जहरीली होती वायु गहरी चिंता का विषय बन चुकी है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
स्विट्जरलैंड की आइक्यू एयर संस्था ने वार्षिक विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट-2021 जारी की है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, बांग्लादेश दुनिया का सबसे प्रदूषित देश है, जबकि इस सूची में भारत पांचवें स्थान पर है. नयी दिल्ली लगातार चौथे साल दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी रही है. पिछले ही साल विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने वैश्विक वायु गुणवत्ता के मानकों में बदलाव करते हुए नये दिशा-निर्देश जारी किये थे. इनमें पीएम (पार्टिकुलेट मैटर)-2.5 और पीएम-10 के अलावा चार अन्य प्रदूषकों- ओजोन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड के सालाना उत्सर्जन की औसत सीमा पर भी कड़ाई बरती गयी थी.
डब्ल्यूएचओ की नयी गाइडलाइन के मुताबिक, हवा में पीएम-2.5 की सलाना औसत सीमा को 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से घटाकर पांच माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर किया जाना था. लेकिन इस रिपोर्ट से पता चलता है कि दुनिया में केवल तीन प्रतिशत शहर ही डब्ल्यूएचओ की वार्षिक वायु गुणवत्ता दिशानिर्देशों को पूरा करते हैं.
बीते कुछ वर्षों से जहरीली होती आबो-हवा गहरी चिंता का विषय बन चुकी है. वायु प्रदूषण केवल जन स्वास्थ्य और पर्यावरण को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि जीवन प्रत्याशा, अर्थव्यवस्था, पर्यटन और समाज पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ता है. एक पीढ़ी के कारस्तानियों की सजा आनेवाली कई पीढ़ियों को भुगतनी पड़ती है. वायु गुणवत्ता को लेकर जब-तब जारी होते रहे वैश्विक सूचकांकों में भारत की स्थिति दयनीय ही रही है. पिछले कुछ सालों में तो पहले बीस-तीस शहरों में सर्वाधिक शहर भारत के ही आते रहे हैं, जहां वायु प्रदूषण से स्थिति काफी गंभीर है.
सच तो यह है कि अब वायु ऑक्सीजन के साथ-साथ बीमारियां और मौत भी ढोने लगी है, जिसके कसूरवार हम ही हैं. भारत में वायु प्रदूषण की समस्या कमोबेश सालभर विद्यमान रहती है. देश के ऐसे कई शहर एक तरह से ‘गैस चैंबर’ में तब्दील हो रहे हैं और कई शहर प्रदूषण की घनी चादर ओढ़े हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, 84 फीसदी भारतीय उन इलाकों में रह रहे हैं, जहां वायु प्रदूषण विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से ऊपर है. प्रदूषित इलाकों में लगातार रहने से जीवन की गुणवत्ता घटती है और धीरे-धीरे हम शारीरिक व्याधियों से घिर जाते हैं.
वायु प्रदूषण की चपेट में आने से लोगों की आयु घटने लगी है. इस तथ्य की पुष्टि भी कई शोधों में हो चुकी है. वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक रिपोर्ट-2020 के मुताबिक, प्रदूषित इलाकों में रहने वाले भारतीय पहले की तुलना में औसतन पांच साल कम जी रहे हैं. कई राज्यों में यह दर राष्ट्रीय औसत से भी अधिक है. रिपोर्ट के अनुसार, केवल वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में जीवन प्रत्याशा नौ वर्ष, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में आठ वर्ष, बिहार और बंगाल में सात वर्ष तक कम हो रही है. वहीं,’कार्डियोवैस्कुलर रिसर्च जर्नल’ में प्रकाशित एक शोध में शोधकर्ताओं ने माना कि वायु प्रदूषण के चलते पूरे विश्व में जीवन प्रत्याशा औसतन तीन वर्ष तक कम हो रही है, जो अन्य बीमारियों के कारण जीवन प्रत्याशा पर पड़ने वाले असर की तुलना में अधिक है.
मसलन, तंबाकू के सेवन से जीवन प्रत्याशा में तकरीबन 2.2 वर्ष, एड्स से 0.7 वर्ष, मलेरिया से 0.6 वर्ष और युद्ध के कारण 0.3 वर्ष की कमी आती है. हैरानी की बात है कि देश में बीमारी, युद्ध और किसी भी हिंसा में मरने वालों से कहीं अधिक संख्या वायु प्रदूषण से मरने वालों की है. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इस अपराध के लिए किसी खास व्यक्ति या संस्था को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. वायु प्रदूषण एक धीमे जहर की तरह मानव स्वास्थ्य व संसाधन को नुकसान पहुंचा रहा है.
वायु प्रदूषण स्वास्थ्य संबंधी अनेक व्याधियों जैसे दिल व फेफड़े की बीमारी, कैंसर व अस्थमा को जन्म देता है. इस तरह वायु प्रदूषण व्यक्ति के निरोगी जीवन के मार्ग में बाधक बनता है. जीवन प्रत्याशा घटने से लोग पहले की तुलना में कम और अस्वस्थ होकर अपना शेष जीवन कठिनाई से व्यतीत करते हैं. मालूम हो कि प्रदूषित इलाकों में रहने से दिल और फेफड़े के साथ श्वसन संबधी बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाता है.
वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने वायु प्रदूषण के खिलाफ जंग के लिए ‘राष्ट्रीय वायु स्वच्छ कार्यक्रम’ की शुरुआत की थी, जिसका लक्ष्य 2017 की तुलना में 2024 तक वायु प्रदूषण में 20 से 30 फीसदी की कमी लाना है. हालांकि, यह तभी मुमकिन है, जब देश में सततपोषणीय विकास पर जोर दिया जाये. पर्यावरण संरक्षण के निमित्त यहां के नागरिकों को अपने स्तर पर सकारात्मक पहल करनी होगी, तभी यह स्थिति बदलेगी और पृथ्वी पर जीवन की परिस्थितियां अनुकूल होंगी. वायु प्रदूषण एक ऐसी समस्या है, जिसे सामूहिक प्रयास से ही नियंत्रित किया जा सकता है. वायु प्रदूषण का स्तर घटेगा तो जीवन की गुणवत्ता बढ़ेगी.
इस तरह लोग सामान्य से अधिक जीवन जी पायेंगे. लेकिन विडंबना है कि देश में वायु प्रदूषण और पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा चुनावी मुद्दा नहीं बनता है और न ही सियासी दल इसे अपने चुनावी घोषणापत्रों में जगह ही देते हैं. हम अपने स्तर से प्रदूषण नियंत्रण की दिशा में आदतों में बदलाव लाकर एक सुखी भविष्य की परिकल्पना को साकार करने के लिए संकल्पित हो सकते हैं.
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