पंजवार : पुस्तकालय की कहानी, गुरूजी घनश्याम शुक्ला जी का संस्मरण
आलेख : संजय सिंह, पंजवार
श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्क:
” कहां दउरल जातारs सतनारायन भाई !”
“तहरे लगे रहमतुल्लाह भाई !”
“का भइल ?”
” विश्व युद्ध शुरू हो गइल मरदे ! जर्मनी पोलैंड पर हमला क दिहलस ! इंग्लैंड आ फ्रांस जर्मनी के उखाड़े पर लागल बाड़न स ! इटली आ जापान जर्मनी के ओर से लड़त बाड़न स ! ”
“छोड़ मरदवा ! लड़े द ओकनी के ! हमनी के का फायदा बा !”
“इंगलैंड हार जाई त फ़यदे फायदा बा !”
“का हो !”
“आपन राज आ जाई ! सुराज ! रामराज !”
रहमतुल्ला की खुशी का ठिकाना नहीं । पांव में जैसे करंट लग गया हो ! एक-एक कर सभी दोस्तों तक खबर पहुंचती है । शिवजन्म तिवारी…पशुपति लाल….सीताराम लाल…मधुसूदन पांडेय….
“अब देश आजाद हो जाई ! गांधी जी के सपना साकार होई ! रामराज्य आई ! असली सुराज ! ” रहमतुल्ला आंखे बंद कर लेते हैं !
“आपन सतनारायन कलेक्टर बनिहें !” मधुसूदन पांडेय की छाती चौड़ी हो रही थी ।
“कलक्टर बने खातिर बहुत पढ़े के परेला ! ” सत्यनारायण मिश्र मुस्कुरा रहे थे ।
“त पढ़ मरदे ! के रोकले बा !” सीताराम लाल झुंझला गये ।
“का पढ़ीं ! कहाँ पढ़ीं ? शहर में जाईब त खूब पढ़ब ! दिन भर लाइब्रेरी में रहब !” सत्यनारायण मिश्र की आंखें सजल हो आयी थीं ।
विजयादशमी का दिन । साल 1940 । नई आलमारी आ गयी थी। कुछ किताबें भी । सीताराम लाल की कोठरी में आलमारी रखी गयी । 1940 में विद्या मंदिर पुस्तकालय स्थापित हो चुका था ..
भारत छोड़ो आंदोलन चरम पर था । इलाके के नौजवान लाइब्रेरी पर इकट्ठा होते । देश दुनिया की चर्चा होती ।
“कब ले कोठरी में लाइब्रेरी चली सत्यनारायण !” मधुसूदन पांडेय की आवाज गंभीर हो चली थी ।
“जब ले कवनो दोसर जगह नइखे मिल जात पांडेय जी ! ”
“जगह मिल गइल बा”
“कहाँ ?”
“हमार आपन जमीन ! गांव के बीचो बीच !”
“घरवाला जमीन ?”
“हं ! कुछ सोचे के नइखे ! निर्णय हो चुकल बा !”
जमीन पुस्तकालय के नाम से रजिस्ट्री कर दी गयी । देश आजाद हो चुका था !
एक 9 साल का लड़का बड़े सलिके से किताबें सहेजकर रैक में रख रहा था । सत्यनारायण मिश्र अभी- अभी शहर से लौटे थे । सीधे पुस्तकालय पहुंचे थे । धीमे धीमे लड़के के पास गये । देख के हतप्रभ ! अपने कुरते के छोर से किताब की धूल साफ कर रहा था वह ! बार बार किताब पर छपे चित्र को देखता और फिर साफ करने लगता !
मिश्र जी पांडेय जी से मिलने चले गये । मीठा पानी हुआ । उनका ध्यान एकटक उस लड़के पर लगा हुआ था ।
“का देखतारs सत्यनारायण जी ! ”
“उ केकरा घर के लइका ह ?”
“का बात ? ”
“उ एहि उमर में गांधी जी के प्रति आशक्त बा ! गांधी जी के फ़ोटो पर जमल धूल के पोंछे खातिर आपन नया कुरता खराब क दिहलस !”
“उ अपने घर के लड़िका हs ! रघुनाथ शुक्ल के बेटा घनश्याम ! देखिहs एक ना एक दिन ई अपना गांव के पहचान बनी !”
मिश्र जी कभी मधुसूदन पांडेय जी को देख रहे थे , कभी छोटे घनश्याम को । पांडेय जी के चेहरे पर गौरव का बोध था …..नन्हे घनश्याम ने धूल साफ करके पुस्तक रैक में रख दी थी ।
आगे की कहानी बाद में…..
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