एक वो ….भी परिणाम था,
एक ये भी परिणाम है ……
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
चुनाव परिणाम आने के बाद राजनीतिक दल, मतदाता, कार्यकर्ता एवं पार्टी समर्थक अपनी प्रतिक्रिया कैसे व्यक्त करें, इस पर भी देश में एक व्यापक बहस होनी चाहिए। अपनी भावी पीढ़ी को एक स्वतंत्र एवं स्वस्थ्य लोकतांत्रिक मर्यादा का ज्ञान देना हम शिक्षकों का एक राष्ट्रीय दायित्व है। चुनाव परिणाम के बाद जीतने या हारने वाले दल के कार्यकर्ता कभी-कभी अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाते जिससे समाज, राष्ट्र एवं आपसी भाईचारे का ताना-बाना एकाएक बिगड़ जाता है।
राजनीतिक दलों का वैचारिक विरोध होता है लेकिन यह विरोध कार्यकर्ताओं के बीच दुश्मनी बनकर भयंकर मार-काट एवं हिंसा में बदल जाती है। फिर तो शुरू होता है हत्याओं का दौर, विषाक्त वातावरण, पलायन जो आपसी सद्भाव का गला घोंट देता है।
….एक ऐसा हीं तो चुनाव परिणाम 1946 में आया- प्रांतीय चुनाव जो पाकिस्तान बनने का रिफरेंडम था। यूपी, बिहार, बंगाल के 90 प्रतिशत मुस्लिम लीग समर्थकों ने पाकिस्तान बनने के पक्ष में वोट दिया। बंगाल में तो मुस्लिम लीग की सरकार भी बनी।
पाकिस्तान के पक्ष में वोट तो दिया लेकिन पाकिस्तान गए नहीं।
….खैर, सरकार बनते हीं बंगाल के मुख्यमंत्री सुहरावर्दी ने डायरेक्ट एक्शन के नाम पर एक सुनियोजित सरकारी संरक्षण के तहत अखंड भारत के लिए समर्पित करीब 10 हजार भारतीयों की निर्ममता पूर्वक हत्याएं करवाई। कलकत्ता की सड़कें लाशों से पट गईं। महिलाओं का सामूहिक बलात्कार एवं बच्चों तक की हत्या एक रोंगटे खड़े कर देने वाला अध्याय है।
1990 वाला कश्मीरी नरसंहार एवं पलायन भी लोकतंत्र के उपर काला धब्बा है।
जनप्रतिनिधि की आड़ में ऐसी दंगाई मानसिकता आज भी हमारी व्यवस्था में जीवित है ….और मौके की ताक में है।
भारतीय मतदाता एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं को यह समझना चाहिए कि चुनाव एक खेल का मैदान भर है। जीत-हार से प्रतिद्वंदी खिलाड़ी की जान के पीछे पड़ना और उसका घर-जमीन छीनकर उसे पलायन पर मजबूर करना कौन सी सभ्यता है….और कहां की राजनीति संस्कृति है? इस पर गहनता से विचार होना चाहिए। ऐसी संस्कृति एवं सोच को पहचान कर इसे नष्ट करना हर भारतीय का कर्तव्य है। यह काम हमारे जागरूक मतदाता हीं कर सकते हैं।
2005 के मऊ दंगे में दंगाइयों का नेतृत्व करने वाले माननीय जनप्रतिनिधि हीं थे। ऐसे कई उदाहरण हैं। ….और कई माननीय भी।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए। मई,2021 में जब एक राज्य का चुनावी परिणाम आया तो जीतने वाले कार्यकर्ताओं ने एक समुदाय विशेष पर रात में हीं हमले बोल दिए।
वहीं हत्या …. बलात्कार एवं घर जलाने वाली मध्ययुगीन मानसिकता अपने वीभत्स रूप में दीखी। कितना मरे, कितने घायल हुए, कितनों का घर लूटा….कितने पलायन कर पड़ोसी राज्य में शरण लिए ………
यह आज तक पता नहीं चला….
क्योंकि जांच दल पर भी हमले हुए। राज्यपाल बेबस …रोते हुए नजर आए। जनप्रतिनिधि या तो दंगाई बन गए थे ….या दंगाइयों के डर से भाग चुके थे।….
जिनका वोट पा कर माननीय विधायक बने थे …वे भी अपने मतदाताओं, समर्थकों को मरता, कटता, उजड़ता छोड़कर अपनी जान बचा रहे थे। यह लोकतंत्र का स्याह पक्ष है जिसका मुकाबला संगठित मतदाता-कार्यकर्ता-राजनीतिक दल हीं कर सकते है।
दंगाई तत्वों का माकूल जवाब संगठित लोकशक्ति हीं है।
…..चुनाव परिणाम 10 मार्च को भी आए…लेकिन कहीं से भी हिंसा की एक छोटी सी घटना का न होना न केवल विजयी राजनीतिक दलों की लोकतांत्रिक परिपक्वता का उदाहरण है, बल्कि जीत कर भी मर्यादा में रहने की राजनीतिक सीख भी है। एक सेक्यूलर एवं श्रेष्ठ भारत के लिए ऐसे हीं उदाहरण वंदनीय एवं विकासोन्मुख हैं।
…..वैसे कई माननीय चुनाव से पहले अपनी सरकार आने पर ‘हिसाब बराबर’ करने की घातक सोच जाहिर कर चुके थे। लोकतंत्र ने इस दंगाई योजना को विफल कर दिया।
आभार–पुष्पेन्द्र कुमार पाठक.
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