओं ने कहा कि निष्काम, कर्मयोगी, तप, त्याग और सेवा की साक्षात मूर्ति ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव महाराज का जन्म वर्ष 1876 में जिला बागपत के गांव कोताना में उनके ननिहाल में हुआ था। उनका पालन पोषण मुजफ्फरनगर के अपने गांव मुंडभर में हुआ था। उन्होंने वर्ष 1900 में मुनि की रेती ऋषिकेश में गुरूदेव स्वामी पूर्णानन्द जी सेे संन्यास की दीक्षा ली थी। अपने 129 वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने 100 वर्ष जनसेवा में गुजारे। स्वामी जी ने करीब 350 शिक्षण संस्थाओं के साथ कृषि केन्द्रों, गौशालाओं, वृद्धा आश्रमों, चिकित्सालयों आदि का निर्माण कराकर समाजसेवा में अपनी उत्कृष्ठ छाप छोड़ी।
ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव जी के प्रमुख शिष्य एवं उत्तराधिकारी ओमानन्द जी के अनुसार स्वामी कल्याणदेव जी को उनके सामाजिक कार्यों के लिये तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने 20 मार्च 1982 में ‘पदमश्री’ से सम्मानित किया। इसके बाद 17 अगस्त 1994 को गुलजारी लाल नन्दा फाउंडेशन की ओर से तत्कालीन राष्ट्रपति डा0 शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें नैतिक पुरूस्कार से सम्मानित किया। 30 मार्च 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नरायणन द्वारा ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। इसके बाद चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ के दीक्षांत समारोह में उन्हें 23 जून 2002 को तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री ने साहित्य वारिधि डी–लिट उपाधि प्रदान की।स्वामी ओमानन्द के अनुसार ब्रह्मलीन स्वामी कल्याणदेव महाराज अपने जीवनकाल में कभी भी रिक्शा में नहीं बैठे। लखनऊ, दिल्ली रेलवे स्टेशनों पर जाकर भी वे हमेशा पैदल चला करते थे।
उनका तर्क था कि रिक्शा में आदमी, आदमी को खींचता है जो कि पाप है। पांच घरों से रोटी की भिक्षा लेकर एक रोटी गाय को दूसरी रोटी कुत्ते को तीसरी रोटी पक्षियों के लिये छत पर डालते थे। बची दो रोटियां को वह पानी में भिगोकर खाते थे।ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव जी महाराज ने ब्रह्मलीन होने के एक वर्ष पहले ही अपने शिष्य स्वामी ओमानंद महाराज को अपनी समाधि का स्थान बता दिया था। यहां तक की मृत्यु के तीन दिन पहले स्वामी ने अंतिम सांस लेने से दस मिनट पहले शुक्रताल स्थित मंदिर व वटवृक्ष की परिक्रमा की इच्छा जताई थी।
उनकी इच्छानुसार उनके अनुयायियों ने ऐसा ही किया। इस दौरान भगवान श्रीकृष्ण का चित्र देखकर उनके चेहरे पर हंसी आ गई। वह कहा करते थे कि अपनी जरूरत कम करो और जरूरतमंदो की हरसंभव मदद करो। परोपकार को ही वह सबसे बड़ा धर्म मानते थे, ऐसा उन्होंने जीवन पर्यन्त किया भी।ऐतिहासिक श्रीमद्भागवत की उद्गम स्थली शुकतीर्थ के विकास को वीतराग स्वामी कल्याणदेव महाराज ने जीवन पर्यंत तप, त्याग और सेवा की। तीन सदी के दृष्टा 129 वर्षीय ब्रह्मलीन स्वामी कल्याणदेव का जीवन विराट, विलक्षण पुरुषार्थ का प्रतीक था।
उनके कृतित्व की कहानियां समाज और राष्ट्र को प्रेरणा देती है। वर्ष 1944 में प्रयाग कुम्भ में संत महात्माओं की मौजूदगी में संगम तट पर गंगाजल हाथ में लेकर स्वामी कल्याणदेव ने शुकतीर्थ के जीर्णोद्धार का संकल्प लिया। पंडित मदन मोहन मालवीय ने चार सितम्बर 1945 को शिक्षा ऋषि को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एक पत्र लिखा, जिसमें शुकदेव आश्रम में श्रीमद्भागवत के विद्वान वैदिकों से यज्ञ और उपदेश कराने की सलाह दी। 14 जुलाई 2004 को पावन वटवृक्ष और शुकदेव मंदिर की परिक्रमा कर दिव्य संत ब्रह्मलीन हो गए। मोके पर राधेश्याम शर्मा, अजय शर्मा, बिनोद शर्मा सहित सैकड़ों विश्वकर्मा समाज सहित अन्य समाज के अतिथि शामिल थे।
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