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भारतीय संस्कृति की अनमोल विरासत है हमारी ऋषि परंपरा

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

वन में जब ब्रह्मविद्या की उपासना होती है, तब उसे तपोवन का दर्जा प्राप्त होता है। तपोवन में एक ऋषि, ऋषि पत्नी और ऋषिपुत्रों के अलावा कुछ शिष्यों की उपस्थिति अनिवार्य है। यहां सभी शिष्य गुरु से नीचे आसन के पास बैठकर ब्रह्मविद्या प्राप्त करते हैं। गुरु द्वारा दी जाने वाली इस शिक्षा को उपनिषद कहा गया है।

भारतीय संस्कृति यानी ऋषि संस्कृति को कई नामों से जाना जाता है। ऋषि वशिष्ठ के साथ राम ने सत्संग किया, तब जो संवाद हुए उससे हमें तत्वज्ञान का महाग्रंथ ‘योगवशिष्ठ’ प्राप्त हुआ। स्वामी सद्रूपानंदजी ने इस आधार पर जो भाष्यग्रंथ लिखा है, उसे पढ़कर तो समझा जा सकता है कि ऋषि वशिष्ठ ब्रह्मविद्या की उपासना कर किस ऊंचाई पर पहुंचे थे। ऋषि वशिष्ठ के समकालीन विश्वामित्र ने मानवजाति को गायत्री मंत्र की सौगात दी।

नचिकेता की प्रसिद्ध कहानी जिसमें उसके पिता ऋषि उद्दालक उन्हें यमराज के पास भेज देते हैं, से हमें ‘कठोपनिषद’ की प्राप्ति हुई। श्री अरविंद ने ‘सावित्री’ जैसा महाकाव्य लिखा, उसमें भी ‘कठोपनिषद’ की छाया दिखाई देती है। विश्वामित्र से लेकर विनोबा भावे तक की ऋषि परंपरा हमारी भारतीय संस्कृति की एक ऐसी अनमोल विरासत है, जिसके कारण उपनिषद का अनुवाद पढ़कर अत्यंत प्रभावित हुए आर्थर शोपेनहावर ने कहा था- उपनिषद मेरे जीवन और मृत्यु का आधार है।

औरंगजेब का बड़ा भाई दारा शिकोह जब कश्मीर गया, तब वहां उसने कश्मीरी पंडितों की मदद से उपनिषदों का फारसी में अनुवाद कराया। आज भी कुरुक्षेत्र की यूनिवर्सिटी में दारा शिकोह की ‘योगवास्ठि’ ग्रंथ की पांडुलिपि सुरक्षित है। इस पांडुलिपि को अपने हाथ में रखकर मैंने दारा शिकोह के लिए प्रार्थना भी की थी।

ऋषि उद्दालक के प्रति मेरी अप्रतिम श्रद्धा है। उसकी वजह भी है। छांदोग्य उपनिषद (खंड:11) में शंकराचार्य द्वारा रचे गए भाष्य में एक प्रसंग की जानकारी हुई। प्रसंग के अनुसार कई तेजस्वी ऋषिपुत्र ब्रह्मजिज्ञासा से परिपूर्ण थे। वे सभी ऐसे महागुरु की तलाश में थे, जो उन्हें ब्रह्मविद्या की उपासना करने में सहायता करे। काफी विचार-विमर्श के बाद यह तय हुआ कि ऋषि उद्दालक के पास जाकर इस विद्या को प्राप्त किया जाए।

उन्हें ही ‘आत्मविद्या ही ब्रह्मविद्या’ के संबंध में पूरी जानकारी है। इस तरह से विद्यार्थियों का समूह उद्दालक ऋषि के आश्रम के लिए निकल पड़ा। ऋषि उद्दालक एक वृक्ष के नीचे खड़े थे। उस समय सूर्योदय हो चुका था। ऋषिपुत्रों को अपने समीप आता देखकर उन्हें भीतर से आभास हुआ कि ये मुनि बड़ी आशा लेकर मेरे पास आ रहे हैं। उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया- ये ऋषिपुत्र ब्रह्मविद्या प्राप्त करने के लिए मेरे पास आ रहे हैं।

उनके प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दे पाऊंगा। जब सारे ऋषिपुत्र उनके पास आए, तो उन्होंने बड़ी ही सादगी से उनसे कहा- हे! प्रिय ऋषिपुत्रों, जिस ज्ञान को मैंने पूरी तरह से प्राप्त नहीं किया है, उसे आपको कैसे दे सकता हूं? आप सभी मेरे साथ चलें, मैं भी राजा अश्वपति के पास ब्रह्मविद्या का रहस्य प्राप्त करने चलूंगा। वहां मैं एक शिष्य की तरह ही रहूंगा।

इस प्रसंग को जानकर ऋषि उद्दालक के प्रति मेरे भीतर का आदरभाव और बढ़ गया। आखिर कौन-सा ज्ञानी होगा, जो ऐसा करेगा? कौन-सा ऋषि क्षत्रिय राजा के पास जाकर एक शिष्य के रूप में ब्रह्मविद्या का रहस्य जानने पहुंचता है। यहां उद्दालक ऋषि अन्य ऋषियों से अलग हो जाते हैं। सुकरात ज्ञानी थे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा: ‘मैं नहीं जानता कि चेतना ज्ञान के मार्ग का प्रारंभिक बिंदु है।’

ऋषि उद्दालक अपने युग के महात्मा गांधी साबित हुए। जानने योग्य बात है कि राजा जनक की पत्नी का नाम सुसत्या था। जो स्त्री ‘सुसत्या’ होती है, उसे ही तो राम जैसा सत्यप्रतिज्ञ जमाई मिलता है। कहना यही है कि भारतीय संस्कृति अंततोगत्वा सत्य संस्कृति है। ऋषि उद्दालक जैसे सत्यनिष्ठ महामानव ही अपनी कमजोरियों को जानते हैं और सहजभाव से क्षत्रिय राजा अश्वपति के पास जाकर उनके शिष्य बन सकते हैं।

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