निरपेक्षता के भाव को दूर करने के लिए एक देश एक कानून आज वक्त की जरूरत.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
तारीख- 23 नवंबर। दिन- मंगलवार। साल-1948। स्थान- नई दिल्ली स्थित संसद भवन का संविधान सभा कक्ष। समय- सुबह के दस बजे। मौका- संविधान सभा की बैठक में यूनिफार्म सिविल कोड (यूसीसी) पर चर्चा। तत्कालीन उप राष्ट्रपति एचसी मुखर्जी की अध्यक्षता में हो रही इस बैठक में यह तय किया जाना था कि यूसीसी को संविधान में शामिल किया जाए या नहीं।
सभागार के बाहर हाड़ जमा देने वाली ठंड के बावजूद अंदर पक्ष और विपक्ष की गर्मागर्म दलीलें जारी थीं। एक राय बनती न देख इसे संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में शामिल कर लिया गया। 73 साल बीत गए। आज हम आजादी के 75 साल पर अमृत महोत्सव मना रहे हैं, लेकिन यूसीसी को लागू नहीं कराया जा सका। संविधान का अनुच्छेद 37 कहता है कि नीति निर्देशक तत्वों को लागू कराना सरकार का मूल दायित्व है।
किसी भी पंथ निरपेक्ष देश में धार्मिक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं होने चाहिए। लेकिन यहां अलग-अलग पंथों के मैरिज एक्ट लागू हैं। जब तक समान नागरिक संहिता लागू नहीं होती है, तब तक संविधान में उल्लिखित देश के पंथ-निरपेक्ष भाव के मायने अस्पष्ट हैं। आजादी के बाद से ही यूसीसी की जरूरत महसूस की जाती रही है।
पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस दिशा में कदम भी उठाया लेकिन हिंदू कोड बिल ही लागू करा सके। संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे, लेकिन जब उनकी सरकार यह काम न कर सकी तो उन्होंने पद छोड़ दिया। इससे पहले इसे लागू कराने को लेकर विधि आयोग पहले से ही काम कर रहा है। कई बार इसे लागू कराने को लेकर सुप्रीम कोर्ट सरकार से सवाल-जवाब कर चुका है। ऐसे में छद्म पंथ-निरपेक्षता के भाव को दूर करने के लिए समान नागरिक संहिता यानी एक देश एक कानून आज वक्त की जरूरत है।
सुप्रीम कोर्ट की खरी-खरी
शाहबानो केस 1985
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘यह अत्यधिक दुख का विषय है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 मृत अक्षर बनकर रह गया है। यह प्रविधान करता है कि सरकार सभी नागरिकों के लिए एक ‘समान नागरिक संहिता’ बनाए लेकिन इसे बनाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। समान नागरिक संहिता विरोधाभासी विचारों वाले कानूनों के प्रति पृथक्करणीय भाव को समाप्त कर राष्ट्रीय अखंडता के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहयोग करेगी।’
सरला मुदगल केस 1995
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘संविधान के अनुच्छेद 44 के अंतर्गत व्यक्त की गई संविधान निर्माताओं की इच्छा को पूरा करने में सरकार और कितना समय लेगी? उत्तराधिकार और विवाह को संचालित करने वाले परंपरागत हिंदू कानून को बहुत पहले ही 1955-56 में संहिताकरण करके अलविदा कर दिया गया है। देश में समान नागरिक संहिता को अनिश्चितकाल के लिए निलंबित करने का कोई औचित्य नहीं है। कुछ प्रथाएं मानवाधिकार एवं गरिमा का अतिक्रमण करती हैं। धर्म के नाम पर मानवाधिकारों का गला घोटना स्वराज्य नहीं बल्कि निर्दयता है, इसलिए एक समान नागरिक संहिता का होना निर्दयता से सुरक्षा प्रदान करने और राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को मजबूत करने के लिए नितांत आवश्यक है।’
जॉन बलवत्तम केस 2003
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘यह दुख की बात है कि अनुच्छेद 44 को आज तक लागू नहीं किया गया। संसद को अभी भी देश में एक समान नागरिक संहिता लागू के लिए कदम उठाना है। समान नागरिक संहिता वैचारिक मतभेदों को दूर कर देश की एकता-अखंडता को मजबूत करने में सहायक होगी।’
शायरा बानो केस 2017
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हम सरकार को निर्देशित करते हैं कि वह उचित विधान बनाने पर विचार करे। हम आशा करते हैं कि वैश्विक पटल पर और इस्लामिक देशों में शरीयत में हुए सुधारों को ध्यान में रखते हुए एक कानून बनाया जाएगा। जब ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय दंड संहिता के माध्यम से सबके लिए एक कानून लागू किया जा सकता है तो भारत के पीछे रहने का कोई कारण नहीं है।’
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