विलुप्त हो रही डफरा लोक नृत्य की प्रस्तुति ने मोहा मन

विलुप्त हो रही सदियों पुरानी डफरा लोक नृत्य की प्रस्तुति ने मोहा मन

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डफरा नृत्य को मंच देकर और उसके कलाकारों को सम्मानित कर इस विलुप्त होती कला के संरक्षण में किया गया अमूल्य योगदान

बिहार सरकार के कला संस्कृति और युवा विभाग तथा सीवान जिला प्रशासन द्वारा देशरत्न राजेंद्र जयंती और जिला स्थापना दिवस पर गांधी मैदान में आयोजित सांस्कृतिक संध्या बनी एक यादगार आयोजन

✍️ डॉक्टर गणेश दत्त पाठक, श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्‍क:

 

सीवान। सदियों पुरानी परंपराएं चाहे वो लोक नृत्य की हो या लोक नाट्य की, उसके तार दिल से जुड़े होते है। हो सकता है कि वे विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हो लेकिन जब सदियों पुराने लोक नृत्य मंच पर दिखाई देते हैं तो सिहरन होती है, मन में रोमांच उत्पन्न होता है और जबरदस्त सुकून भी मिलता है। साथ ही, जो सांस्कृतिक अनुभूति होती है वह भी अदभुत ही होता है। ऐसे प्रयासों की सराहना करने को मेरी लेखनी भी उत्सुक हो जाती है।

कुछ ऐसा ही हुआ मंगलवार की संध्या को, जब जिला प्रशासन और कला, संस्कृति, युवा विभाग के संयुक्त तत्वावधान में नगर की हृदयस्थली गांधी मैदान में देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की 140वीं जयंती और सीवान जिला प्रशासन की 52वीं वर्षगांठ पर सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में सीवान में सदियों से प्रचलित रहे डफरा नृत्य की प्रस्तुति हरिजन समुदाय के लोगों द्वारा दी गई। डफरा नृत्य की शैली काफी हद तक गोंड लोक नृत्य शैली से मिलती रही है। डफरा लोक नृत्य को सीवान के सिसवन के समीप स्थित महानगर गांव और सीवान नगर के नजदीक स्थित धनौती मठ के हरिजन समुदाय के लोगों ने प्रस्तुत किया। इस नृत्य की प्रस्तुत करवाने में सीवान में कला को समर्पित रसमंजरी फाउंडेशन के चंदन कुमार की अहम भूमिका रही। सीवान की कला, संस्कृति पदाधिकारी डॉक्टर ऋचा वर्मा ने बताया कि डफरा लोक नृत्य कला, जो विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई है उसका जिला स्थापना दिवस और राजेंद्र जयंती समारोह में गांधी मैदान में प्रस्तुति का उद्देश्य इस अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण का प्रयास ही है।

निश्चित तौर पर जिला प्रशासन, सीवान और बिहार सरकार का कला संस्कृति और युवा विभाग धन्यवाद का पात्र है। सराहना इस बात की होनी ही चाहिए कि इस विलुप्त हो रही कला को एक प्रतिष्ठित मंच मुहैया कराया गया और लोक कलाकारों को सम्मान देकर उनकी कला के प्रति संवेदना जाहिर किया गया। सीवान के डीडीसी मुकेश कुमार ए डी एम नवनील कुमार आदि अन्य वरीय अधिकारियों ने डफरा नृत्य के लोक कलाकारों को मंच पर सम्मानित किया। एक प्रतिष्ठित मंच मिलने और उस पर सम्मानित होकर स्थानीय हरिजन कलाकार भावुक हो गए उनकी आँखें छलक आईं। जब वे मंच पर डफरा नृत्य की प्रस्तुति दे रहे थे तो रसमंजरी फाउंडेशन के चंदन कुमार द्वारा बार बार उन्हें समय की बाध्यता की तरफ ध्यान दिलाया जा रहा था लेकिन कलाकार उत्साह में बस अपनी कला का प्रदर्शन जीभर कर लेना चाह रहे थे। बस इसी सम्मान की चाहत होती है इन कलाकारों की। ऐसे प्रयासों से ही हम इस लोक कला के संरक्षण में सफल हो सकते हैं। कार्यक्रम में सीवान के डीएम मुकुल कुमार गुप्ता सहित जिला प्रशासन के अन्य वरीय पदाधिकारी मौजूद रहे। स्थापना दिवस कार्यक्रम में डाफरा लोक नृत्य की प्रस्तुति बरसों तक यादों की धरोहर भी बनी रहेगी।

