वैलेंटाइन दिवस पर प्रेम को हम उसके असली स्वरूप का हक़ दें
वैलेंटाइन दिवस पर विशेष
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
वैलेंटाइन वीक पिक पर है। 14 को तथाकथित प्रेम के दीवाने अपने काल्पनिक और मायावी प्रेम की आंच की गर्मी से खुब फफनाएगे और स्वत: हीं स्वाहा हो जाएंगे। क्योंकि वो प्रेमी हैं हीं नहीं।वो सिर्फ़ प्रेम के मार्केटिंग मैनेजर हैं।उनको पता ही नहीं कि Rose-day,propose-day,kiss-day,hug-day, valentine-day वाली हमारी संस्कृति है हीं नहीं।और जो प्रेम संस्कारिक नहीं वह वेश्यावृत्ति है,आसक्ति है।वह आसक्ति बाज़ारू है,बिकाऊ भी।पर प्रेम तो बिकता हीं नहीं।वह तो अनमोल है।
तो याद रखना valentine वाले पागल आशिको!कि प्रेम का कोई बाजार नहीं होता।इसलिए उसका व्यापार नहीं होता और प्रचार भी नहीं होता। प्रेम छिछोरा प्रदर्शन नहीं चाहता बल्कि वह छिपना चाहता है अपनी नीजता में। प्रेम को गुलाब की नहीं बल्कि दिल की जरूरत है। प्रेम को बाज़ारवाद पसंद नहीं और ना ही फुहड़ता पसंद है।वह तो सिर्फ आंतरिक अनुभूति की मौन अभिव्यक्ति पसंद करता है।
तो valentine वाले मजनुओं!यह जान लो कि प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती,कोई बंधन नहीं होता,सीमा नहीं होती। प्रेम का कोई व्याकरण नहीं होता। प्रेम व्याकरण की कोई क्रिया नहीं जिसे करना पड़े।वह होता हीं है स्वत:।Not any activity,only existence.क्रिया को करना पड़ता है योजना बनाकर तभी फल प्राप्त होता है। परन्तु प्रेम अपने आप हीं होता है स्वत:।उसे करना नहीं पड़ता। क्रिया स्वार्थी है, प्रेम परमार्थी है, नैसर्गिक है। उसके लिए किसी योजना की जरूरत नहीं होती। योजना बनाकर किया गया प्रेम दरअसल अपराध है, साज़िश है। परन्तु यह दुसरा मुद्दा है।
प्रेम को सोशल-मीडिया, सिनेमा,या TV Channel का भौकाली फुहड़ प्रदर्शन भी पसंद नहीं।वह तो मन के एकांत वीराने में हीं पनपता है अपने आप। कहीं भी, कभी भी, किसी से भी।उसे कोई बंधन स्वीकार नहीं।न जाति का न धर्म का।न उम्र का न रंग का।न हैसियत का न क्षेत्र का। सिर्फ़ एक हीं बंधन है उसका-“विश्वास और समर्पण” का। वरना बदसुरत लैला-मजनूं ने जो किया उसे क्या नाम देंगे? रोमियो-जुलियट,हीर-राझा, राधा-कृष्ण, सलीम-अनारकली, कृष्ण -सुदामा, दुर्योधन -कर्ण आदि अनेको उदाहरण से प्रेम को एक नया आयाम मिला।
पति-पत्नी, दोस्त का प्रेम,बाप-बेटा,भाई-भाई का प्रेम प्रदर्शन करता है क्या अपने होने का? सुनियोजित होता है क्या?कत्तई नहीं। बल्कि वह होता हीं है स्वत:।और हां! प्रेम या तो होता है या नहीं होता।कम और ज्यादा का सवाल ही नहीं। परन्तु मंदबुद्धि वालों को ऐसा दिखता है। दरअसल वो अपने हृदय को उतना खोल ही नहीं पाते कि प्रेम उसमें समा जाए। जैसे फूल में सुगंध सबके लिए बराबर है उसी तरह अगर आपके अंदर प्रेम है तो सबके लिए बराबर होगा। कम-ज्यादा का सवाल ही नहीं।पर जो बेवकूफ हैं वो फूल को दरकिनार कर चल देते हैं लेकिन प्रेमियों का जीवन उसके खुशबू से ही महक उठता है। तात्पर्य यह कि अगर आपके अंदर प्रेम है तो वह सबको महकाएगा बिना किसी भेद के।
मगर आज के भौतिकवादी दुनिया में प्रेम का भी व्यापार होने लगा है।शोक!अरे मुर्खों! व्यापार फूलों का होता है, खुशबू नहीं बिकती।यह बात “फुल के दिवानो” को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। व्यापार शरीर(फूल)का हो सकता है प्रेम(खुशबू) का नहीं। valentine तरीके से प्रेम का इज़हार करने वालों को यह समझना हीं होगा कि प्रेम एक भावना है जो भगवान तक पहुंचाती है।तब याद रखना कि भावना और भगवान का व्यापार करने की औकात नहीं तुम्हारी। मगर हम चाहें तो सहज,सरल और निश्छल प्रेम से परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं। उन्हें आना हीं होगा। इतिहास गवाह है कि आए भी है।
तो आइए! प्रेम को हम उसके असली स्वरूप का हक़ दें।उसे valentine के फुहड़पन से बचा लें।
और हां!valentine वाले पागल मजनूंओ! गुलाब देने से पहले महाकुंभ में दिवंगत पुण्यात्माओं और पुलवामा अटैक में शहीद होने वाले सैनिकों के नाम पर भी दो बुंद घड़ियाली आंसू ही टपका देना। वरना वो पुण्यात्माएं अगर नाराज़ हुईं तो न तुम्हारा गुलाब बचेगा न उसकी खुशबू और ना ही उसे लेने वाला बाज़ारू कद्रदान!!
आभार-विनोद जी,डुमरी
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