मानसिक स्वास्थ्य सही रखने से ही शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रहेगा.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
देश एवं दुनिया में मानसिक बीमारियां बढ़ रही हैं, तनाव एवं असंतुलन के कारण अनेक विकृतियां एवं मनोरोग पनप रहे हैं, मानसिक अस्वास्थ्य वर्तमान युग की ज्वलंत समस्या है, उस पर नियंत्रण पाने के लिये विविध प्रयोग हो रहे हैं। इन्हीं प्रयोगों में एक सकारात्मक उपक्रम है, विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस। लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील और जागरूक करने के उद्देश्य से 10 अक्टूबर को यह दिवस मनाया जाता है।
शास्त्रों में कहा गया है- चिंता, चिता के समान है। प्रतिदिन के तनाव से उपजती और मौत के मुंह में ले जाती गंभीर बीमारियों को देखते हुए यह बात बिल्कुल सही साबित होती है। हर एक मिनट का हिसाब रखती, भागदौड़ भरी वर्तमान जीवनशैली में सबसे बड़ी और लगातार उभरती हुई समस्या है मानसिक अस्वास्थ्य। हर किसी के जीवन में स्थाई रूप से अपने पैर पसार चुके मनोरोग, तनाव और कुंठा व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं।
आपकी निजी जिंदगी से शुरू होने वाला मानसिक तनाव एवं मानसिक विकृतियां पूरी दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण समस्या बनकर उभरी है, जो अपने साथ कई तरह की अन्य समस्याओं को जन्म देने के कारण होते हैं। इन्हीं मानसिक विकृतियों एवं बीमारियों से ही उपजा है आतंकवाद, युद्ध, हिंसा, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, एवं यौन विकृतियां। यही कारण है कि इनसे बचने के लिए और मानसिक शांति प्राप्त करने के लिए योग, ध्यान, अध्यात्म और कई तरह के अलग-अलग तरीकों को लोग अपने जीवन में उतार रहे हैं।
यह सच है कि प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा के इस युग में मनोरोग अधिक पनप रहे हैं। बीमार मानसिकता के कारण ही हम लगातार संघर्षों एवं परेशानियों से घिरे रहते हैं। हमारा मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य के साथ काफी जुड़ा हुआ है। किसी एक के प्रभावित होने से दूसरे पर जरूर असर पड़ता है। हम यह भी जानते हैं हमारे मस्तिष्क के रसायन, हमारे मन और विचारों को प्रभावित करते हैं। मानसिक तनाव की स्थिति में हम प्रायः किसी तरह के व्यायाम, योग-ध्यान को करना पसंद नहीं करते। जबकि मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि हम पौष्टिक आहार खाएं, व्यायाम करें, ध्यान एवं साधना के प्रयोग करें और भरपूर नींद लें।
मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. ज्योती माहेश्वरी का मानना है कि मानसिक स्वास्थ्य का रिश्तों के साथ गहरा संबंध है। भारतीय संस्कृति में परिवार व पारिवारिक मूल्यों की अपनी अहमियत है। यही वह व्यवस्था है जो भारतीय समाज को विश्व में सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय बनाती है। यह भारत और भारतीयता की विशिष्ट पहचान है, लेकिन समय के साथ यह संस्था भी प्रभावित होती गई है और मौजूदा समय में संक्रमण के दौर से गुजर रही है।
इसकी एक बड़ी वजह है कि मनुष्य का मानसिक संतुलन बिगड़ रहा है। विरोधाभासी स्थितियों के कारण से भारतीय समाज को प्रगतिशील बनाने के बजाय तनावग्रस्त ज्यादा बनाया है। खुले दिल-दिमाग से हमने पारिवारिक व्यवस्था और मूल्यों का मूल्यांकन करना ही बंद कर दिया है। जिसका परिणाम है समाज में तरह-तरह के रोगों का पनपना, रोज गृह-क्लेश, तलाक, घरेलू हिंसा, पारिवारिक झगड़े जैसी घटनाएं होना।
मस्तिष्क प्रमुख प्रवर्तक है, वह मनुष्य की सोच की दिशा तय करता है। यह मस्तिष्क ही है जो चाहे तो हमें ईश्वर की ओर जाने में सहायता दे सकता है या निरर्थक गतिविधियों में फंसाये रख सकता है। किसी भी तरह के युद्ध या हिंसा के व्यूह-रचना सबसे पहले मस्तिष्क में रची जाती है फिर समरांगण में यानी प्रायोगिक रूप में उतरती है। इसी तरह हर एक अच्छा विचार या अच्छी प्रवृत्ति सबसे पहले मस्तिष्क में आकार लेती है, फिर जीवन व्यवहार में उसको साकार होते देखा जाता है।
यह मस्तिष्क ही है जो हमें शक्ति देता है जिससे हम हार को जीत में बदल देते हैं। बुराई से अच्छाई, असत्य से सत्य, अंधकार से प्रकाश और हिंसा से अहिंसा की ओर ले जाने में मस्तिष्क ही कारगर भूमिका निभाता है। मन को शक्तिशाली बनाने और जीवन में जोश भरने का काम संतुलित मस्तिष्क एवं स्वस्थ मानसिकता के द्वारा ही संभव होता है।
