सिनेमा की ‘आशा’ को शिखर सम्मान
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
आशा पारेख भारतीय सिनेमा की एक ऐसी अभिनेत्री रही हैं, जिन्होंने शानदार अभिनय से तो सबका दिल जीता ही, अपने नृत्य कौशल और समाज सेवा के कार्यों से भी उत्कृष्ट पहचान बनायी है. जब गत 30 सितंबर को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने दिल्ली में उन्हें सिनेमा के शिखर सम्मान दादा साहेब फाल्के से नवाजा, तो पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा. राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के दौरान फाल्के सम्मान देने की शुरुआत 1970 में हुई थी. तब 1969 के लिए देविका रानी को फाल्के पुरस्कार दिया गया था.
अब तक कुछ ही महिला हस्तियों को यह सम्मान मिला है. देविका रानी के बाद रूबी मेयर्स, कानन देवी, दुर्गा खोटे, लता मंगेशकर और आशा भोसले को यह पुरस्कार मिला. आशा भोसले को 2000 में 1984 में दुर्गा खोटे को यह सम्मान मिला था. किसी दूसरी अभिनेत्री को यह सम्मान पाने के लिए 38 साल इंतजार करना पड़ा. लेकिन अब आशा जगी है कि अभिनेत्रियों को सम्मान के लिए आगे इतना अंतराल नहीं आयेगा.
आशा पारेख के लिए इस बरस यह शिखर सम्मान पाना और भी सुखदायी रहा क्योंकि दो अक्तूबर को वे 80 बरस की हो गयी हैं. इसीलिए पुरस्कार लेते ही वे एक अक्तूबर की सुबह मुंबई चली गयीं. मैंने उन्हें जन्मदिन और पुरस्कार की बधाई दी, तो उन्होंने कहा- ‘मैं दिल्ली और रुकती, लेकिन दो अक्तूबर को अपने जन्मदिन पर मुझे घर पर ही होना चाहिए.’ आखिर इस बार उनके जन्मदिन पर पुरस्कार और जन्मदिन के दो जश्न एक साथ होने थे.
आशा पारेख के फिल्म करियर को देखें, तो उन्होंने 1952 में एक बाल कलाकार के रूप में 10 साल की उम्र में अभिनय की शुरुआत की थी. तब बिमल राय सरीखे फिल्मकार ने उन्हें अपनी दो फिल्मों- ‘मां’ और ‘बाप-बेटी’- में लिया था. उसके बाद बाल कलाकार के रूप में आशा ने कुछ और फिल्मों में अभिनय किया. यूं आशा का पहला प्यार नृत्य रहा है, लेकिन फिल्मों की दुनिया में प्रवेश करने से वे फिल्मों से भी प्यार कर बैठीं.
जब वे 16 बरस की हुईं, तो उनकी मुलाकात उस दौर के चर्चित फिल्मकार सुबोध मुखर्जी से हुई और उन्होंने आशा को अपनी नयी फिल्म ‘दिल देके देखो’ की नायिका बना दिया. फिल्म के नायक थे शम्मी कपूर और इसके निर्देशक थे नासिर हुसैन. ‘दिल देके देखो’ 1959 में प्रदर्शित हुई और बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट रही. बस फिर क्या था, आशा पारेख के यहां फिल्मकारों की कतार लग गयी. उधर उनके पहले निर्देशक नासिर हुसैन तो उन्हें आगामी फिल्मों में लेने के साथ अपने दिल में भी जगह दे बैठे.
आशा पारेख ने 1960 और 1970 के दशक में एक से एक सफल फिल्में दीं, जैसे- ‘जब प्यार किसी से होता है’, ‘घराना’, ‘फिर वही दिल लाया हूं’, ‘भरोसा’, ‘तीसरी मंजिल’, ‘लव इन टोक्यो’, ‘दो बदन’, ‘उपकार’, ‘कन्यादान’, ‘महल’, ‘चिराग’ और ‘आया सावन झूम के’. जब 1970 के दशक में नयी तारिकाएं फिल्म क्षितिज पर चमकने लगीं, तो बहुत लोगों ने कहा कि अब आशा पारेख नहीं चलेंगी.
लेकिन 1971 से 1980 के दशक में भी आशा ने ‘आन मिलो सजना’, ‘कटी पतंग’, ‘मेरा गांव मेरा देश’, ‘कारवां’, ‘समाधि’, ‘हीरा’, ‘जख्मी’, ‘उधार का सिंदूर’ और ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ जैसी सफल फिल्में देकर जता दिया कि आशा पारेख युग अभी समाप्त नहीं हुआ है. शक्ति सामंत की फिल्म ‘कटी पतंग’ के लिए तो आशा को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला. साल 1980 के बाद आशा पारेख के करियर की दूसरी पारी शुरू हुई, जिसमें वे चरित्र भूमिकाओं में भी आयीं.
इस दौर में उनकी ‘सौ दिन सास के’, ‘कालिया’, ‘बुलंदी’, ‘बंटवारा’ और ‘प्रोफेसर की पड़ोसन’ प्रमुख फिल्में हैं. इसके बाद 1995 में आशा ने फिल्मों से दूरी बनाकर टीवी सीरियल निर्माण में कदम रखा तथा ‘ज्योति’, ‘दाल में काला’, ‘कोरा कागज’ और ‘कंगन’ जैसे कुछ सफल सीरियल भी बनाये.
आशा पारेख ने समाज सेवा के लिए जहां ‘आशा पारेख अस्पताल’ को भी बरसों चलाया, वहीं सिने आर्टिस्ट कल्याण संस्था ‘सिंटा’ की भी वे पदाधिकारी रहीं. नृत्य कला के विकास के लिए भी वे अपना एक नृत्य विद्यालय ‘गुरुकुल’ चलाती रहीं. साथ ही, 1998 से 2001 तक वे फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्षा भी रहीं. आशा पारेख अब फिल्में नहीं कर रही हैं. वे अविवाहित हैं, लेकिन अपनी जिंदगी को मजे से जीती हैं. वहीदा रहमान और हेलन उनकी दो पुरानी फिल्म दोस्त उनके दुख-सुख की बड़ी साथी हैं.
आशा ने जहां शोख, चंचल भूमिकाओं को साकार किया, वहीं शहरी और ग्रामीण युवतियों तथा गंभीर भूमिकाओं में भी वे खूब जमीं. फिल्म जगत में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें 1992 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया था. अब 30 साल बाद फाल्के सम्मान मिलने से आशा पारेख के योगदान को एक और बड़ी मान्यता मिल गयी है.
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