कला क्षेत्र से जुड़ी संस्था रसमंजरी फाउंडेशन के चंदन कुमार ने बताया कि सिवान में विभिन्न जाति एवम् समुदाय के लोग निवास करते हैं। सबकी अपनी -अपनी कुछ परंपराएँ एवं रीति-रिवाज रही है। अपने -आपको या अपनी बातों को अभिव्यक्त करने का लोक -शैली भी रही है जिसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनकी प्रस्तुति मौखिक ही होती रही है। ऐसी कई कला शैली अब धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर है। लोगों का ध्यान उधर से हटता जा रहा है। जातीय परंपरा होने के कारण इस शैली को दूसरे लोग अपना नहीं पाए और उस जाति के लोग भी जाने-अनजाने में इससे दूर होते गए।

ऐसी ही एक लोक नाट्य शैली है डफरा, जो बिल्कुल गोंड नृत्य से मिलता जुलता है। इसे स्थानीय हरिजन समुदाय के लोग करते रहे हैं। डफरा लोक नृत्य के कलाकार मैदान या किसी भी स्थान पर सहजता के साथ प्रस्तुति कर लेते हैं। न कोई मंचीय सीमा होती है और न ही कोई बंधन। वे काफी स्वतंत्र होते हैं। चलते-चलते इनका कारवां अपना घेरा बनाते हुए चलता रहता है और उनका मंच अपने स्वरूप में घूमता फिरता-रहता है। दर्शकों के भीतर भी उनका आना-जाना रहता है। कई बार अपने नाटक के साथ दर्शकों को पात्र रूप में जोड़ने की कोशिश भी वे करते हैं।

डफरा नाट्य शैली के साथ एक और खूबी है जो विशेष महत्व रखती है। यदि यह मंडली बारात में मनोरंजन के लिए गई है तो अलग से किसी गाजे-बाजे की जरूरत नहीं पड़ती है। लड़के के घर परिछावन प्रारंभ होने से लड़की की विदाई तक की रस्मों में वे अपनी भूमिका निभाते हैं। इसके लिए हर रस्म से संबंधित गीतों का सृजन वे अलग-अलग रूपों-धुनों में करते हैं।

डफरा नाच की प्रस्तुति बिल्कुल अलग तरह से होती है। इसमें जो पात्र वादक होते हैं, वहीं गाते भी हैं और जरूरत पड़ने पर किसी चरित्र का अभिनय भी करते हैं। इसके मुख्य वाद्यों में हुडुक, झाल, कठताल, मजिरा और पखावज इत्यादि होते हैं।

सीवान में गांधी मैदान की सांस्कृतिक संध्या में जब महानगर गांव के लोक कलाकारों ने अपना गायन प्रस्तुति दी तो उसमें मानव के जीवन चक्र को भोजपुरी में इस तरह मनोहारी रूप में प्रस्तुत किया गया कि मन रोमांचित, हर्षित और आह्लादित हो गया।

कुछ वर्षों बाद इस लोक परंपरा का बचे रहना मुश्किल दिखाई देता है जो अवश्य ही चिंता का विषय है। हां यदि लोग शादी आदि अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों में इसे प्रस्तुत करवाए तो जरूर इस अद्भुत सांस्कृतिक धरोहर को सहेजा जा सकता है।इस विलुप्त होती लोक नृत्य कला को बचाया जा सकता है।

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