व्यक्ति के जीवन का ध्येय होना चाहिए कि उसका मस्तिष्क संतुलित एवं स्वस्थ बने, उसे हार, डर और बुराई की प्रवृत्ति से हटाकर उपलब्धि, जीत और अच्छाई की दिशा में ले जाए। मस्तिष्क स्वस्थ और शांत होता है तो जीवन अर्थपूर्ण और लक्ष्य समर्पित होता है। अन्यथा उसमें खालीपन भर जाता है, अनेक घातक बीमारियों को पनपने का कारण बनता है। कहा भी गया है खाली दिमाग शैतान का घर होता है।
यह खालीपन बहुत बार मानसिक ही नहीं बल्कि शारीरिक बीमारियों का कारण भी बनता है। मस्तिष्क की अस्वस्थता से शरीर ही नहीं, आत्मा भी बीमार हो जाती है। अध्यात्म महर्षियों ने स्वस्थ मस्तिष्क को स्वस्थ मानव का मूलभूत आधार माना है। विज्ञान भी इससे असहमत नहीं है। डॉक्टरों ने तो यहां तक कहा है कि बड़ी से बड़ी बीमारी पर अपनी चित्त-दशा को बदलकर नियंत्रण पाया जा सकता है। अधिकांश बीमारियों का कारण व्यक्ति की रुग्ण मानसिकता ही है। सही जीवन पद्धति, स्वस्थ मानसिकता एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति से एक उन्नत व्यक्ति और समाज का निर्माण संभव है।
यह बात हर किसी को हर दिन याद रखनी चाहिए, कि तनाव किसी भी समस्या का हल नहीं होता बल्कि कई अन्य समस्याओं का जन्मदाता होता है। इसी तनाव के कारण अनेक मनोरोग उत्पन्न होते हैं। तनाव ही आपको अत्यधिक सिरदर्द, माइग्रेन, उच्च या निम्न रक्तचाप, हृदय से जुड़ी समस्याओं से ग्रस्त करता है। दुनिया में सबसे अधिक हार्ट अटैक का प्रमुख कारण मानसिक तनाव एवं मानसिक अस्वास्थ्य होता है। यह आपका स्वभाव चिड़चिड़ा कर आपकी खुशी और मुस्कान को भी चुरा लेता है। इससे बचने के लिए तनाव पैदा करने वाले अनावश्यक कारणों को जीवन से दूर करना जरूरी ही नहीं, अनिवार्य हो गया है।
मस्तिष्क को संतुलित एवं स्वस्थ बनाने का कार्य जटिल अवश्य है लेकिन असंभव नहीं। गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि चित्त बहुत चंचल, उद्वेगकारक और दुराग्रही है। इसे वश में करना वायु को वश में लाने के समान है। भगवान श्रीकृष्ण ने तब एक सरल उपाय बताया कि निरंतर अभ्यास और अनासक्ति से चित्त को वश में किया जा सकता है। आज योग, ध्यान और साधना के क्षेत्र में अनेक प्रयोग कराए जाते हैं जिनसे मस्तिष्क को संतुलित, मनोरोगों पर नियंत्रण एवं स्वस्थ मानसिकता को संभव बनाया जा सकता है।
निराशा और मृत्यु दोनों एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह है। वस्तुतः समस्या का समाधान व्यक्ति के अपने भीतर में अवस्थित है अगर अंतःकरण जागृत हो गया तो संघर्ष के सारे तूफान एक साथ शांत हो सकते हैं, क्योंकि उनका उद्गम-स्थल तो एक ही है। यद्यपि दिखाई यह दे रहा है कि समस्याएं असंख्य हैं किंतु उनका समाधान एक प्रशिक्षित मस्तिष्क ही कर सकता है। यह प्रशिक्षण बाहरी नहीं बल्कि अपने ही दिल और दिमाग को निर्मल करने का सम्यक् उपक्रम बने, तभी संभव है। मन की तृष्णा और अत्यधिक प्राप्त कर लेने की आकांक्षा संतोष और आंतरिक संतुलन जैसे चिंतन से ही शांत हो सकेगी।
‘मैं’ की शैवाल इतनी सघन है कि असलियत का सूर्य नजर ही नहीं आता। अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए निजी रिश्तों को भी दांव पर लगा दिया जाता है। बेटी पूरे गांव की इज्जत समझी जाती थी, पर आज खुले आम द्रौपदी का चीरहरण होता है किंतु सबकी आंखें धृतराष्ट्र बनी हुई है। मूढ़ता जिंदगी के हर मुकाम पर तैनात है। ऐसी स्थितियां अस्वस्थ मानसिकता की उपज है। समाज एक जलाशय है। उसमें एक ढेला फेंकने का अर्थ है पूरे पानी को कम्पित कर देना।
‘‘समूह में एक नहीं, सभी व्यक्ति महत्त्वपूर्ण हैं’’ -इस विचार की कलमें रोपना (लगाना) जरूरी है। क्योंकि व्यक्ति हित, व्यक्तिगत चिंतन, व्यक्तिगत सुविधा और व्यक्तिगत जीवन को महत्त्व देने वाला व्यक्ति समाज के चैखटे में फिट नहीं हो सकता। फिर तो वहां दूध के स्थान पर पानी का भरा तालाब ही नज़र आएगा। विश्व मानसिक स्वास्थ्य संघ (वर्ल्ड फेडरेशन फॉर मेंटल हेल्थ) ने विश्व के लोगों के मानसिक स्वास्थ्य देखभाल को यथार्थवादी बनाने के लिए विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस की स्थापना की थी। दृष्टिकोण हमारा कितना मानवीय है और कितना होना चाहिए यह मस्तिष्क के परिष्कार एवं स्वस्थ मानस पर निर्भर है।
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