नाटककार विजय तेंदुलकर ने समाज के सामने आइना रख दिया,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

समाज के संवदेनशील और विवादित माने जाने वाले विषयों को अपनी लेखनी का आधार बना कर विजय ढोंढोपंत तेंदुलकर ने 1950 के दशक में आधुनिक मराठी रंगमंच को एक नई दिशा दी और शहरी मध्यम वर्ग की छटपटाहट को बड़ी तीखी जबान में व्यक्त किया। 6 जनवरी 1928 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में एक भलवालिकर सारस्वत ब्राह्मण परिवार में जन्मे विजय को घर में ही साहित्यिक माहौल मिला।

उनके पिता का एक छोटा सा प्रकाशन व्यवसाय था और इसी का नतीजा था कि नन्हा विजय छह वर्ष की उम्र में पहली कहानी लिख बैठा और 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने पहला नाटक लिखा, उसमें अभिनय किया और उसका निर्देशन भी किया।

अंग्रेजों के खिलफ 1942 में महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो विजय तेंदुलकर 14 वर्ष की छोटी की उम्र में पढ़ाई छोड़कर आजादी के इस आंदोलन में कूद पड़े। शुरुआत में तेंदुलकर ने जो कुछ भी लिखा वह उनकी अपनी संतुष्टि के लिए था− प्रकाशन के लिए नहीं।

शुरुआती दिनों में मुंबई के चाल में रहते हुए विजय तेंदुलकर ने लेखन के क्षेत्र में अपने कॅरियर की शुरुआत समाचार पत्रों के लिए लेख लिखने से की और यहां से जो सिलसिला शुरू हुआ वह वर्ष 1984 में उन्हें पद्म भूषण मिलने तक ही नहीं रुका। वर्ष 1993 में उन्हें सरस्वती सम्मान, 1998 में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप और 1999 में कालिदास सम्मान से नवाजा गया और इस दौरान साहित्य के क्षेत्र में उनके कदम मजबूती से जमते चले गए।

विजय तेंदुलकर ने 20 वर्ष की उम्र में गृहस्थ नाटक लिखा लेकिन इसे बहुत ज्यादा मकबूलियत हासिल नहीं हुई। इस बात से लेखक का दिल टूट गया और उन्होंने फिर कभी कलम न उठाने का फैसला किया लेकिन अपने आसपास के हालात से उद्वेलित लेखक मन अधिक दिन शांत नहीं रहा। वर्ष 1956 में उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ते हुए श्रीमंत लिखी।

इस नाटक ने उन्हें एक लेखक के रूप में स्थापित कर दिया। उन्होंने श्रीमंत के माध्यम से उस समय के रूढि़वादी समाज के सामने आइना रख दिया। इस नाटक के जरिए उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार एक बिन ब्याही मां अपने अजन्मे बच्चे को जन्म देना चाहती है लेकिन उसका धनाढ्य पिता समाज में अपनी इज्जत बनाए रखने के लिए उसकी खातिर एक पति खरीदने का प्रयास कर रहा है।

विजय तेंदुलकर ने 1950 के दशक में अपनी लेखनी के माध्यम से आधुनिक मराठी रंगमंच को एक नई दिशा प्रदान की जबकि 60 के दशक में रंगायन थियेटर समूह में डॉ. श्रीराम लागू, मोहन अगाशे और सुलभा देशपांडे के साथ मिलकर काम किया।

तेंदुलकर ने 1961 में गिद्धाडे नामक नाटक लिखा लेकिन घरेलू हिंसा, यौन हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा जैसी सामाजिक कुरीतियों पर बड़े ही तीखे अंदाज में प्रहार करने के कारण इसे 1970 तक मंचित नहीं किया जा सका। गिद्धाडे तेंदुलकर की लेखनी के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुआ और यहीं से वह लोगों के बीच अपनी अनोखी लेखन शैली के लिए पहचाने जाने लगे।

उन्होंने 1967 में मराठी नाटक शांततः अदालत चालू आहे के माध्यम से न्याय व्यवस्था पर चोट की जबकि वर्ष 1972 में राजनीतिक हिंसा को निशाना बनाते हुए एक नाटक घांसीराम कोतवाल लिखा। इस नाटक ने उन्हें पूरे देश में प्रसिद्धि दिलाई। उनके नाटकों में सफर, कमला, कन्यादान, बेबी आदि प्रमुख रहे। तेंदुलकर ने वर्ष 1974 में फिल्म निशांत, 1980 में आक्रोश और 1984 में अर्द्धसत्य की पटकथा भी लिखी।

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